संदेश

अगस्त, 2006 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

बदलती रुचियाँ

एक समय था जब रविवार के आनंद का महत्वपूर्ण भाग होता था बिस्तर में लेटे लेटे गर्म चाय की चुस्कियाँ लेते हुए, अखबार पढ़ना. पढ़ने का इतना शौक था कि अखबार भी पहले से आखिरी पन्ने तक पढ़ी जाती थी. आदत के मारे सुबह आँख जल्दी ही खुल जाती थी, पर रविवार को अखबार देरी से आता था. जैसे ही अखबार वाला बाहर से अखबार को फ़ैंकता तो उसके गिरने की आवाज़ सुनते ही अखबार उठाने के लिए बाहर भागता, फ़िर उसके पन्ने घर में सब लोगों में बँट जाते ताकि किसी को भी उसे पढ़ने के लिए अधिक इंतज़ार न करना पड़े. बचपन में तो घर में अखबार हिंदी का ही आता था, "नवभारत टाईमस". पर किशोरावस्था में आते आते, उसके साथ अँग्रेज़ी का "इँडियन एक्सप्रैस" भी जुड़ गया था. बुआ जो करीब ही रहतीं थीं, के यहाँ आता था अँग्रेज़ी का "हिंदुस्तान टाईमस", पर उसके तीन चार पन्नों के शादियों, घरों और नौकरियों के विज्ञापनों को देख कर मुझे खीज आती थी. सोचता था यह भी कैसा अखबार है, अखबार कम विज्ञापन की दुकान है. वे दिन थे जब अरुण शौरी और चित्रा सुब्रामणियम "इँडियन एक्सप्रैस" में प्रति दिन राजीव गाँधी के विरुद्ध बोफोरस के घप

जीवन मृत्यु

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रोम के भारतीय दूतावास पर प्रवासी भारतीय नागरिकता के कार्ड के लिए अपने और पुत्र के कागज़ जमा करवाने थे, सुबह सुबह बोलोनिया से गाड़ी में हम लोग निकले, मैं, पुत्र और पुत्रवधु. तीन महीने हो गये पुत्रवधु को इटली आये, सोचा कि काम समाप्त होने के बाद रोम की सैर भी जाये तो चार घँटे की जाने की और चार घँटे की वापस आने की यात्रा का कुछ लाभ होगा. भारतीय दूतावास पहुँचते पहुँचते ग्यारह बजने लगे थे. छोटे से तँग गलियारे से घुसने का रास्ता, अँदर वीसा लेने वाले विदेशियों और पासपोर्ट नये बनवाने वाले भारतीयों की भीड़, उमस भरी गर्मी में छत पर टँगा धीरे धीरे घूमता पँखा, और ऊपर दफ्तर में फाईलों के पहाड़ों के पीछे छुपे बाबू लोग, यानि अगर भारत जाने के लिए पैसे न हों और मातृभूमि की बहुत याद आ रही हो तो दूतावास में घुसते ही लगता है कि दिल्ली के किसी सरकारी दफ़्तर में ही पहुँच गये हों. पर एक महत्वपूर्ण अंतर था, प्रवासी भारतीय नागरिकता के जिम्मेदार व्यक्ति का हमसे इज्जत से बात करना और सब कुछ ठीक से समझाना. हालाँकि भीड़ बहुत थी पर इंतज़ार भी बहुत अधिक नहीं करना पड़ा सब काम पूरा करने में. काम पूरा करके सारी दोपहर और शाम र

