यह जीवन किसका?
पाराम्परिक भारतीय सोच के अनुसार अक्सर बच्चों को क्या पढ़ना चाहिये और क्या काम करना चाहिये से ले कर किससे शादी करनी चाहिये, सब बातों के लिए माता पिता, भैया भाभी, दादा जी आदि की आज्ञा का पालन करना चाहिये. कुछ उससे मिलती जुलती सोच हमारे नेताओं और समाजसेवकों की है जो हर बात में नियम बनाते हैं कि कौन सी फ़िल्म को या किताब को बैन किया जाये, फैसबुक पर क्या लिखा जाये, साड़ी पहनी जाये, जीन्स पहनी जाये या स्कर्ट, बाल कितने लम्बे रखे जाये, आदि. अपने बच्चों को अपने निर्णय अपने आप करने देने के विषय पर मुझे लेबानीज़ लेखक ख़लील गिब्रान की एक कविता बहुत अच्छी लगती है (अनुवाद मेरा ही है): तुम्हारे बच्चे तुम्हारे बच्चे नहीं हैं वह तो जीवन की अपनी आकाँक्षा के बेटे बेटियाँ हैं वह तुम्हारे द्वारा आते हैं लेकिन तुमसे नहीं वह तुम्हारे पास रहते हैं लेकिन तुम्हारे नहीं. तुम उन्हें अपना प्यार दे सकते हो लेकिन अपनी सोच नहीं क्योंकि उनकी अपनी सोच होती है तुम उनके शरीरों को घर दे सकते हो, आत्माओं को नहीं क्योंकि उनकी आत्माएँ आने वाले कल के घरों में रहती हैं जहाँ तुम नहीं जा सकते, सपनों में भी नहीं. तु