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पँखहीन मानव

हिंदी की मासिक पत्रिका हँस में पंकज बिष्ट की नयी लम्बी कहानी "पँखोंवाली नाव" पढ़ी, जो तीन भागों में प्रकाशित हुई है. कहानी का मु्ख्य पात्र है अनुपम, एक समलैंगिक युवक. हिंदी कथानकों में इस तरह के हाशिये से बाहर रहने वाले जीवनों के बारे में बहुत कम लिखा जाता है. हिंदी लेखन आम तौर से यौन सम्बंधों के बारे में भी कम बात करता है. अग्रेजी साहित्य में यौन सम्बंधों के बारे में जिस तरह से स्पष्ट रुप से बात हो सकती है, हिंदी में उस तरह की बात लिखना अश्लीलता या फ़िर भौंडापन माने जाते हैं. इस तरह की सोच, यौन सम्बंध और यौन आचरण, जो जीवन अनुभव का अभिन्न अंग हैं, गम्भीर हिंदी लेखन में अनछुए से रह जाते हैं. यौन सम्बंधों और आचरण के बारे में लिखा कुछ मिल भी जाये, इस तरह की बात को समलैंगिकता के संदर्भ में सोचा भी नहीं जा सकता. पंकज जी अपनी इस कहानी से दोनों लक्ष्मण रेखाओं को पार करने की कोशिश करते हैं और मेरे विचार में यह सराहनीय बात है. दलित जीवनों के बारे में लिखने का हक किसे है, इस बहस में एक तरफ से कहा जाता है कि दलित स्वयं ही अपने जीवन के बारे में लिख सकते हैं क्योंकि उनका लेखन अपने जीवन के

भारतीय मित्र

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प्रियंकर ने बताया था कि उनके एक पुलिसवाले मित्र यहाँ इटली में एक कोर्स के सिलसिले में आ रहे हैं. नाम है महेन्द्र कुमार पूनिया और आईपीएस अफसर होने के साथ साथ कवि भी हैं. तो कुछ अजीब सा लगा. पहले कभी पुलिस में काम करने वाले किसी को नहीं जानने का मौका मिला था. बचपन का एक साथी इन्जीनियर की पढ़ाई के बाद वायु सेना में भरती हुआ था तो मुझे लगा था कि वह बदल गया हो और जब छुट्टियों में घर आता तो उससे बहुत बहस होती. मुझे लगता कि उसे अपने से भिन्न बात सुनने की आदत ही न हो, बस "यस सर, यस सर" की आदत हो. शायद उस याद का प्रभाव था कि पुलिसवाला शब्द को सुन कर कविता का विचार तो बिल्कुल नहीं आता मन में. कल संदेश भेजा महेंन्द्र ने कि उनका गुट रोम से वापस विचेंजा जाते हुए हमारे शहर बोलोनिया में यहाँ के स्थानीय पुलिस की मेस में खाना के लिए कुछ देर रुकेगा और यह मिलने का अच्छा मौका होगा. तो कल रात को बेटे को कहा कि वह मेरे साथ चले क्योंकि रात को वैसे ही गाड़ी चलाना मुझे अच्छा नहीं लगता और दूसरा यह कि, वह पुलिस मेस हमारे घर से बिल्कुल दूसरे कोने में है और उस इलाके की मुझे बिल्कुल जानकारी नहीं. महेंद्र स

