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अपनी भाषा

पिछले कई वर्षों से किताबें खरीदना बंद कर दिया है मैंने. कहाँ रखो और एक बार पढ़ कर उनका क्या करो, यही दुविधा थी जिसका उत्तर नहीं मिला. किताबें रखने की जगह सीमित हो और जब अलमारी किताबों से भरी हो तो नयी किताबें कहाँ रखी जायें? खरीदी किताबों को रद्दी के कूड़े में फ़ैंकने से दुख होता था, लेकिन इसके अतिरिक्त चारा भी नहीं था. कुछ किताबें तो हमारे घर के पास वाले पुस्तकालय में दे दीं, पर बाकी बहुत सी किताबें पहले बेसमैंट में रखीं और जब बेसमैंट की छोटी सी कोठरी में जगह की आवश्कता हुई तो बहुत सी किताबें फैंकनीं ही पड़ीं. तो निर्णय लिया कि अब से अँग्रेज़ी, इतालवी जैसी भाषाओं में कोई किताब नहीं खरीदूँगा क्योंकि इन सब भाषाओं की नयी किताबें हमारे स्थानीय पुस्तकालय में तुरंत मिल जाती हैं. अगर कोई पुस्तक पुस्तकालय में नहीं हो, तो उसको खरीदने के लिए फार्म भर देने से, कुछ दिन में पुस्तकालय उसे खरीद लेता है. तो सोचा कि केवल पुस्तकालय से ले कर पढ़ूँगा. पर हिंदी की किताबें पढ़ने के लिए क्या किया जाये, वह तो इटली के किसी पुस्तकालय में नहीं मिलती? अंत में यही सोचा कि हर वर्ष भारत यात्रा में कुछ सीमित हिंद

अतीत का मूल्यांकन

"आप मेरे साथ क्यों चल रहे हैं?" मां ने अचानक मुझसे पूछा. बात कम ही करतीं हैं आजकल माँ, और जब करती भी हैं तो इस तरह कि बात अधिकतर समझ नहीं आती. एक तो उनकी आवाज़ इतनी धीमी हो गयी है कि समझने के लिए बहुत ध्यान से सुनना पड़ता है. उस पर से उनके शब्द गड़मड़ हो गये हैं, पुरानी ऊन के गोले की तरह, एक दूसरे से चिपटे हुए, कहना कुछ चाहती हैं, पर मुख से कुछ और ही निकलता है और वह भी अधूरा. "मां, आप का बेटा हूँ तो आप के ही साथ चलूँगा, और किसी की मां के साथ तो नहीं जा सकता?", मैंने कहा तो उन्होंने उत्तर नहीं दिया पर लगा कि वह कुछ अश्वस्त हो गयीं हों. हम लोग जहाँ रहते हैं वहीं कम्पाऊँड में सैर कर रहे थे. घर के आसपास की सैर या फ़िर सब्ज़ी खरीदने के अलावा घर से बाहर नहीं निकलता, और अगर कोई मिलने वाला मित्र या रिश्तेदार न हो, तो सब समय पढ़ने में ही गुज़रता है. शायद इसी लिए अपने परिवार के अतीत से जुड़ी बातें अक्सर मन में आ जाती हैं, जिनके बारे में अक्सर सोचता रहता हूँ. चूँकि कोई अन्य नहीं जिनसे बात कर सकूँ, बहुत से प्रश्न और उत्तर मन में अपने आप उठ कर, अपने आप ही शांत हो जाते हैं. सो

प्रेम के लिए जेहाद

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इस बार के बोलिनिया फ़िल्म फेस्टिवल में भारतीय मूल के फ़िल्म निर्देशक परवेज़ शर्मा की फ़िल्म "प्रेम के लिए जेहाद" (Jehad for Love) देखने का मौका मिला. इस फ़िल्म के बारे में पिछले वर्ष के जैंडर बैंडर फ़ैस्टिवल (Gender Bender Film Festival) में सुना था पर तब इसे देख नहीं पाया था. फ़िल्म का विषय है आज के वातावरण में विभिन्न देशों में मुसलमान समुदाय में समलैंगिक होने का अर्थ. फ़िल्म में भारत, मिस्र, दक्षिण अफ्रीका, पाकिस्तान, तुर्की, मोरोक्को जैसे देशों से मुसलमान समलैंगिक स्त्रियों तथा पुरुषों की कहानियाँ दिखायीं गयीं हैं. यह अपनी तरह की पहली फ़िल्म है क्योंकि ईस्लाम समलेंगिकता को बिल्कुल स्वीकृति नहीं देता और शारिया की बात की जाये, तो बहुत से परम्परावादी मुसलमान समलैंगकिता की सजा मौत बताते हैं. यही वजह है कि फ़िल्म में साक्षात्कार देने वाले बहुत से लोग अपनी कहानियाँ तो सुनाते हैं पर अपना चेहरा नहीं दिखाते, हालाँकि सुना है कि 2007 में इस फ़िल्म के प्रदर्शित होने के बाद स्वयं परवेज़ को और फ़िल्म में अपनी कहानी सुनाने वाले कई लोगों को मृत्यु की धमकियाँ मिल चुकी हैं. दक्षिण अफ्र