संदेश

फ़रवरी, 2011 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

रँगबिरँगे मुखोटों का त्योहार

चित्र
बहुत सालों से वेनिस के रँगबिरँगे मुखोटों के कार्नेवाल को देखने की इच्छा थी, लेकिन हर बार बीच में कोई न कोई अड़चन आ जाती थी. हमारे शहर बोलोनिया से वेनिस कुछ विषेश दूर नहीं, रेलगाड़ी से केवल दो घँटे का रास्ता है. करीब तीस वर्ष पहले जब इटली में नया था तब अस्पताल में साथ काम करने वाले मित्र मुझे शाम को साथ वेनिस ले गये थे, लेकिन तब वाइन पी कर हुल्लड़ करने में हमारी अधिक दिलचस्पी थी, तो क्या देखा था उसकी मन में बस कुछ धुँधली सी यादें थीं. इसलिए कल जब मौका मिला छोटा कार्नेवाल देखने का, तो उसे खोना नहीं चाहा. आज उसी वेनिस के मुखोटों वाले कार्नेवाल की कुछ तस्वीरें प्रस्तुत हैं. कार्नेवाल शब्द लेटिन से बना है, जिसका अर्थ है "कारने लेवारे" (Carne=meat, levare=remove), यानि "माँस को हटा दीजिये". जैसे मुसलमानों में रोज़े होते हैं, कुछ उसी तरह कैथोलिक ईसाई अपने त्योहार ईस्टर के पहले 40 या 44 दिनों का खाने का परहेज़ करते हैं, जिसमें माँस खाना वर्जित होता है. ईस्टर की तारीख रोमन कैलेंडर से नहीं बल्कि वसंत की पूर्णमासी से निर्धारित की जाती है, इसलिए हर साल अलग दिन पड़ती है. कार्

मलदान मिलेगा?

चित्र
कोई अगर अपनी जान बचाने के लिए आप से आप का थोड़ा सा ताज़ा किया हुआ पाखाना माँगे तो क्या आप देंगे? आप सोच रहे होंगे कि शायद यह कोई मज़ाक है. लेकिन यह कोई मज़ाक नहीं है, बल्कि वैज्ञानिक खोज का विषय है, जिसकी कहानी न्यु साईन्टिस्ट पत्रिका में श्री अनिल अनन्तस्वामी ने लिखी है. "पाखाना" शब्द ही कुछ ऐसा है जिसका सामाजिक प्रभाव छोटी उम्र से ही बहुत तेज़ होता है जिसकी वजह से शब्द से भी कुछ घिन सी आने लगती है. कमालहसन की एक पुरानी फ़िल्म थी " पुष्पक " जिसमें कोई डायलाग नहीं थे, उसमें मलदान के कुछ दृश्य थे. अगर आप ने यह फ़िल्म देखी है तो मेरे विचार में इन दृश्यों को भूलना कठिन है. फ़िल्म में हीरो ने एक पुरुष को घर में बन्द किया है, और उसके पाखने को छुपाने के लिए हर रोज़ एक डिब्बे में बँद करके, उस पर रंगीन कागज़ चढ़ा कर, बसस्टाप के पास रख आता है, जहाँ उसे ले कर जो भी खोलता है वह पाखाना देख कर उल्टी कर देता है. तब रंगीन डिब्बों में बम आदि छोड़ने का काम नहीं शुरु हुआ था, इसलिए यह दृश्य विश्वस्नीय था, आज तो डिब्बा खोलने से पहले ही पुलिस बम विस्फोट टीम के साथ हाज़िर हो जायेगी.

बात निकलेगी तो ..

