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मार्च, 2006 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

विधवा जीवन का "जल"

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4 या 5 साल पहले जब केनेडा में रहने वाली भारतीय फिल्म निर्देशक दीपा मेहता, पृथ्वी तत्वों पर बनायी फिल्म श्रृखँला की तीसरी फिल्म "जल" की शूटिंग करने वाराणसी पहुँची थीं तो कुछ लोगों ने बहुत हल्ला किया, कहा कि वह भारतीय संस्कृति और हिंदु धर्म का मज़ाक उड़ाना चाहती हैं, विदेशियों के सामने उनकी आलोचना करना चाहती हैं. वाराणसी के कई जाने माने लोगों ने उनका साथ देने की कोशिश की पर हल्ला करने वालों के सामने उनकी एक न चली और अंत में दीपा मेहता को अपना बोरिया बिस्तर ले कर लौट जाना पड़ा. अभी कुछ समय पहले उन्होने इस फिल्म को श्रीलँका में फिल्माया और प्रदर्शित किया है. जब फिल्म देखने का मौका मिला तो वाराणसी में हुए उस हल्ले का सोच कर ही, मन में उत्सुक्ता थी कि भला क्या कहानी होगी जिससे भारतीय संस्कृति के रक्षक इतना बिगड़ रहे थे ? फिल्म का कथा सारः भारत 1938, स्वतंत्रता संग्राम में पूरा भारत जाग उठा है. छोटी बच्ची छुईया, विवाह के थोड़े से दिनों के बाद विधवा हो जाती है और उसके पिता उसका सिर मुँडवा कर, एक विधवा आश्रम में छोड़ जाते हैं. आश्रम में शासन चलता है बूढ़ी मधुमति का. छुईया पहले तो सोचती है

चाँद और गगन

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इस वर्ष सर्दियाँ जाने का नाम ही नहीं ले रहीं. पर दिन तो लम्बे होने शुरु हो गये हैं. शाम को 6 बजे जब काम से निकलता हूँ तो भी रोशनी होती है, इसलिए कुछ दिन पहले फैसला किया कि अगर बारिश वगैरा न हो तो गाड़ी गैराज़ में बंद रहेगी और काम पर साईकल से ही जाऊँगा. यहाँ लोग साईकल वालों की तरफ़ बहुत सावधान रहते हैं और अधिकतर कार वाले उनका हाथ उठा देखते हैं तो रुक कर या धीमा करके उन्हें सामने मुड़ना या सड़क पार करने देते हैं. जिस रास्ते से मैं घर आता हूँ उस पर बहुत साईकल चलाने वाले नहीं होते, कोई इक्का दुक्का ही होता है. खैर यह सारी कहानी यह कहने के लिए सुनाई कि कल शाम को साईकल से घर वापस आ रहा तो जाने क्यों मन में एक पुराना गाना आया. गाना था फिल्म "ज्योती" से जिसमें अभिनेता थे संजीव कुमार और निवेदिता, और उनके बेटे का भाग निभाया था उस समय की बाल अभिनेत्री सारिका ने. मेरा ख्याल है कि यह फिल्म रंगीन नहीं श्वेत+श्याम थी, पर यह भी हो सकता है कि क्योंकि फिल्म पुराने रंगहीन टेलीविज़न पर देखी थी, इसलिए ऐसा सोचता हूँ. फिल्म का विषय था भगवान पर से विश्वास या अविश्वास. अच्छा यादाश्त भी अजीब चीज़ है. जान

गाँधी और बुश

किसी भी देश से कोई नेता या राजा आदि दिल्ली आयें तो उन्हें राजघाट जो जाना ही पड़ता है, गाँधी जी के स्मारक को फ़ूल चढ़ाने के लिए. केवल साऊदी अरब के राजा को "धार्मिक कारणों" से यह छूट दी गयी कि उन्हें गाँधी जी की समाधी के सामने सिर न झुकाना पड़े (व्यक्तिगत रुप में इस बात से बिल्कुल सहमत नहीं था) अमरीकी राष्ट्रपति बुश जी को गाँधी जी की समाधी तो जाना ही था. इस बारे में भारतीय लेखिका अरुँधति राय ने अंग्रेज़ी के अखबार The Hindu में लिखा था, "वह अकेला ही युद्ध अपराधी नहीं होगा जिसे राजघाट पर आने का भारत सरकार से निमंत्रण मिला हो. पर जब बुश उस प्रसिद्ध पत्थर पर फ़ूल रखेगा तो लाखों भारतीय हिल जायेंगे मानो उन्हें चाँटा लगा हो, मानो उसने समाधी पर आधा लिटर खून डाल दिया हो." बुश जी के राजघाट जाने से लाखों भारत वासियों के दिल दहले या नहीं, यह मुझे नहीं मालूम. उस दिन मैं दिल्ली में ही था और लगा कि दिल्ली की जनता बुश जी से बहुत प्रसन्न हो. पर असली हल्ला बुश जी से नहीं उनके कुत्तों की वजह से हुआ. क्योंकि कुत्तों को सुरक्षा जाँच करने के लिए समाधी के पास जाने दिया गया, इस पर बहस शुरु हो ग

