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टिप्पणी चर्चा

कभी कभी मन में आता है कि टिप्पणियों ने क्या बिगाड़ा किसी का जो उनकी कहीं कोई पूछ नहीं है? रो धो कर चिट्ठा चर्चा के बाद अगर जगह बचे तो कभी कभी लिख देते हैं, "आज की टिप्पणी". यानि चिट्ठे में कुछ भी लिखिये, गरिमामय माना जायेगा और टिप्पणी में भगवद् गीता भी दीजिये तो लोग पूछेंगे नहीं. यानि कि टिप्पणियाँ चिट्ठा जगत का अफ्रीका हैं, किसी कमज़ोर देवता के बच्चे हैं, समाज के हाशिये से बाहर निकाले विकलाँग हैं या फ़िर अनचाही भारतीय बेटियाँ हैं या देवदास की चँद्रमुखी हैं, जो किसी को उनकी भावना की परवाह ही नहीं है? आज मेरी तरफ़ से बेचारी टिप्पणियों के शोषण के विरुद्ध उठाये आँदोलन में छोटा सा सहयोग, अपने चिट्ठे पर आई कुछ टिप्पणियों की प्रस्तुती से. मेरे सबसे प्रिय टिप्पणी लिखने वाले हैं श्री सँजय बेंगाणी जी . उनकी टिप्पणियों में सरलता होती है पर खाली चिट्ठे को देख कर जब मायूसी हो रही हो हो तो उनकी टिप्पणियाँ मन को सहारा देती है. प्रस्तुत है उनकी एक सरल टिप्पणी, "शीर्षक से लगा आप किसी जंगल से सचमुच की नील गाय की तस्वीर उतार लाए हैं. हरी घास पर नीली गाय बहुत भली लग रही हैं. कम से कम याताया

धाँसू डायलाग

चीन की राजधानी बेजिंग में एक कुष्ठ रोग का अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन था जहाँ मैं विषेश अतिथि के लिए निमंत्रित था और भाषण देना था. सोच रहा था कि नयी क्या बात कहूँ. वैसे तो भाषण पहले से लिख कर भिजवाया था पर मैं उससे संतुष्ट नहीं था. खैर भाषण का समय आया और लिखा हुआ भाषण देने के अंत में कुछ नया जोड़ कहने का विचार अचानक ही आया. बोला, "कुष्ठ रोग से हुई विकलांगता वाले लोग आसमान के तारों की तरह हैं, हैं पर दिन की रोशनी में किसी को दिखते नहीं और हमें इंतज़ार है उस रात के अँधेरे का जब हम भी दिखाई देंगे और कोई हमारे बारे में भी सोचेगा." भाषण समाप्त हुआ तो बहुत तालियाँ बजीं. उन दिनों मैं एक बहुत बड़ी अंतर्राष्ट्रीय संस्था का अध्यक्ष था और जैसा ऐसे पद पर होने से होता है, बहुत लोग भँवरों की तरह आस पास मँडरा रहे थे. उनमें से अनेक लोगों ने भाषण की तारीफ की, पर उस तरह की तारीफ को एक कान से सुन कर दूसरे से निकल करना ही बेहतर होता है. मैं वह वाक्य कैसा लगा, यह सुनना चाहता था. कुछ समय बाद ब्राजील के एक मित्र ने कहा कि हाँ उसे भाषण के अंत में कही वह बात बहुत पसंद आयी तो बहुत अच्छा लगा. सम्मेलन के कुछ द

बादलों में छिपा तारा

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ऋत्विक घटक को सत्यजित राय और मृणाल सेन के साथ बँगला सिनेमा के सबसे उत्तम फिल्मकारों में गिना जाता है. हृषिकेश मुखर्जी की "मुसाफ़िर" और बिमल राय की "मधुमति" जैसी फ़िल्मों की पटकथा लिखने वाले ऋत्विक घटक को अपनी बनाई फ़िल्मों के लिए अपने जीवन में आम जनता की सफलता नहीं मिली पर आज उनकी फ़िल्में सिनेमा परखने वालों में "कल्ट" मानी जाती हैं. ढाका में पैदा हुए ऋत्विक को बँगाल का विभाजन कलकत्ता ले आया पर अपना देस छोड़ने का दर्द उनकी फ़िल्मों में स्पष्ट झलकता है. उनकी मृत्यु 1976 में हुई जब वह केवल ५१ वर्ष के थे. " मेघे ढाका तारा ", यानि "बादलों से ढका तारा" उन्होंने 1960 में बनाई थी, तीन फ़िल्मों की पहली कड़ी के रूप में. इस ट्राईलोजी की अन्य फ़िल्में थीं 1961 की "कोमल गँधार" और 1965 की "सुबर्नरेखा". कथासारः फ़िल्म प्रारम्भ होती है एक विशालकाय भव्य वृक्ष से, जिसके नीचे से गुज़र कर एक छोटी सी आकृति धीरे धीरे आगे आती है. यह आकृति है नीता (सुप्रिया चौधरी), कोलिज में एम.ए. पढ़ने वाली युवती जो बच्चों को ट्यूशन पढ़ा कर घर वापस आ रही है.