लागा फेफड़ों मे दाग बचायें कैसे

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आज के जीवन में प्रदूषण का कितना असर है इसे बड़े शहरों मे रहने वाले अच्छी तरह जानते हैं. घर से बाहर निकलो बस इसी से सब कपड़े मैले हो जाते हैं. बीस साल पहले जब दिल्ली में काम करता था तो लगता था कि प्रदूषण की वजह से साँस की तकलीफ़ वाले लोगों की सँख्या बढ़ती जा रही थी. जब दीवाली आती तो सभी दमे के मरीज कोशिश में लग जाते कि इस बार बढ़ते प्रदूषण की मार से कैसे बचा जाये. लोग घर के दरवाजों को गीले कपड़ों से बंद कर के बाहर की हवा को भीतर आने से रोकते, किसी के पास साधन होते तो वह दीवाली के दिनों में दिल्ली से बाहर चला जाता. दिल्ली छोड़ने के बाद जब भी वापस भारत जाता तो लगता कि दिल्ली का प्रदूषण बढ़ता ही जा रहा है. केवल पिछले कुछ सालों से जब से सभी टैक्सी, बसों और आटो को जीपीएल का उपयोग करने को बाध्य किया गया तो प्रदूषण कुछ कम हुआ लगता है पर कारों की और अन्य वाहनों की सँख्या बढ़ती जाती है तो प्रदूषण को तो बढ़ना ही है. दो दिन पहले यहाँ बोलोनिया में भारत के आन्ध्र प्रदेश के गुँटूर शहर से मेयर श्री कन्ना नागाराजू आये. गुँटूर तथा बोलोनिया के बीच प्रदूषण कम करने का एक प्रजोक्ट चल रहा है, उसी सिलसिले में नागाराजू

अंगों की फसल की कटाई

एक मित्र ने जब डाफोह यानि डाक्टर अगेंस्ट फोर्सड हारवेस्टिंग ( Doctors Against Forced Harvesting ) के बारे में बताया तो मुझे विश्वास ही नहीं हुआ. जिस हारवेस्टिंग यानि फसल कटाई की बात वे कर रहे हैं वे मानव अंगो की है. इस एसोसियेशन में काम करने वाले वे डाक्टर हैं जो कहते हैं कि वे पैसे कमाने के लिए लोगों के अंग जबरदस्ती निकाले जाने के विरुद्ध हैं. उनका कहना है कि चीन में यह हो रहा है कि जेल में बंद कैदी या अस्पताल में दाखिल गरीब लोगों के जबरदस्ती गुर्दे या अन्य भाग निकाल कर जरुरतमंद मरीजों को ट्राँसप्लाँट के लिए बेचे जाते हैं. कोई कोई डाक्टर जो शायद मानसिक रुप से बीमार हो, पैसा कमाने के लिए इस तरह का काम कर सकता हो पर यह बात इतनी अधिक फैली हो यह मुझे विश्वास नहीं होता. मुझे लगता है कि आजकल चीन के विरुद्ध वैसे ही बहुत प्रचार हो रहा है, उस देश की तरक्की से सारे विकसित जगत में डर सा फैल गया है और कुछ भी बात हो चीन के विरुद्ध ही बोला जाता है चाहे वह प्रदूषित रंग से बने खिलौने हों या अफ्रीका में बने चीने कारखाने. तो क्या डाफोह का यह कहना भी विकसित देशों में बसे चीन के विरुद्ध पूर्वाग्रहों का च

भारतीय ईसाईयों में जाति भेद

इतालवी केथोलिक पत्रिका पोपोली के अक्टूबर अंक में फादर प्रकाश लुईस का लेख है जिसमें भारत में ईसाई धर्म कें जाति भेद की समस्या को उठाया गया है. मेरा मानना है कि जाति भेद भारत की सबसे मूलभूत समस्याओं में से है और यह स्वीकार करना कि हमारे समाज में इंसानों से अमानवीय जाति भेद होता है इस सदियों पुराने शोषण से लड़ने का पहला कदम है. इस दृष्टि से मुझे फा. लुईस का लेख महत्वपूर्ण लगा. प्रस्तुत हैं उनके इस लेख के कुछ अंश, जिनका इतालवी से हिंदी में अनुवाद मेरा हैः भारत के 24 मिलियन यानि 2 करोड़ 40 लाख इसाईयों मे से करीब 70 प्रतिशत लोग दलित मूल के हैं. चूँकि सब सोचते हें कि सभी ईसाई समान होते हैं, धार्मिक संस्थाएँ, सरकार और समाज इस दलित ईसाईयों के साथ होने वाले भेदभाव को नहीं पहचानता. इस वजह से इस बात की गम्भीरता को ठीक से नहीं समझा जाता और भारत के बाहर इस बात की जानकारी नहीं है....सरकारी नीतियों से हिंदू, सिख तथा बुद्ध मूल के दलितों को मिलने वाले संरक्षण ईसाई दलित लोगों को नहीं मिलते. बाकी के दलित सोचते हैं कि ईसाई बनने वाले लोग दलित नहीं होते. कानून के लिए ईसाई होना और साथ ही दलित होना संभव नहीं है

