आयुर्वेद में सदियों के अनुभवों से निर्मित भारतीय मानव-चिकित्सा का ज्ञान और समझ संचित है। इस ज्ञान में एक ओर से जड़ी-बूटियों से ले कर हर तरह के प्राकृतिक पदार्थों से जुड़ी जानकारी है। आयुर्वेद में मानव शरीर कैसे बना है, उसके अंगों, क्रियाओं और रोगोत्पत्ति व रोग-उपचार की प्राचीन सोच-समझ भी है। कुछ बातों में आयुर्वेद के विचार आज के वैज्ञानिक विचारों से भिन्न है, इसलिए आधुनिक अनुसंधानों से इस समझ के प्रमाण खोजने की आवश्यकता है।
अगर वैज्ञानिक अनुसंधान के बाद आयुर्वेद की कुछ बातों के स्पष्ट प्रमाण नहीं मिलते तो उन्हें बदलना चाहिये या नहीं, और कैसे बदलना चाहिए, यह बहस व निर्णय आयुर्वेद के विशेषज्ञ ही ले सकते हैं।
पिछली कुछ सदियों में आधुनिक वैज्ञानिक अनुसंधान की सोच तथा पद्धति विकसित हुई है जिसमें चिकित्सा के विषय पर वैज्ञानिक शोध व अनुसंधान कैसे किया जाना चाहिए की बात भी है। आज दुनिया में कोई भी चिकित्सा परम्परा हो, उसे इसी वैज्ञानिक शोध की कसौटी पर जाँचा जाता है।
यह आलेख आयुर्वेद और वैज्ञानिक अनुसंधान के विषय पर है।
मैं, आयुर्वेद और शोध
मैं एलोपैथी का डॉक्टर हूँ और मुझे वैज्ञानिक शोध के क्षेत्र में अनुभव है। करीब बीस साल पहले, मैंने "एशिया की पाराम्परिक चिकित्सा पद्धितियों" के विषय पर बंगलौर में आयोजित एक अंतर्राष्ट्रीय सभा में हिस्सा लिया था, जिसमें मेरा आयुर्वेद से परिचय हुआ। उस समय मुझे बंगलौर में एक आयुर्वेदिक मेडिकल कॉलेज जाने का मौका भी मिला था। इस आलेख की सभी तस्वीरें २००६ की उसी सभा तथा वहाँ के आयुर्वेदिक मेडिकल कॉलेज से हैं।
पिछले कुछ वर्षों में मुझे केरल में आयुर्वेदिक चिकित्सा करवाने का
सकारात्मक अनुभव हुए थे। इसके साथ मुझे कुछ अन्य आयुर्वेदिक मेडिकल कॉलेजों में जाने और वहाँ के शिक्षकों से बातचीत का मौका भी मिला। उससे मुझे लगा कि बहुत से आयुर्वेदिक चिकित्सकों तथा प्रोफैसरों में चिकित्सा से जुड़े वैज्ञानिक शोध-पद्धितियों की समझ कुछ सीमित है। मेरे विचार में वैज्ञानिक शोध एक महत्वपूर्ण विषय है और आयुर्वेद के मेडिकल कॉलिजों को इस विषय में पढ़ने व सीखने की बहुत आवश्यकता है।
जब हमें किसी उपचार से अच्छा अनुभव है, तो वैज्ञानिक शोध क्यों?
