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जुलाई, 2008 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

संस्कृति पर विदेशी प्रभाव

जब भी भारतीय संस्कृति की बात होती है तो संस्कृति को कैसे उसके मूल रूप में बना कर और बचा कर रखा जाये, इसकी बात भी अवश्य होती है. इस बहस के आधार में एक सोच छुपी होती है कि मूल भारतीय संस्कृति वेदों और आर्यों की संस्कृति है, जो पाँच हज़ार वर्षों से भी पुरानी धरोहर है जिसे हमें सहेज कर रखना है. इसी मूल विचार को मान कर अक्सर भारतीय संस्कृति की रक्षा की बात करने वाले रुष्ठ हो जाते हैं जब कोई आर्यों के विदेश में मध्य एशिया से भारत में आने की बात करता है, क्योंकि उन्हें लगता है कि आर्यों का विदेश से आना मान लेने से यह हमारी संस्कृति भी विदेशी बन जाती है, उसकी भारतीयता में खोट सा आ जाता है. मैं सोचता हूँ कि इस सारी बहस के मूल में दो गलतियाँ हैं. पहली गलती: द्विवाद या बहुवाद ? पश्चिमी विचार पद्धति के "द्विवाद" के तर्क को सोचने का एकमात्र तरीका मान कर हम लोग अपने "बहुवाद में एकता" के तर्क से सोचने के तरीके भुला देते हैं. पश्चिमी सोच द्विवाद (dichotomy) के तर्क पर बनी है, यानि एक वस्तु एक समय में एक ही हो सकती है, दो या अधिक नहीं. यह सोच का वैज्ञानिक तरीका है, सारा आधुनिक विज्ञ

किताब के बाहर

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पाकिस्तानी फ़िल्म निर्देशक शोहेब मंसूर की फ़िल्म "खुदा के लिए" देखी और अच्छी लगी. फ़िल्म कहानी है तीन प्रमुख पात्रों की - मंसूर (शान), सरमद (फ्वद खान) और मरियम (इमान अली) की. मंसूर और सरमद दो भाई संगीत प्रेमी है जो लाहौर में रहते हैं. उनकी चचेरी बहन मरियम लंदन में रहती है. सरमद एक मौलाना के सम्बंध में आते हैं और उनकी बातों से प्रभावित हो कर सोचने लगते हैं कि संगीत इस्लाम के विरुद्ध है तो संगीत छोड़ देते हैं, दाड़ी बढ़ा लेते हैं, पैंट कमीज छोड़ कर पाकिस्तानी वस्त्र पहनने लगते हैं, माँ से कहते हैं कि तुम परदा करो, आदि. मरियम लंदन में एक ईसाई युवक से विवाह करना चाहती है पर उनके पिता के अनुसार मुसलमान युवती धर्म से बाहर विवाह नहीं कर सकती, तो वह उसे धोखे से पाकिस्तान लाते हैं और वहाँ जबरदस्ती उसका विवाह चचरे भाई सरमद से करा देते हैं, जो पत्नी को ले कर अफगानिस्तान के एक गाँव में रहते हैं ताकि मरियम भाग न सके. मंसूर को अपने छोटे भाई सरमद का इस तरह रूढ़िवादी बन जाना समझ नहीं आता, वह उसके विचार बदलने की कोशिश करता है पर कुछ नहीं बदल पाता. उसे अमरीका में संगीत सीखने की छात्रवृति मिलती है,

मेरी गलती

कुछ दिन पहले की मेरी एक पोस्ट पर राज भाटिया जी ने टिप्पणी दीः "मुझे तरस आता हे आप की सोच पर,बस ज्यादा कुछ नही लिखुगां" उसके थोड़ी देर बार बाद किसी ने बनाम हो कर राज भाटिया के बारे में यह टिप्पणी दीः "राज भाटिया जी आप अपने बूढे माता-पिता को रोहतक मे छोडकर विदेश मे मजे कर रहे है। पिताजी के देहाण्त मे भारत आते है तो भारत और इसकी समस्याए आपको नागवार गुजरती है। अकेली माँ को छोडकर फिर विदेश चले जाते हो। ऐसे उच्च संस्कार वाले तथाकथित भारतीय को तो निश्चित ही दीपक जी के लिखे पर तरस आना चाहिये। जिस देश तुन्हे पोसा और जिस माँ ने तुम्हे जन्म दिया उसी की निन्दा अपने ब्लाग पर करते हो, तब तरस नही आता लिखे पर---" वैचारिक रूप से राज जी की टिप्पणी में कुछ दम नहीं था, किसी की बात का विरोध करना हो तो यह भी लिखा जा सकता है कि मैं आप की बात से सहमत नहीं या फ़िर असहमती की दलीलें भी दीं जा सकती हैं. पर फ़िर भी उनकी टिप्पणी से बहुत साल पहले के दोस्तों से होने वाली बहसें याद आ गयीं, जब आपस में अक्सर इस तरह की बात किया करते थे कि "मुझे तुम्हारी सोच पर तरस आता है, इत्यादि". अक्सर इ

सीमाहीन आसमान का देश

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कुछ दिन पहले की मेरी मँगोलिया यात्रा की डायरी के कुछ अंश प्रस्तुत हैं. पहाड़ों के बीच में घाटी में बसा सगसाई शहर बहुत सुंदर है. दो नदियाँ बहती हैं टगरन और सगसाई. टगरन में बाढ़ सी आ रही थी और पानी का बहाव बहुत तेज था. एक जगह जीप नदी पार करने के लिए पानी में उतरी तो लगा कि बह ही न जाये. वहाँ रहने वाले अधिकतर लोग कजाक जाति के हैं यानि मुसलमान जबकि मँगोलिया में अधिकतर लोग बुद्ध धर्म के हें और बायान उल्गीई अकेला राज्य है जहाँ अधिक मुसलमान हैं, उनकी भाषा भी भिन्न है. हरि नाम है यहाँ विकलांग कार्यक्रम के अधिकारी का, नाम हिंदु लग सकता है पर धर्म है मुसलमान. बहुत हँसमुख है. कहने लगा कि यहाँ के मुसलमान बातचीत कपड़ों, आदतों में अन्य मँगोलिया वासियों जैसे ही हैं. लड़कियाँ और औरतें पर्दा नहीं करती, पैंट स्कर्ट आदि ही पहनती हैं. लोग वोदका भी बहुत पीते हैं, हाँ सुअर का माँस नहीं खाते. पर वह बता रहा था कि यहाँ के युवकों को साऊदी अरब, तुर्की और पाकिस्तान जैसे देशों से छात्रवृति का लालच दे कर बुला लेते हैं और यह युवक वापस आ कर पुराने ढंग से, इस्लाम का पालन करते हुए रहने की बात करते हें पर इसका अब तक कुछ विष