पड़ोसी देशों पर भारत का धार्मिक प्रभाव

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आज के चीन में धर्म से जुड़ा कुछ भी आसानी से नहीं दिखता. हालाँकि लोगों ने कहा कि अगर किसी मंदिर में जाईये तो वहाँ बहुत लोग मिलेंगे और लोगों के मन में बहुत धार्मिक्ता है पर दक्षिण चीन के गाँवों में घूमते हुए मुझे इस धार्मिक्ता के बाह्य चिन्ह कुछ नहीं दिखे. 1960 में हुई माओ द्वारा की हुई साँस्कृतिक क्राँती (cultural revolution) के दौरान अधिकतर बुद्ध मंदिरों को तोड़ दिया गया था और वहाँ रहने वाले बुद्ध भिक्षुकों जेल में डाल दिया गया या कुछ कहते हैं, मार दिया गया. फ़िर पिछले बीस सालों में जो विकास हुआ तो कुछ मंदिर भी दोबारा बस गये. दक्षिण चीन के गावों में घूमते समय बहुत सी कहानियाँ सुनने को मिलीं कि उस क्राँती के समय में कहाँ पर क्या हुआ था, कैसे मंदिर तोड़े गये गये, कैसे कुछ मूर्तियाँ छुपा दी गयीं थीं और उन्हे तोड़ने से बचाया गया था. पर विकास के बाद नये बने समृद्ध गावों में कोई नया मंदिर नहीं बना दिखता. पचासों गाँव घूमने के बाद भी मैं एक भी मंदिर नहीं देख पाया. फ़िर लूफेंग नाम के छोटे से शहर के सँग्रहालय में एक मूर्ती देखी जो दुर्गा से बहुत मिलती थी. पूछा तो बोले कि यह ताओ (Tao) धर्म की एक देवी

ज्योति उत्सव

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जब भी कोई त्योहार आता है तो घर से दूर विदेश में होना बहुत अखरता है. बाज़ारों का शोर और धक्का मुक्की, मिठाई के डिब्बे, पड़ोसियों, दोस्तों और रिश्तेदारों से बधाई, अँधेरी रात में टिमटिमाते दिये और मोमबत्तियाँ, आज दीवाली है तो उस सब की याद आना स्वाभाविक ही है. यहाँ तो आज एक आम दिन है, अन्य दिनों जैसा, हालाँकि हमने शाम को बाहर खाना खाने जाने का प्रोग्राम बनाया है जहाँ भरतनाट्यम नृत्य भी होगा. कल यहाँ राजस्थान के लोकनर्तकों का कार्यक्रम भी है. फ़िर हम दिल को समझाते हैं कि चलो दूरी ही अच्छी है कम से कम पटाखों के शोर और प्रदूषण से तो बचेंगे! आज दीपावली के शुभ अवसर पर मुझे बुद्ध प्रार्थना याद आती है, तमसो मा ज्योतिर्गमय. और यही शुभकामना है मेरी कि आप के परिवार में, घर में और दिलों में ज्योति का वास हो. नीचे वाली तस्वीरें अभी हाल में चीन यात्रा में ली ज्यांग नाम के शहर में खींचीं थीं.