सही या गलत

मैं लंदन में अपनी पुरानी मित्र पाम के यहाँ बैठा था और बात हो रही थी यूरोपीय जन स्वास्थ्य अभियान की एक मीटिंग के आयोजन की. बात आयी कि विषय पर विशिष्ट भाषण देने के लिए किस जानी माने व्यक्ति को बुलाया जाये. कुछ नाम लेने के बाद मैंने कहा कि सुप्रसिद्ध अमरीकी लेखक व जाने पहचाने सहयोगी को बुलाया जाये (जानबूझ कर उनका नाम यहाँ लेना ठीक नहीं समझता) तो पाम ने न कहते हुए सिर हिला दिया. क्यों, वह बहुत अच्छा बोलता है और उसके आने से हमारी सभा में लोग भी बहुत आयेंगे. "तुमने उसके पीडोफिलिया (किशोरावस्था से छोटे बच्चों के साथ यौन सम्बंध करना) की बात नहीं सुनी?" पाम ने पूछा. छीः, मुझे विश्वास नहीं हुआ कि कोई इतने अच्छे व्यक्ति के बारे में ऐसा भी सोच सकता है! सिर्फ बातें नहीं हैं, सच है, पाम ने बताया, "मैंने स्वयं उससे इस विषय में बात की है, सब सच है. वह स्वीकारता है पर वह कहता कि वह कुछ गलत नहीं कर रहा. वह किसी बच्चे से कभी जबरदस्ती नहीं करता. बच्चों में भी यौनता होती है और उन सभी बच्चों से उसे बहुत प्रेम है, कहता है." बहुत धक्का लगा यह सुन कर. अँग्रेजी में वैज्ञानिक साहित्य के सुप्र

स्ट्रिंग आप्रेशन और स्त्री भ्रूण हत्या

भारत से एक मित्र ने समाचार दिया है कि सहारा टीवी पर एक स्ट्रिंग आप्रेशन दिखाया गया है जिसमे राजस्थान, मध्य प्रदेश, गुजरात और उत्तर प्रदेश के डाक्टरों को भ्रूण की लिंग जाँच करते हुए तथा स्त्रीलिंग के भ्रूणों का गर्भपात करते हुए दिखाया गया है. करीब सौ डाक्टरों के बारे में दिखाया जा चुका है. कई जगह पर गर्भपात कानूनी सीमा के बाहर, यानि कि २० सप्ताह से बड़े भ्रूणों के गर्भपात भी किये जा रहे हैं. राजस्थान सरकार ने कुछ डाक्टरों को सस्पैंड किया है पर उनके विरुद्ध कोई कानूनी कार्यवाही नहीं प्रारम्भ की गयी है. राजस्थानी डाक्टरों के सहयोग में भारतीय मेडिकल काऊँसिल ने पत्रकार तथा टीवी चैनल के विरुद्ध बाते कहीं हैं और स्ट्रिंग आप्रेशनों पर रोक लगाने की माँग की है. मेरे मित्र का कहना है कि इन डाक्टरों को सजा देने के लिए अंतरजाल के द्वारा राजस्थान सरकार को पेटीशन भेजने के लिए सबको सहयोग देना चाहिए. संदेश पढ़ कर मन बहुत से बातें उठीं, जिनमें कुछ विरोधाभास भी है. जाने क्यों, मुझे स्ट्रिंग आप्रेशनों का सुन कर अच्छा नहीं लगता. कुछ गलत होते हुए की छुप कर तस्वीरें तथा वीडियो लेना और उसे टीवी पर दिखाना मुझे म

मेरे प्रिय कछुए

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कछुआ भी कभी किसी का प्रिय पशु हो सकता है, मुझे विश्वास नहीं होता. मेरा सबसे प्रिय पशु तो कुत्ता है. बचपन से मुझे कुत्ते ही अच्छी लगते थे. नाना के यहाँ लूसी, मौसी के यहाँ राजा, जब भी किसी कुत्ते को देखता तो मन में सोचता कि काश मेरा भी कोई कुत्ता होता! एनिड ब्लाईटन की फेमस फाईव श्रृँखला की कोई किताब पढ़ने को मिलती तो जोर्ज और उसका कुत्ता टिम्मी मेरे सबसे प्रिय पात्र थे. किताब पढ़ता तो सपने देखता कि एक दिन मेरा भी कुत्ता होगा. लेकिन माँ को कुत्ते बिल्कुल पसंद नहीं थे. "गंदा करते हैं, कौन साफ़ करेगा? नहीं, हमारे पास कुत्ते रखने की जगह नहीं", माँ कहती. कभी सोचता, अगर पास में बिल्ली हो तो कैसा रहे? घर के आसपास कभी कोई बिल्ली के बच्चे मिल जाते तो कुछ दिन तक उनके पीछे दौड़ता. पर किसी बिल्ली से दिल का तार कभी ठीक से नहीं मिल पाया. कभी किसी बिल्ली के नाखूनों की खरौंचे खा कर मन दुखी हो जाता, कभी लगता कि बिल्ली को किसी की परवाह ही नहीं होती, वह अपनी ही दुनिया में रहती है, कभी मन किया तो करीब आ गयी, कभी मन न किया तो आप की ओर देखे भी नहीं. कभी मन में सोचता कि पास में अगर बोलने वाला तोता हो तो