मेरे विचार में आयुर्वेदिक उपचारों पर वैज्ञानिक शोध करने के तीन प्रमुख कारण हैं -
(१) जब कोई दवा या उपचार रोगियों को राहत देते हैं, तब शोध से हमें यह समझने में मदद मिलती है कि वे उपचार कितने प्रतिशत मरीजों को राहत देते हैं? वह राहत कितने समय तक रहती है? वे उपचार किस तरह से या क्यों सफल होते हैं? क्या उस उपचार के रोगियों पर कुछ अवांछनीय या नकारात्मक प्रभाव भी हैं? इस तरह के प्रश्नों के उत्तर खोजने से उन उपचारों को बेहतर किया जा सकता है।
(२) चिकित्सा-शोध ने दिखाया है कि जब रोगियों को डॉक्टर पर और उसके इलाज पर भरोसा होता है तो केवल यह विश्वास ही कुछ प्रतिशत मरीज़ों को ठीक कर देता है, इसे प्लेसेबो प्रभाव (placebo) कहते हैं। प्लेसबो प्रभाव को दवा या उपचार के प्रभाव से अलग समझना आवश्यक है। वैज्ञानिक शोध से हम यह समझ सकते हैं कि कितने लोग आयुर्वेद उपचार से इस तरह के विश्वास-प्रभाव की वजह से ठीक होते हैं, और कितने लोग सचमुच आयुर्वेद की दवाओं या उपचार से।
(३) एलोपैथी वाले कुछ चिकित्सक सोचते हैं कि आयुर्वेद सचमुच का ज्ञान नहीं है, यह जादू-टोना या अंधविश्वास है। आयुर्वेद पर वैज्ञानिक शोध से इस तरह के आरोपों से लड़ा जा सकता है।
आयुर्वेद चिकित्सा का विकास कई सौ या हजारों वर्षों के अनुभव का नतीजा है, लेकिन विज्ञान कभी रुकता नहीं है, आगे बढ़ता रहता है, इसलिए आयुर्वेद को भविष्य में किस ओर जाना चाहिये, इसे समझने के लिए शोधकार्य चलता रहना चाहिये। आयुर्वेद में प्राचीन ज्ञान को बहुत महत्व दिया जाता है, लेकिन मेरे विचार में प्राचीन ज्ञान के साथ नया ज्ञान जोड़ना भी महत्वपूर्ण है।
पश्चिमी वैज्ञानिक, चिकित्सक एवं शोधकर्ता स्वीकारते हैं कि आयुर्वेद जैसी प्राचीन परम्पराओं में वनस्पति जगत से जुड़ा गहरा ज्ञान है। जैसे कि किस पत्ते या जड़ आदि से किस रोग का उपचार हो सकता है। इसलिए वे लोग अक्सर इस जानकारी से उन पौधों से दवा खोजने और उसके रसायन पदार्थों को अलग करने के शोध करते हैं, लेकिन इन्हें आयुर्वेद-शोध नहीं कह सकते, क्योंकि वह लोग आयुर्वेद की सोच के अनुसार कुछ नहीं करना चाहते, बल्कि वह केवल अपनी पश्चिमी वैज्ञानिक सोच से नई दवाओं की खोज में लगे हैं।
वैज्ञानिक शोध कैसे करते हैं?
अनुसंधान करने का अर्थ है वैज्ञानिक मापदंडों के साथ निष्पक्ष प्रयोग या परीक्षण करना। इसे वैज्ञानिक शोध तभी माना जा सकता है अगर निम्नलिखित तीनों बातों को पूरा किया जाये -
(१) शोध-प्रयोगों का लिखित प्रोटोकॉल होना चाहिए, जिसे अनुसंधान से पहले तैयार किया जाना चाहिए, और इसे एक वैज्ञानिक शोध कमेटी से मंजूरी मिलनी चाहिए। वैज्ञानिक शोध कमेटी के सदस्यों तथा शोध करने वाले के बीच में कोई व्यक्तिगत सम्बंध नहीं होना चाहिए, ताकि वह निष्पक्ष निर्णय लें। प्रोटोकॉल की मंजूरी के बाद, पूरे अनुसंधान को उस प्रोटोकॉल के अनुसार किया जाना चाहिए जिसमें उसके हर कदम को निष्पक्ष तरीके से देख कर जाँचा और मापा जाना चाहिये, और इसकी लिखित रिपोर्ट तैयार की जानी चाहिए।
(२) उस अनुसंधान के सभी सकारात्मक व नकारात्मक नतीजों को सांख्यकी (statistics) के मानदंडों से परखना चाहिए।
(३) उस अनुसंधान के हर चरण के प्रमाणों को सही तरीके से संजो कर रखना चाहिए, ताकि कोई भी वैज्ञानिक उस सारी प्रक्रिया और उसके हर कदम की स्वतंत्र जाँच कर सके।
इन तीनों बातों में से एक भी बात अधूरी हो, तो उस वैज्ञानिक शोध को विश्वास्नीय नहीं माना जा सकता। वैज्ञानिक शोधों की रिपोर्टों को ऐसी पत्रिकाओं में छापते हैं जिनमें छापने से पहले अन्य वैज्ञानिक आप के शोध को जाँच-परख सकते हैं। इन्हें पियर रिव्यू (Peer reviewed) यानि अन्य वैज्ञानिकों द्वारा जाँचे आलेखों की पत्रिकाएँ कहते हैं।
आयुर्वेद की वैज्ञानिक पत्रिकाएँ
अगर हम आयुर्वेद से जुड़े विषयों पर शोध करना चाहते हैं तो सबसे पहला प्रश्न है कि क्या भारत में ऐसी पियर-रिव्यू वाली आयुर्वेद चिकित्सा की पत्रिकाएँ हैं और अगर हैं तो किस तरह की वैज्ञानिक क्षमता वाले लोग उसके साथ जुड़े हैं जो उसमें छपने वाले आलेखों की जाँच करते हैं?