नागेश कुकुनूर का "इकबाल"

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बहुत दिनों से सुना था नागेश कुकुनूर की फिल्म "इकबाल" के बारे में और उसे देखने की मन में उत्सुकता थी. मार्च के प्रारम्भ में नेपाल से वापस आते समय, दिल्ली से फिल्म की डीवीडी ले कर आया था. कल रात को आखिरकार उसे देखने का समय मिल ही गया. आम हिंदी फिल्मों का सोचें तो यह फिल्म उनसे बहुत अच्छी है. न कोई बेसिर पैर की बेतुकी बातें हैं न बीच में जबरदस्ती घुसाये "आईटम सांग" या कामेडी. सीधी, स्पष्ट कहानी और बहुत सारे कलाकारों के दिल को छू लेने वाला अभिनय. इकबाल के रुप में श्रेयास तालपड़े और उसकी बहन के रुप में श्वेता नाम की बच्ची दोनो ही बहुत अच्छे लगे. कुछ एक दृष्य भी मन को छू लेते हैं, पर फ़िर भी, कुछ कमी सी लगी. गलत नहीं समझईये मेरी आलोचना को. जैसे पहले कहा, फ़िल्म आम बालीवुड मसाला फि्लमों से बहुत अच्छी है और उसे दोबारा देखना पड़े तो खुशी से देखूँगा. पर कुकुनूर जी से उम्मीद "केवल अच्छी" फ़िल्म की नहीं, कुछ उससे अधिक ही थी. तो क्या बात है फ़िल्म में जो कुछ पूरी खरी नहीं लगी ? पहली बात तो यह कि मुझे लगा कि कहानी दिल से नहीं दिमाग से लिखी गयी लगती है, जैसे नागेश जी ने मे

कोयले की दलाली

अमरीकी लेखक अलेक्ज़ांडर स्टिल की नयी पुस्तक निकली है, "नागरिक बरलुस्कोनीः जीवन और कार्य", जिसके कुछ हिस्से इटली की एक पत्रिका में लेख के रुप में प्रकाशित हुए हैं. पढ़ कर बहुत अचरज हुआ क्योंकि उसमें देश के नियम और कानून को तोड़ मरोड़ कर अपने फायदे के लिए इटली की प्रधानमंत्री श्री बरलुस्कोनी द्वारा किये बहुत से कामों के कच्चे चिट्ठे विस्तार से बतलाये गये हैं. लेख में इन सब कामों को करने के लिए किस पत्रकार, किस उद्योगपति, किस व्यक्ति ने कैसे प्रधानमंत्री का साथ दिया ताकि वह कानून का खेल बना सकें, उनके भी नाम खुले आम लिखें हैं. अचरज इसलिए हुआ कि अगर इन बातों के सबूत नहीं हों श्री स्टिल के पास तो उन पर करोड़ों की मानहानि का दावा किया जा सकता है. और अगर यह सब बातें सच हों तो बहुत से लोगों को जेल में होना चाहिये था. उदाहरण के तौर पर उसमें एक जाने माने टेलीविज़न पत्रकार का नाम है और उनकी एक उद्योगपति से टेलीफोन पर की हुई बात का पूरा विवरण है जिसमें वह बताते हैं कि कैसे वह अपने टेलीविज़न के समाचारों द्वारा एक अच्छे मजिस्ट्रेट के बारे में झूठ फैला रहे हैं क्योंकि उसने बरलुस्कोनी के एक मित्

देबाशीष का लेख (२)

आखिरकार, जितेंद्र की सहायता से 12 March का The Asian Age का वह लेख मिल ही गया. लिखा है Genesia Tahilramani ने, शीर्षक है Blog Bytes प्रस्तुत हैं इस लेख के कुछ अंशः India Online 2005 reported that there are about 1.2 million Indibloggers. Debashish Chakrabarty, the founder of Indibloggers.org says he would “take that number with a pinch of salt. A thousand odd new blogs may be registered daily and perhaps a similar number are relinquished or languish for want of getting updated. I would put Indian blogs somewhere between thirty to fifty thousand in number.” I ndibloggers.org awards bloggers in different categories. Chakrabarty is convinced of the medium’s growing strength. “Close to 300 blogs were nominated at the Indibloggies 2005. Of these, 100 blogs made it to the final voting stage. Nine hundred votes were cast to decide the winners across 18 categories ranging from Indiblog of the Year (stand up Amit Varma, IndiaUncut wins!) to best blog in various Indian languages.” Once again,

देबाषीश का लेख

१२ मार्च के जिस लेख की बात की थी वह जनसत्ता में नहीं अंग्रेजी के अखबार The Asian Age (sunday supplement) में निकला था. क्योंकि हिंदी के चिट्ठों की बात थी, और मुझे मालूम था कि छोटी बहन का यहाँ "जनसत्ता" आता है, मैंने स्वयं ही तुक लगा लिया था कि लेख जनसत्ता में निकला होगा. उस लेख को स्केन करके आपको दिखाने में मैं असमर्थ हूँ पर शायद कोई उसे The Asian Age के वेबपृष्ठ से ढ़ुँढ़ सकता है ? मैंने कोशिश की पर सफलता नहीं मिली.