उपदेश देना और कर के दिखाना

मेडस्केप पर आजकल एक नई बहस शुरु हुई है मोटे डाक्टरों के बारे में. बहस का विषय है "क्या मोटे डाक्टर अपना काम करने के लिए उपयुक्त हैं?" मोटा होना स्वास्थ्य के लिए हानीकारक माना गया है क्योंकि इससे बहुत सी बीमारियों जैसे हृदय रोग, रक्तचाप का बढ़ना, डायबाटीज़, इत्यादि के होने की सम्भावना बढ़ जाती है. प्रश्न यह है कि डाक्टर का काम क्या केवल दूसरों का इलाज करना और सलाह देना है या उन्हें स्वयं प्रेरणादायद उदाहरण बन कर रहना चाहिए? अगर कोई मोटा डाक्टर किसी दूसरे व्यक्ति को सैर करने, कसरत करने, खाना कम खाने और पतला होने की सलाह दे, तो उसका असर होगा या नहीं? जब कोई बात खुद पर लागू होती है तो उसे पढ़ने की रुचि भी बढ़ जाती है. क्योंकि पिछले दस सालों में मेरा वजन भी करीब दस किलो से अधिक बढ़ा है तो इस बहस का प्रश्न पढ़ कर दिल पर तीर की तरह लगा. और तुरंत पढ़ने लगा. मेडस्केप डाक्टरों के लिए शिक्षा और नयी जानकारी पाने का वेबपृष्ठ है, जो मुफ्त है बस केवल रजिस्ट्रेशन करना पड़ता है. बहस के प्रश्न के उत्तर देने वाले दो पक्षों में बँट गये हैं. एक ओर है रोबर्ट सेंटोर जैसे लोग जो कहते है कि डाक्टर कोई फिल्म

अंतरजाल पर वीडियो

हमारी हाऊसिंग कोलोनी में कई साल से बहस चल रही है कि छत पर तश्तरी वाला एंटेना लगाया जाये या नहीं. फैसला तो यही हुआ था कि हर घर अपनी तश्तरी अलग से न लगाये क्योंकि देखने में अच्छी नहीं लगती, बल्कि छत पर एक बड़ी तश्तरी सभी घरों के लिए लगे, पर चूँकि उसकी बहस ही पिछले दो सालों से खत्म नहीं हो रही, कुछ इक्का दुक्का लोगों ने अपनी बालकनी पर छोटी तश्तरियाँ लगवा ली हैं और कहते हैं कि जब बड़ी तश्तरी लगेगी, वे अपनी छोटी तश्तरियाँ उतरवा देंगे. यहाँ केबल से टीवी चैनल दिखाने का प्रचलन नहीं है क्योंकि अधिकतर लोग केवल इतालवी भाषा बोलते हैं और घर के टेलीविज़न पर साधारण एंटेना से दस पंद्रह चैनल इतालवी में आती हैं जो अधिकतर लोगों के लिए बहुत हैं. तश्तरी का एंटेना सिर्फ वह लोग चाहते हैं जो फुटबाल के मैच देखना चाहते हैं क्योकि अच्छे वाले मैच साधारण टीवी चैनल पर नहीं प्रसारित होते, या फ़िर प्रवासी जो अन्य भाषाओं में प्रोग्राम देखना चाहते हैं. क्योंकि इटली में भारतीय बहुत कम हैं इसलिए यहाँ भारतीय चैनल देखना उतना आसान नहीं. अगर आप के पास अपनी तश्तरी वाला एंटेना है तो सोनी या ज़ी में से एक चुन कर उसके लिए डिकोडर ख

