बदलती रुचियाँ
एक समय था जब रविवार के आनंद का महत्वपूर्ण भाग होता था बिस्तर में लेटे लेटे गर्म चाय की चुस्कियाँ लेते हुए, अखबार पढ़ना. पढ़ने का इतना शौक था कि अखबार भी पहले से आखिरी पन्ने तक पढ़ी जाती थी. आदत के मारे सुबह आँख जल्दी ही खुल जाती थी, पर रविवार को अखबार देरी से आता था. जैसे ही अखबार वाला बाहर से अखबार को फ़ैंकता तो उसके गिरने की आवाज़ सुनते ही अखबार उठाने के लिए बाहर भागता, फ़िर उसके पन्ने घर में सब लोगों में बँट जाते ताकि किसी को भी उसे पढ़ने के लिए अधिक इंतज़ार न करना पड़े. बचपन में तो घर में अखबार हिंदी का ही आता था, "नवभारत टाईमस". पर किशोरावस्था में आते आते, उसके साथ अँग्रेज़ी का "इँडियन एक्सप्रैस" भी जुड़ गया था. बुआ जो करीब ही रहतीं थीं, के यहाँ आता था अँग्रेज़ी का "हिंदुस्तान टाईमस", पर उसके तीन चार पन्नों के शादियों, घरों और नौकरियों के विज्ञापनों को देख कर मुझे खीज आती थी. सोचता था यह भी कैसा अखबार है, अखबार कम विज्ञापन की दुकान है. वे दिन थे जब अरुण शौरी और चित्रा सुब्रामणियम "इँडियन एक्सप्रैस" में प्रति दिन राजीव गाँधी के विरुद्ध बोफोरस के घप