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स्मृति शेष

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18 फरवरी 2010 को सुबह सात बज कर दस मिनट पर माँ ने अंतिम साँस ली. कुछ दिन पहले ही मालूम हो गया था कि उनके जाने का समय आ रहा था. एक तरफ़ मन चाहता था कि वह हमेशा हमारे साथ रहें, दूसरी ओर सारे जीवन की उनकी शिक्षा थी कि तड़प तड़प कर जीना, कोई जीना नहीं और यह भी जानते थे अगर वह स्वयं निर्णय ले पाती तो शायद इससे बहुत पहले ही चली गयीं होतीं. पिछले दस सालों से धीरे धीरे उनकी यादाश्त जा रही थी. पिछले वर्ष जून में दिल्ली में उनके पास रहा था अपनी छोटी बहन के घर जहाँ वह पिछले कई सालों से रह रही थीं. उन्हें घर के कम्पाऊँड में घूमाने ले गया था. अचानक वह मेरी ओर मुड़ कर बोली थीं, "भाई साहब, आप मेरे इतना साथ साथ क्यों चल रहे हैं?" यानि बीच बीच मुझे भी नहीं पहचान पाती थीं. पिछले चार पांच महीनों से उनका बोलना अधिकतर समझ में नहीं आता है, शब्द, वा्कय, अर्थ सब गुड़मुड़ हो गये थे. उन दिनों रात को उनके साथ ही बिस्तर पर सोता था, उनका हाथ पकड़ कर सहलाता रहता या छोटे बच्चे की तरह उनसे लिपट जाता. सारी उम्र कठिनाईयों से लड़ने वाली माँ चमड़ी में लिपटी हड्डियों का ढाँचा रह गयी थी, लगता कि ज़ोर से दबाओ