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जून, 2022 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

डिजिटल तस्वीरों के कूड़ास्थल

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एक इतालवी मित्र, जो एक म्यूज़िक कन्सर्ट में गये थे, ने कहा कि उन्हें समझ नहीं आता था कि इतने सारे लोग जो इतने मँहगे टिकट खरीद कर एक अच्छे कलाकार को सुनने गये थे, वहाँ जा कर उसे सुनने की बजाय स्मार्ट फ़ोन से उसके वीडियो बनाने में क्यों लग गये थे? उनके अनुसार वह ऐसे वीडियो बना रहे थे जिनमें उस कन्सर्ट की न तो बढ़िया छवि थी न ध्वनि। उनका कहना था कि इस तरह के वीडियो को कोई नहीं देखेगा, वह खुद भी नहीं देखेंगे, तो उन्होंने कन्सर्ट का मौका क्यों बेकार किया? उनकी बात सुन कर मैं भी इसके बारे में सोचने लगा। मुझे वीडियो बनाने की बीमारी नहीं है, कभी कभार आधे मिनट के वीडियो खींच भी लूँ, पर अक्सर बाद में उन्हें कैंसल कर देता हूँ। लेकिन मुझे भी फोटो खींचना अच्छा लगता है। तो प्रश्न उठता है कि यह फोटो और वीडियो जो हम हर समय, हर जगह खींचते रहते हैं, यह अंत में कहाँ जाते हैं? क्लाउड पर तस्वीरें कुछ सालों से गूगल, माइक्रोसोफ्ट आदि ने नयी सेवा शुरु की है जिसमें आप अपनी फोटो और वीडियो अपने मोबाईल या क्मप्यूटर में रखने के बजाय, अपनी डिजिटल फाइल की कॉपी "क्लाउड" यानि "बादल" पर रख सकते हैं।

धर्मों की आलोचना व आहत भावनाएँ

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आप के विचार में धर्मों की, उनके देवी देवताओं की और उनके संतों और पैगम्बरों की आलोचना करना सही है या गलत? मेरे विचार में धर्मों से जुड़ी विभिन्न बातों की आलोचना करना सही ही नहीं है, आवश्यक भी है। अगर आप सोचते हैं कि अन्य लोग आप के धर्म का निरादर करते हैं और इसके लिए आप के मन में गुस्सा है तो यह आलेख आप के लिए ही है। इस आलेख में मैं अपनी इस सोच के कारण समझाना चाहता हूँ कि क्यों मैं धर्मों के बारे में खुल कर बात करना, उनकी आलोचना करने को सही मानता हूँ। धर्मों की आलोचना का इतिहास अगर एतिहासिक दृष्टि से देखें तो हमेशा से होता रहा है कि सब लोग अपने प्रचलित धर्मों की हर बात से सहमत नहीं होते और उनकी इस असहमती से उन धर्मों की नयी शाखाएँ बनती रहती हैं। उस असहमती को आलोचना मान कर प्रचलित धर्म उसे दबाने की कोशिश करते हैं, लेकिन फ़िर भी उस आलोचना को रोकना असम्भव होता है। यही कारण है कि दुनिया के हर बड़े धर्म की कई शाखाएँ हैं, और उनमें से आपस में मतभेद होना या यह सोचना सामान्य है कि उनकी शाखा ही सच्चा धर्म है, बाकी शाखाएँ झूठी हैं। कभी कभी एक शाखा के अनुयायी, बाकियों को दबाने, देशनिकाला देने या जान स

पौशानाटिका के जलवे

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कुछ दिन पहले उत्तरपूर्वी इटली में हमारे शहर स्किओ (Schio) में रंगबिरंगी पौशाकें पहने हुए बहुत से नवयुवक और नवयुवतियाँ वार्षिक कोज़प्ले (Cosplay) प्रतियोगिता के लिए जमा हुए थे। "कोज़प्ले" क्या होता है, यह मुझे कुछ साल पहले ही पता चला था। कोज़प्ले शब्द दो अंग्रेज़ी शब्दों को मिला कर बना है, कोज़ यानि कोस्ट्यूम (Costume) या रंगमंच की पौशाक और प्ले (Play) यानि खेल या नाटक। इस तरह से मैंने कोज़प्ले शब्द का हिंदी अनुवाद किया है पौशानाटिका। कोज़प्ले यानि पौशानाटिका कोज़प्ले की शुरुआत जापान में पिछली शताब्दी के सत्तर के दशक में हुई, जब कुछ किशोर रोलप्ले वाले खेलों और माँगा कोमिक किताबों के पात्रों की पौशाकें पहन कर मिलते थे। 1990 के दशक में कमप्यूटर खेलों का प्रचलन हुआ जब गेमबॉय जैसे उपकरण बाज़ार में आये तो कोज़प्ले और लोकप्रिय हुआ। तब से आज तक इस कोज़प्ले या पौशानाटिका का दुनिया में बड़ा विस्तार हुआ है। नये कमप्यूटर खेल, विरच्युल रिएल्टी, एनिमेटिड फ़िल्में आदि के पात्र भी इस परम्परा का हिस्सा बन गये हैं। हमारे शहर में जो पौशानाटिकी समारोह होते हैं, उनमें सबसे अधिक लोकप्रिय हैं - डनजे

फ़िल्मी दुखड़े

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एक समय था जब मुझे फिल्म देखना बहुत अच्छा लगता था, लेकिन फ़िर जाने क्या हुआ, मुझे फ़िल्में देखने से कुछ विरक्ति सी हो गयी है। कहते थे कि कोविड में सूंघने की शक्ति चली जाती है, वैसे ही मुझे शक है कि किसी रोग की वजह से मुझे अब फ़िल्म देखना अच्छा नहीं लगता।  *** बचपन में सिनेमाहाल में पहली फ़िल्म देखी थी, दिल्ली के झँडेवालान में स्थित नाज़ सिनेमा पर, वह थी भारत भूषण और मीना कुमारी की "बैजू बावरा"। उस फ़िल्म से कुछ भी याद नहीं है केवल अंतिम दृश्य याद है जिसमें मीना कुमारी नदी में बह जाती है। इस फ़िल्म के बारे में खोजा तो देखा कि यह फ़िल्म 1952 में आयी थी, जब मैं पैदा नहीं हुआ था, जबकि मेरे विचार में मैं अपनी मम्मी और उनकी सहेली के साथ इस फ़िल्म को 1959-60 में देखने गया था। तब हम लोग झँडेवालान से फिल्मिस्तान जाने वाली सड़क पर बाँयी ओर जहाँ कब्रिस्तान है उसके साथ वाली सड़क पर रहते थे, तो बैजू बावारा के बाद नाज़ पर बहुत सी फ़िल्में देखीं। उन सब फ़िल्मों में सबसे यादगार फ़िल्म थी बासू भट्टाचार्य की "अनुभव", जिसे देखने मैं अपनी मँजू दीदी और उनके बेटे मुकुल के साथ गया था, जो तब