इस विषय पर इंटरनेट पर खोज करने से मुझे निम्नलिखित आयुर्वेद की वैज्ञानिक पत्रिकाएँ मिलीं:
- जरनल आफ आयुर्वेदा एण्ड इन्टीग्रेटिव मेडिसन (Journal of Ayurveda & Integrative Medicine): यह निशुल्क वैज्ञानिक पत्रिका है जिसे कोई भी इंटरनेट पर पढ़ सकता है। इसके सम्पादक पुणे विश्वविद्यालय के प्रो. भूषण पटवर्धन हैं।
- आयुर्वेदा एन्ड इन्टिग्रेटिड मेडिकल साईन्सिज़ (Ayurveda and Integrated Medical Sciences): यह भी निशुल्क वैज्ञानिक पत्रिका है जिसे कोई भी इंटरनेट पर पढ़ सकता है। इसके सम्पादक देहरादून के उत्तराखंड आयुर्वेद विश्वविद्यालय के डॉ. उमापति बरगी हैं।
- एन्नल्लस आफ आयुर्वेदिक मेडिसन (Annals of Ayurvedic Medicine): यह लखनऊ से निकलता है, इसके सम्पादक प्रो. संजीव रस्तोगी हैं और यह भारतीय आयुर्वेदिक चिकित्सकों की एसोसिएशन की पत्रिका है। यह निशुल्क वैज्ञानिक पत्रिका है जिसे आप इंटरनेट पर पढ़ सकते हैं।
- जर्नल आफ रिसर्च एंड एजुकेशन इन इंडियन मेडिसिन (Journal of Research and Education in Indian Medicine): बनारस विश्वविद्यालय की यह वैज्ञानिक पत्रिका १९८२ में प्रो. के. एन. उड़ूपा द्वारा शुरु की गई थी। इसे इंटरनेट पर निशुल्क पढ़ा जा सकता है।
- जर्नल आफ ड्रग रिसर्च इन आयुर्वेदिक साईन्सिज (Journal of Drug Research in Ayurvedic Sciences): इसके सम्पादक प्रो. रबिनारायण आचर्य हैं और यह भारत सरकार के आयुष मंत्रालय की पत्रिका है। इसे इंटरनेट पर निशुल्क पढ़ा जा सकता है।
- जर्नल आफ आयुर्वेद (Journal of Ayurveda): यह जयपुर से छपता है और इसके सम्पादक प्रो. भारती कुमारमंगलम हैं। इसे इंटरनेट पर निशुल्क पढ़ा जा सकता है।
हिंदी में आयुर्वेदीक-अनुसंधान की भी शायद कुछ पत्रिकाएँ छपती हैं, लेकिन इनके पीडीएफ अंक इंटरनेट पर कठिनाई से मिलते हैं और इनके बारे में जानकारी सुलभ नहीं है। जैसे कि "आयुर्वेद एवं सिद्ध अनुसंधान पत्रिका", जिसकी वेबसाईट पुरानी शैली की है और जिसके कुछ आलेख मुझे अंग्रेजी में दिखे।
आयुर्वेद-अनुसंधान के विषय पर कुछ कार्यशाला आयोजित करने की भी छिटपुट खबरें मिलती हैं लेकिन जिस स्तर पर यह काम होना चाहिये, उससे मुझे यह बहुत कम लगता है।
अगर उपरोक्त जानकारी के अतिरिक्त अगर आयुर्वेद-शोध-अनुसंधान के विषय पर अन्य वैज्ञानिक पत्रिकाएँ छपती हैं हैं तो कृपया नीचे टिप्पणी करके उनकी सूचना दीजिये। इन विषयों पर अगर भारतीय भाषाओं में छपने वाली अन्य पत्रिकाएँ हैं तो उनकी जानकारी भी नीचे टिप्पणियों में दीजिये।
आयुर्वेदिक-शोधों में कमियाँ
मैंने उपरोक्त पत्रिकाओं में छपने वाले शोधों के कुछ आलेख पढ़े। मुझे उनमें कुछ कमियाँ दिखीं, जैसे कि:
- अक्सर लेखक ऐसे शब्द या परिभाषाएँ उपयोग में लाते हैं जिनके अर्थ स्पष्ट नहीं
हैं। जैसे कि एक आलेख में आयुर्वेद के मूलभूत मूल्यों की बात थी लेकिन यह स्पष्ट