एडस के चेहरे

अमरीका में जाह्न होपकिनस में एक कोर्स करने गया था, सन 1989 में. वह पहला मौका था कि एडस के रोगियों को करीब से देखने का मौका मिला था. तब तक पश्चिमी संसार में एडस के बारे में बहुत शोर हो रहा था. तब इस रोग का संक्रमण अधिकतर समलैंगिक यौन सम्बंधों के साथ जुड़ा था. उस समय यह तो समझता था कि समलैंगिक सम्बंध क्या होते हैं पर "समलैंगिक सभ्यता" क्या होती है यह पहली बार करीब से देखने का मौका मिला. कोर्स के दौरान कुछ समलैंगिक युगलों से मिल कर बात करने का मौका मिला जिनमें से एक को एडस का रोग था. इन मुलाकातों ने मन में बने समलैंगिक रिश्तों के बारे में बैठे विश्वासों को हिला दिया था. सोचता था कि समलैंगिक सम्बंध रखने वाले युवक किसी के साथ प्रेम नहीं, बल्कि जितने अधिक शारीरिक सम्बंध हो सकते हैं सिर्फ वही खोजते हैं. उस समय इस रोग के फ़ैलने के बारे में जानकारी बहुत अधिक नहीं थी, और बाहर से छुपाने की कोशिश करने के बावजूद, मन में किसी रोगी के करीब जाने या छूने में बहुत डर लगता था. रोगियों के प्रति कैसे अमानवीय व्यवहार हो रहे हैं, इसकी बात उठती तो मन में अपने डर के प्रति क्षोभ उठता पर फ़िर भी डर पर प

हिंदी फिल्मों में मानसिक रोग (2)

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अब बात करें 15 पार्क एवेन्यू की. "15 पार्क एवेन्यू" देखने की बहुत दिनों से इच्छा थी. अपर्णा सेन ने "परोमा" और "36 चौरँगी लेन" जैसी फ़िल्में बनायी हैं इसलिए उनकी फिल्मों से भावपूर्ण कथानक और सुरुचि की आशा स्वस्त ही बन जाती है. फ़िर अगर फ़िल्म में वहीदा रहमान, शबाना आज़मी, कोंकणा सेन शर्मा, शेफाली शाह, सोमित्र चैटर्जी, ध्रृतिमान चैटर्जी, राहुल बोस जैसे सुप्रसिद्ध अभिनेता हों तो न भूल पाने वाली फ़िल्म देखने की आशा और भी बढ़ जाती है. पर जब आशाएँ इतनी ऊँचीं उठी हों तो उनका पूरा होना भी उतना ही कठिन हो जाता है, और शायद इसीलिए फिल्म देख कर अच्छा तो लगा पर यह नहीं लगा कि "वाह क्या बढ़िया फिल्म थी". कथा साराँशः 15 पार्क एवेन्यू कहानी है श्रीमति गुप्ता (वहीदा रहमान) की और उनकी दो बेटियों, अँजली (शबाना आज़मी) और मिताली यानि मिट्ठू (कोंकणा सेन) की. मिट्ठू मानसिक रोगी हैं, उन्हें स्कित्जोफ्रेनिया है और वह अपनी कल्पना के घर को खोजना चाहती हैं जो 15 पार्क एवेन्यू पर है जहाँ उनके अनुसार उनके पति और बच्चे उनकी राह देख रहे हैं. अँजली तलाकशुदा हैं और विश्वविद्यालय म

हिंदी फिल्मों में मानसिक रोग (1)

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कुछ दिन पहले अपर्णा सेन द्वारा निर्देशित फिल्म "१५ पार्क एवेन्यू" देखी, जिसका विषय है स्कित्जोफ्रेनिया, वह मानसिक रोग जिसमे रोगी सच और कल्पना का अंतर खो बैठता है. फिल्म देख कर हिंदी फिल्मों में मानसिक रोग के विषय को किन विभिन्न तरीकों से लिया गया है इसके बारे में सोच रहा था. बढ़ते शहरीकरण, टूटते संयक्त परिवार, काम में तरक्की पाने और पैसे कमाने की होड़, इन सब बदलावों से जीवन स्तर अच्छे हुए हैं पर साथ ही साथ अकेलापन, उदासी और तनाव जैसे मानसिक रोग बहुत तेज़ी से बढ़े हैं. मानसिक रोगों को दो श्रेणियों में बाँटा जा सकता है. पहली श्रेणी में वह मानसिक रोग आते हैं जैसे गहरी उदासी, जिसमें व्यक्ति यथार्थ और कल्पना का अंतर समझता है. दूसरी श्रेणी में आते हैं स्कित्जोफ्रेनिया जैसे रोग, जिसमें व्यक्ति यथार्थ के जीवन और कल्पना के जीवन की सीमारेखा नहीं पहचान पाता. विश्व स्वास्थ्य संसथान का कहना है कि अगले दशकों में मानसिक रोग बहुत तेज़ी से बढ़ेंगे. मानसिक रोग फ़िल्म को नाटकीय तनाव देने का काम अच्छा कर सकते हैं हालाँकि मानसिक रोग का प्रतिदिन का यथार्थ इतना निराशात्मक और बोझिल हो सकता है जिससे फिल्

