संदेश

दिसंबर, 2009 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

अनोखी झाँकियाँ

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इस सप्ताह में तीन बार बर्फ़ गिरी. कल रात से लगातार गिर रही है, खिड़की की सिल पर करीब बीस सैंटीमीटर बर्फ जमी है. लोग कह रहे हैं कि शायद इस साल श्वेत क्रिसमस की बात बने, श्वेत क्रिसमस यानि बर्फ़ से ढका क्रिसमस. जैसे सुनहरे बालों नीली आँखों वाले गोरे चिट्टे जीसस की मूर्ती को देख कर कुछ अज़ीब सा लगता है वैसे ही क्रिसमस के बर्फ़ से ढके होने की बात पर भी कुछ अज़ीब सा लगता है. जेरुसल्म में जहाँ येसू पैदा हुए थे, वहाँ शायद न तो ऐसे लोग होते थे और न ही बर्फ़ गिरती थी. लेकिन अपने भगवान के रूप रंग बदलना यह केवल यूरोप में नहीं होता. अपने राम और कृष्ण भी, अब बस किताबों कविताओं में ही श्याम वर्ण के होते हैं, कैलेण्डरों मूर्तियों में तो आज कल वे भी गोरे चिट्टे ही बिकते हैं. जेरुसल्म जो कि येसूभूमि कही जा सकती है, फ़िलिस्तीनियों से बचने का बहाना करके खुद ही ऊँची दीवार के घेरे में कैद है. इस दीवार के कैदखाने पर क्रिसमस के शाँती संदेश लगाने से क्या कैदखाने बदल जाते हैं? खैर गम्भीर बातें छोड़ें, आज आप का परिचय करायें क्रिसमस के मौके पर इटली की झाँकी बनाने की परम्परा से, कुछ तस्वीरों के माध्यम से. कु

शीबा को गुस्सा क्यों आता है?

"हँस" का नवंबर अंक स्त्री विषशांक था, इसमें  शीबा असलम फाहमी  का लेख "... खाने के और, दिखाने के और" पढ़ा. शीबा जी दिल्ली के जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय में डोक्टरेट के लिए शौध कर रहीं हैं और मुसलमान समाज या इस्लाम धर्म से जुड़े उनके लेख कई बार "हँस" पर पढ़े हैं. उनके किसी लेख के बारे में कुछ लिखा भी था, जिस पर उनसे ईमेल से कुछ बात भी हुई. पिछले माह दो तीन दिन के लिए दिल्ली में था, तभी सैंट स्टीफन कोलिज में "भारत में धर्म, राजनीति और लैंगिकता" विषय पर सेमीनार में शीबा जी को देखा, उन्हें सुनने का मौका भी मिला और कुछ बातचीत भी हुई. उन्होंने पूछा कि क्या मैंने उनका "हँस" के नवंबर अंक वाला लेख पढ़ा या नहीं और कैसा लगा? मैंने कहा कि अभी नहीं पढ़ा, क्योंकि पत्रिका इटली आने में कुछ देर लगाती है और मेरे घर से यात्रा के लिए चलने तक नवंबर अंक नहीं पहुँचा था. इसलिए उनसे वायदा किया कि जब पढ़ूँगा तो उसके बारे में अपनी राय अवश्य दूँगा. भारत से घर वापस लौटे दस दिन हो गये, तो उनका एक अन्य संदेश मिला कि लेख पढ़ा या नहीं? तो रात को सोने से पहले, सोच

हिंदी, अवधी, मैथिली ... ओचितानो

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नियती टेढ़े मेढ़े रास्तों से जाने कब किससे मिला देती है. ईमेल, ईंटरनेट आदि के आविष्कार से, नियती को टेढ़े मेढ़े बैलगाड़ी वाले रास्तों की जगह नये हाईवे मिल गये हैं . कुर्बान अली से मेरी मुलाकात ईमेल के द्वारा हुई थी. स्वत्रंता संग्राम में नेता सुभाष चंद्र बोस के साथी, और बाद में समाजवादी पार्टी के डा. लोहिया जी के साथ जुड़े श्री अब्बास अली के पुत्र कुर्बान अली दिल्ली में पत्रकार हैं. कुर्बान की ईमेल के ही माध्यम से मेरी मुलाकात प्रोफेसर सत्यामित्र दुबे से हुई. डा. राम मनोहर लोहिया पर लिखा प्रोफेसर दुबे का आलेख पढ़ा तो मैंने उन्हें ईमेल लिखा, उत्तर में उन्होंने बताया कि वह मेरे पिता को जानते थे, 1950 के दशक में वह मेरे पिता के साथ लखनऊ में समाजवादी पार्टी के अखबार "संघर्ष" के दफ्तर में साथ रहते थे. अरे, तभी तो मैं पैदा हुआ था, मैंने उन्हे लिखा. हाँ, मुझे याद है, उन्होंने उन दिनों के बारे में बताया. यह था नियती का खेल, पचपन सालों के बाद इस तरह हमें मिलवाना. प्रफेसर दुबे के आलेख के साथ साथ, नवंबर 2009 के "इकोनोमिक और पोलिटकल वीकली" पर छपे डा. लोहिया के बारे में दो

नये सुपर मानव

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मेरी एक डाक्टर मित्र कियारा अफ्रीका में कोंगो में शल्य चिकित्सक यानि सर्जन का काम करती थी. 1992 में एक कार दुर्घटना में उसका दाँया हाथ बुरी तरह ज़ख्मी हुआ और अंत में उसे कोहनी से ऊपर से काटना पड़ा. बहुत महीनों तक कियारा अस्पतालों में चक्कर काटती रही, शुरु में बहुत हताश थी कि अफ्रीका में अपने काम करने का सपना अधूरा रह गया. फ़िर धीरे धीरे, कियारा ने बाँयें हाथ से लिखना सीखा. हमारे शहर बोलोनिया के पास छोटी सी जगह है बुद्रियो जहाँ कृत्रिम हाथ और पैर बनाने वाला एक ओर्थोपेडिक केंद्र है जो इस कार्य में अपनी तकनीकी दक्षता के लिए यूरोप में प्रसिद्ध है. कई बार मैं कियारा के साथ वहाँ गया. प्रारम्भ में तो कियारा को एक कृत्रिम बाजू मिली, जिसे लगाने से, अगर गौर से न देखें तो पता नहीं चलता था कि कियारा का दाँया हाथ नहीं है, पर उस कृत्रिम हाथ से कियारा कुछ काम नहीं कर पाती थी. लेकिन फ़िर भी वह वापस कोंगो लौट गयी, जहाँ वह नर्सों और स्वास्थ्य कर्मचारियों को पढ़ाने के काम में लग गयी. हर एक‍ दो सालों में जब भी कियारा वापस इटली आती है, बुद्रियो के ओर्थोपेडिक केंद्र में अपने कृत्रिम हाथ की जाँच कराने जा