नहीं किया गया था कि वह मूलभूत मूल्य कौन से थे और कैसे निर्धारित किये गये थे? आयुर्वेद में वात, कफ, पित्त आदि शब्दों का भी प्रयोग होता है लेकिन उनके अर्थ भी मुझे स्पष्ट नहीं लगे। जब इस तरह के शब्द या परिभाषाएँ उपयोग करते हैं तो यह समझना आवश्यक है कि आयुर्वेद से जुड़े कितने प्रतिशत लोग उन मूल्यों या अर्थों से सहमत हैं? मुझे यह कमी आयुर्वेद से सम्बंधित बहुत से विचारों, शब्दों, अर्थों और मूल्यों के बारे में महसूस होती है। जब तक हर एक शब्द या विचार की सर्वसम्मत या बहुमत-स्वीकृत स्पष्ट परिभाषा नहीं होगी, तब तक उन पर वैज्ञानिक शोध करना कठिन ही नहीं, असम्भव होगा। आयुर्वेद-विशेषज्ञों को इस दिशा में सबसे पहले निर्णय लेने चाहिए और आवश्यकता पड़ने पर विशेषज्ञों का डेल्फी सर्वे करके परिभाषाओं को स्पष्ट करना चाहिये।
- आयुर्वेद की नींव संस्कृत के ग्रंथों पर टिकी है, अक्सर भाषा बदलने से अंग्रेज़ी में उन संस्कृत शब्दों के सही अर्थ खोजना कठिन काम हो जाता है, इसलिए आयुर्वेद की संस्कृत या भारतीय भाषाओं में वैज्ञानिक पत्रिकाएँ उपलब्ध होना बहुत महत्वपूर्ण और आवश्यक है। बहुत खोजने पर इंटरनेट पर संस्कृत, हिंदी या अन्य भारतीय भाषाओं में आयुर्वेदी-शोध की वैज्ञानिक पत्रिका नहीं मिली, यह मुझे बहुत गम्भीर कमी लगती है। मेरे विचार में असली शोध भारतीय भाषाओं में होना चाहिये, उसके बाद उनका अंग्रेज़ी में अनुवाद करना चाहिये ताकि शोध से जुड़े शब्दों को उनकी सही परिभाषा में समझा जा सके।
- मैंने ऊपर दी गई पत्रिकाओं में छपे कुछ आलेख देखे, जिन्हें पूर्ण रुप से वैज्ञानिक शोध नहीं कह सकते। जैसा मैंने ऊपर लिखा, चिकित्सा सम्बंधी शोध-प्रोटोकॉल कैसे तैयार किये जाते हैं, लगता है कि इसकी जानकारी कम है और अधिक लोगों तक पहुँचनी चाहिये। इस विषय पर आयुर्वेदिक मेडिकल कॉलिजों द्वारा प्रोफैसरों, स्नातकों तथा विद्यार्थियों के लिए कार्यशालाओं का आयोजन होना चाहिये।
चीन में उनकी परम्परागत चिकित्सा (एकपंक्चर, आदि) पर बहुत शोध हुआ है। यह सब शोध और वैज्ञानिक शोध वे लोग चीनी भाषा में करते हैं और चीनी भाषा में वैज्ञानिक शोध की बहुत सी पत्रिकाएँ हैं। लेकिन यह बात नहीं है कि वह बाकी दुनिया में होने वाले शोधों से अनभिज्ञय हैं। वहाँ पर अंग्रेजी, फ्राँसिसी, स्पेनी आदि भाषाओ में छपने वाले महत्वपूर्ण शोधों के चीनी अनुवाद किये हुए सार या पूरे आलेख छापने वाली चीनी पत्रिकाएँ भी हैं, ताकि स्थानीय शोधकर्ताओं को खबर रहे कि दुनिया में क्या हो रहा है। आयुर्वेद से जुड़े शोध के लिए भारतीय भाषाओ में ऐसी पत्रिकाओं की आवश्यकता है क्योंकि इस चिकित्सा पद्धिति के मूल विचार संस्कृत में हैं और उन्हें अंग्रेजी में अनुवाद करने से उनकी सही परिभाषाएँ निश्चित करना कठिन हो जाता है।
नये कदम
भारत सरकार ने आयुर्वेदिक विज्ञान-शोध की राष्ट्रीय परिषद (Central Council for Research in Ayurvedic Sciences, CCRAS) स्थापित की है। इनकी सन २००० की अनुसंधान पोलिसी भी है। इनकी सूची भी है कि किस राज्य में कौन से शोध किये जा रहे हैं (लेकिन इसमें यह नहीं लिखा कि यह सूची किस साल की है)। इनका एक अंग्रेजी में शोध-पोर्टल है जिसे बहुत जटिल बनाया गया है और जिसमें कोई आलेख खोजना मुझे आसान नहीं लगा, शायद यह शोध विशेषज्ञों के लिए बना है।
विश्व स्वास्थ्य संस्थान ने भी, भारत सरकार के सहयोग से एक अंतर्राष्ट्रीय पारम्परिक चिकित्सा केन्द्र (Global Traditional Medicine Centre - GTMC) की जामनगर-गुजरात (भारत) में स्थापना की है।
आशा करता हूँ कि इन नये संस्थाओं से आने वाले समय में आयुर्वेद से जुड़े शोध करना पहले से अधिक आसान होगा।