सँकरा नर दिमाग

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आज बात का विषय नर के सँकरे दिमाग का है. बात मानव जाति के पुरुष पर उतनी लागू नहीं होती, बल्कि अधिकतर यह बात कुत्ता जाति के नरों की है. मेरे बहुत से उच्च विचारों की तरह, यह उच्च विचार भी उस समय मन में आया जब अपने कुत्ते, श्री ब्राँदो को ले कर कल शाम को बाग में सैर को निकला. अगर आप ने कभी नर कुत्ते को करीब से कुछ समय के लिए जाना पहचाना हो तो आप जानते ही होंगे कि सैर को बाहर निकलते समय, आप को अन्य नर कुत्तों से बच कर चलना पड़ता है. पिल्ले, बहुत बूढ़े कुत्ते और वह कुत्ते जिनका आपरेश्न से गोली हरण हो चका हो, उनको छोड़ कर बाकि के सभी नर कुत्ते हमारे ब्राँदो जी के जानी दुश्मन हैं. उन्हें यह दूर से ही पहचान लेता है, शायद उनकी नर सूँघ से, और देखते ही उनकी तरफ़ ऐसे झपटता है कह रहा हो, "छोड़ो मुझे, रोको मत, इसका खून पी जाऊँगा." और दोनो जोर शोर से एक दूसरे की ओर भौंकते हैं. फ़िर जैसे ही हो सके उसे वहीं मूतना होता है जहाँ दूसरे कुत्ते ने मूता हो. यह उनके "क्षेत्र" पर झँडे गाड़ने वाली बात है. वह बात और है कि कई क्षत्रों पर इतनी तरह के झँडे गड़े होते हैं कि स्वयं वे खुद भी नहीं पहचान सकत

भारतीय पत्रकारिता समाज

कल शाम को जनसत्ता के सम्पादक श्री ओम थानवी का नया आलेख " अपने पराए " पढ़ा तो बहुत देर तक मन क्षुब्ध रहा. आलेख का प्रारम्भ में है इफ्तिखार गीलानी की नई पुस्तक के लोकार्पण के अवसर पर, गीलानी जी के जेल में डाले जाने और उस स्थिति में भारतीय पत्रकारिता के आचरण के बारे में थानवी जी के विचार. इफ्तिख़ार बड़े अफ़सोस भरे स्वर में कहते हैं कि जेल में उन्होंने जो अत्याचार झेला, वह "मीडिया ट्रायल" का नतीजा था. "पत्रकार के शब्द लोग इतना भरोसा करते हैं, इसका अहसास मुझे पहले न था. और न इसका कि हम अपने फर्ज को कितने हलके ढंग से लेते हैं. आलेख के अंतिम भाग में थानवी जी ने भारतीय पत्रकारिता समाज के बढ़ते बेहाल की चर्चा की है. कुछ अखबारों का सारा सम्पादकीय विवेक तो जैसे इस फिक्र में सिमट कर रह गया है कि दुनिया के किस कोने में शराब की कैसी महक पाई जाती है या किस सात तारा होटल का खानसामा झींगामछली किस हुनर से पकाता है... अँग्रेजी मानसिकता में, साहित्य हो चाहे पत्रकारिता, हिंदी वालों को किस तिरस्कार से देखा जाता है, हम सब जानते हैं.... शायद आप कहेंगे कि इसमें नया क्या है? विश्वीकरण के स