चित्र
तीस पैंतीस साल पहले जगजीत सिंह का एक गीत था जो मुझे बहुत प्रिय था, "बात निकलेगी तो बहुत दूर तलक जायेगी ..". आज अचानक इटली के "फासीवाद" के बारे में छोटी सी बात से एक खोज शुरु की, वह मुझे ऐसे ही जाने कहाँ कहाँ घुमाते हुए बहुत दूर तक ले आयी. दरअसल बात शुरु हुई थी शहीद भगत सिंह से. मैं पढ़ रहा था शहीद भगत सिंह के दस्तावेज़. लखनऊ की राहुल फाऊँडेशन ने 2006 में, श्री सत्यम द्वारा सम्पादित यह नया संस्करण छापा था जिसमें भगतसिंह और उनके साथियों के सम्पूर्ण उपलब्ध दस्तावेज़ संकलित हैं. दिल्ली के क्नाट प्लेस की एक दुकान में इस किताब के मुख्यपृष्ठ ने मेरा ध्यान आकर्षित किया था जिस पर नवयुवक भगतसिंह हैं और तस्वीर देख कर सोचा था कि भारत में भगतसिंह का नाम जानने वाले तो थोड़े बहुत अब भी मिल जायेंगे, लेकिन उनकी तस्वीर देख कर पहचानने वाले मुश्किल से मिलेंगे. उनका नाम सोचो तो मन में मनोज कुमार या अजय देवगन या बोबी देवल द्वारा अभिनीत भगत सिंह की छवियाँ ही मन में आती हैं. जेल में लिखी डायरियों में भगत सिंह ने कई बार इटली के स्वतंत्रता युद्ध और देश को जोड़ने वाले व्यक्तियों जैसे क

नारी मुक्ति की संत

चित्र
शरीर की नग्नता में क्या नारी मुक्ति का मार्ग छुपा हो सकता है? कर्णाटक की संत महादेवी ने वस्त्रों का त्याग करके अपने समय के सामाजिक नियमों को तोड़ा था. क्यों? मधुश्री दत्ता की सन् 2000 की डाक्यूमेंटरी फ़िल्म "स्क्रिब्बल्स आन अक्का" (अक्का पर लिखे कुछ शब्द - Scribbles on Akka ) देखने का मौका मिला जो बाहरवीं शताब्दी की दक्षिण भारतीय संत अक्का महादेवी की कविताओं के माध्यम से उनके क्राँतिकारी व्यक्तित्व को विभिन्न दृष्टिकोणों से देखने का प्रयास है. फ़िल्म उन असुविधाजनक व्यक्तित्वों के बारे में सोचने पर बाध्य करती है जो समाज के हो कर भी धर्म के नाम पर, समाज के नियमों को तोड़ने का काम करते हैं पर जिनका समाज पर इतना गहरा प्रभाव होता है कि चाह कर भी उनको छुपाया या भुलाया नहीं जा सकता. महादेवी या अक्का (दीदी) बाहरवीं शताब्दी की वीरशैव धार्मिक आंदोलन का हिस्सा मानी जाती हैं. वीरशैव आंदोलन में वैदिक कर्मकांड, मूर्तिपूजा, जाति भेदभाव, अवतारवाद, अंधश्रद्धा आदि को बाधक ठहराया और अल्लमप्रभु, अक्कमहादेवी, चेन्न-बंसव तथा सिद्धराम जैसे संतों ने जातिरहित, वर्णरहित, वर्गरहित समाज के निर्मा

प्रेम निवेदन

चित्र
हिन्दी फ़िल्मों के गानों में हमारे जीवन के सभी सुखों दुखों का हाल छिपा है. चाहे कोई भी मौका हो, मुंडन से ले कर मैंहदी तक, करवाचौथ से ले कर क्रियाकर्म तक, खाना बनाते समय सब्ज़ी जल गयी हो या काम पर जाते समय बस छूट गयी हो, प्रेयसी मिलने आये या दगा दे जाये, पापा गुस्सा हों या माँ ने मन पसंद खीर बनायी हो, कुछ भी मौका हो, बस उसका गीत मन में अपने आप आ जाता है. और चाहे उसे गायें या न गायें, मन में अपने आप ही गूँज जाता है. क्या आप को भी लगता है कि बिना इन गानों के जीवन का रस कुछ कम हो जायेगा? और क्या आप के साथ कभी ऐसा हुआ है कि अचानक कोई गीत सुनते सुनते, अपने जीवन की वह बात समझ में आ जाती है जिस पर कभी ठीक से नहीं सोचा था? मेरे साथ यह अक्सर होता है. अगले वर्ष मेरे विवाह को तीस साल हो जायेंगे. काम के लिए अक्सर देश विदेश घूमता भटकता रहता हूँ. इन्हीं यात्राओं से जुड़ी एक बात थी, जो अचानक " तनु वेड्स मनु " का एक गाना सुनते समय समझ आ गयी. गाना के बोल लिखे हैं राजशेखर ने और गाया है मोहित चौहान ने . गाने के बोल हैं - कितने दफ़े मुझको लगा तेरे साथ उड़ते हुए आसमानी दुकानो से ढूँढ़ के