हमारे बच्चों की धरती

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शाम को टेलीविजन देख रहे थे जब एक नया विज्ञापन देखा, अमरीकी केलिफ्रोनिया के आलुबुखारों को बेचने का. विज्ञापन दिखाता है कि हर आलुबुखारा एक चमकीली पन्नी में बंद होगा जैसे बच्चों की टाफी या चाकलेट बेचते हैं. मुझे लगा कि यह विज्ञापन आज की "कूड़ा बढ़ाओ" संस्कृति का ही एक हिस्सा है. कुछ भी खरीदिये, तो वह अपने साथ डिब्बे, पोलीफोम, कागज़, प्लास्टिक इत्यादि के साथ आता है, जो सीधा कूड़े में जाते हैं. अधिकाँश खरीदी हुई वस्तुएँ भी कुछ समय के बाद कूड़े में ही जाती हैं. भारत में बिगड़ा टेलीविज़न या रेडियो ठीक करवाना अभी भी हो सकता है, पर यहाँ यूरोप में ठीक करवाने की कीमत इतनी लगती है कि यह कठिन हो जाता है. हमारा सत्तर यूरो का खरीदा सीडी प्लेयर जब खराब हुआ तो मैं उसे दुकान पर ठीक करवाने ले गया. ठीक करवाने के तीस यूरो का बिल जब भरा तो सोचा कि अगली बार कुछ खराबी होगी तो नया लेना ही बेहतर होगा. शाम को कुत्ते के साथ जब सैर को निकलता हूँ तो सड़क के किनारे बने कूड़ा इक्ट्ठा करने वाले डिब्बों के साथ साथ टीवी, फ्रिज, अलमारियाँ, रेडियो, गद्दे, सोफे, सब मिल सकते हैं. यह कूड़ा कहाँ डालें नगरपालिकाएँ? कोई शहर य

अंतहीन गणित राग

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प्रभाकर पाण्डेय जी का नौ का महिमागान पढ़ा जिसमें उन्होंने राम और सीता जी के नामों के पीछे छुपे अंको का नौ से रिश्ता बताया है तो सोच रहा था कि किस भाषा की वर्णमाला के हिसाब से अंक देखे जाते हैं? अगर हिंदी वर्णमाला में "क" एक के बराबर है तो अंग्रेज़ी के हिसाब से हुआ बारह, यानि तीन. और इतालवी वर्णमाला तो अंग्रेज़ी से भिन्न है. तो यह न्यूमोरोलोजिस्ट यानि अंकज्ञान विषेशज्ञ किस तरह निर्णय लेते हैं कि किस भाषा में अंकों की गिनती करें? मुझे स्वयं विश्वास नहीं होता कि एकता कपूर को एकककता ककपूर करने से या विवेक को विवैक लिखने से हमारी नियती बदल सकती है. पर शायद मुसीबत में पड़े लोगों को कोई सहारा चाहिए और जिसमें विश्वास हो उसके लिए नाम के अक्षर बदलने से ही शायद किस्मत बदल जाये! ***** पर प्रभाकर जी जैसे लोग जिन्हें गणित के अंकों में कविता दिख सकती है, उनसे कुछ जलन होती है. अपने को तो गणित का सवाल पूछिये तो तारे दिखने लगते हैं. रामानुज जी कहते थे कि समस्त दुनिया में ही गणित छुपा है. यह बात अंतर्जाल और कम्प्यूटरों को जानने से समझ आती है कि यह कम्प्यूटर पटल पर दिखने वाले शब्द, तस्वीरें, संगीत