गालिब खड़े बाज़ार में

चित्र
अमरीकी विश्वविद्यालय की प्राध्यापिका और कवयत्री रीटा डोव का   डिजिटल युग की कविता  के बारे में वीडियो देख रहा था. इस तरह के वीडियो देखना मुझे बहुत अच्छा लगता है. अपने मन पसंद विषयों पर कवियों, विचारकों, वैज्ञानिकों, लेखकों, दर्शकों, इतिहासकारों आदि को सुनना, जब जी करे तब. बिना यह चिन्ता करे कि कितने बजे टीवी या रेडियो पर आयेगा, अपनी मर्ज़ी से जब जी चाहे देखो और जितनी बार चाहे देखो कि अब ऐसी आदत पड़ी है कि सामान्य टीवी बहुत कम देखता हूँ. बिग थिंक , टेड , 99 प्रतिशत , पोपटेक , जेल वीडियो कोनफ्रैंस , रिसर्च चैनल , वीडियो लेक्चर , जाने कितनी जगहें हैं जहाँ पर जानने समझने के लिए खजाने भरे हैं, और कोई फीस या घर से बाहर जाने की भी आवश्यकता नहीं. जब हम स्कूल जाते थे तो किसी विषय पर कुछ जानने समझने के लिए बस स्कूल की किताबें ही थीं. एनसाईक्लोपीडिया या फ़िर विषेश किताबें कभी पुस्कालय में पढ़ने को मिल जाती, पर यह कभी कभी ही होता. आज आप सरकारी स्कूल में हों या कानवैंट में, विश्वविद्यालय में हों या मेरे जैसे घर में बैठ कर दिलचस्पी रखने वाले, कोई भी विषय हो, दुनिया के जाने माने विशेषज्ञ उसके बार

फुरसत के रात दिन

कुछ दिन पहले पंडित भीमसेन जोशी के देहावसान का समाचार पढ़ा तो 1975-76 के वो दिन याद आ गये जब उन्हें पहली बार सुना था. पहले तो परम्परागत शास्त्रीय संगीत में बिल्कुल दिलचस्पी नहीं थी, लगता था कि बस "आ आ" करते रहते हैं जिसमें मुझे कोई रस नहीं मिलता था. तब छोटी बुआ दिल्ली के जानकीदेवी महाविद्यालय में पढ़ाती थीं और महाविद्यालय परिसर के अन्दर ही हँसध्वनि के घरों में रहती थीं. मेरा खाली समय अक्सर वहीं गुज़रता था. दीदी या भाँजे के साथ बड़े मैदान में घूमते घूमते, बाते चुकती ही नहीं थीं. जानकी देवी में नहीं होता था तो शंकर रोड पर मित्रों के साथ होता. कालिज से घर आ कर, एक बार मित्रों के साथ घूमने और गप्प मारने के लिए निकलता तो रात को देर तक घर वापस नहीं लौटता था. तब सब मित्रों के नाम, काका, मुन्ना, शिशु, नानी, पप्पू, आदि, सभी छोटे बच्चों को प्यार से पुकारने वाले नाम ही थे. वहीं जानकी देवी में हँसध्वनि वाले घर में ही पहली बार शास्त्रीय संगीत की सुंदरता मन में समझ आयी थी जब पहली बार फ़ूफ़ा ने कुमार गंधर्व का निरगुणी भजनों वाला रिकार्ड सुनवाया था. उड़ जायेगा, उड़ जायेगा हँस अकेला ज