लंदन में आत्मिक दर्शन

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"विकलाँगता और विकास" विषय से जुड़ी सँस्था की गोष्ठी थी जिसके लिए लंदन गया था. रास्ते में पढ़ने के लिए जे. कृष्णमूर्ती की पुस्तक जिसमें उनके सीखने और ज्ञान के विषय पर लेख और प्रवचन इत्यादि हैं (J. Krishnamurti, On Learning and knowledge, Penguin books, India), ले कर गया था. मुझे ऐसी पुस्तक के साथ देखेंगे या घर में रखी योग और आध्यात्मिक विषयों की किताबें देखेंगे तो जरुर सोचेंगे कि अवश्य मुझे इन विषयों में गहरी दिलचस्पी होगी. बात गलत नहीं है, दिलचस्पी तो है पर इस बारे में सच में क्या सोचता हूँ यह कहना मेरे स्वयँ के लिए भी कठिन है. मेरे अंदर के विचार कुछ अंतर्विरोध से जुड़े लगते हैं. इस पुस्तक में, कृष्णमूर्ती जी "अंदरुनी खालीपन" के आनंद की बात करते हैं, कहते हैं "ज्ञान में ही अज्ञान है", यानि पहले से ग्रहित ज्ञान और अनुभव हमारे हर नये अनुभव को प्रभावित करते हैं, उन्हें नयी, अनछुई दृष्टि से नहीं देखने देते. इस लिए मानव को संग्रहित ज्ञान को भूल कर अंदरुनी खालीपन की चेष्टा करनी चाहिये, जिसमें जो आनंद है वह किसी संसारिक सुख में नहीं हो सकता. ***** लंदन में गोष्ठी मे

विक्रम और बेताल

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कोई आप से पूछे कि विक्रम सँवत के अनुसार यह कौन सा सन है या कौन सा महीना है, तो क्या आप बता पायेंगे ? शायद भारत में आज विक्रम सँवत की जानकारी या तो पँडितों को होगी या गाँव में रहने वाले लोगों को, अतरजाल पर घूमने वालों को इसके बारे में मालूम होगा, मुझे नहीं लगता. पर भारतीय विक्रम सँवत नेपाल में आज भी खुली हवा में सिर ऊँचा कर के जी रहा है. इसके हिसाब से यह सन है 2062 और यह महीना है फागुन. फागुन के अंतिम दिन, बुधवार को होली है. चैत, वेशाख, ज्येष्ठ, आषाढ़, सावन, भादों जैसे विक्रम सँवत के महीनों के नाम हमारे लोक गीतों और पुरानी फिल्मों के गानों में कभी कभी सुनाई दे जाते हैं, पर किसी को उनका अर्थ शायद ही समझ आता हो. प्रचलित इसाई कैलेण्डर से 62 साल अधिक पुराना विक्रम सँवत किसने बनाया और क्यों, मुझे ठीक से मालूम नहीं. विक्रमादित्य बड़े सम्राट थे भारत के, उज्जेन में रहते थे यही मालूम है और बचपन में चंदा मामा में पढ़ी विक्रम और बेताल की कहानियाँ कुछ याद हैं और कौन थे विक्रमादित्य, क्या किया उन्होंने कि उन्हें भारतीय जनता ने इतना सम्मान दिया, यह नहीं मालूम. उनके मुकाबले में उनसे 400 साल पहले के बुद्ध

नेपाली, हिंदी और भूमंडलीकरण

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नेपाल में अंग्रेज़ी का प्रचलन, भारत के मुकाबले बहुत कम है. शहर में, गाँवों में बोली जानी वाली नेपाली भाषा, मुझे बहुत अच्छी लगी. भारत जाता हूँ तो शहर में सब लोग हिंदी और अंग्रेज़ी की खिचड़ी बोलते हैं, मैं स्वयं भी हर वाक्य में कुछ न कुछ अंग्रेज़ी शब्द मिलाये नहीं बोल पाता. यह भी लगता है कि हमारी भाषा हिंदी कम और हिंदुस्तानी अधिक है, बहुत से शब्द जो संस्कृत से आते हैं वह केवल दूरदर्शन के समाचार बुलेटिन में सुनाई देते हैं, जबकि सामान्य बातचीत की नेपाली में संस्कृत का असर अधिक दिखता है. मेरे कहने का यह अर्थ नहीं कि हमें हिंदी को बदलना चाहिये या उसमें अधिक संस्कृत से आये शब्दों का प्रयोग करना चाहिये, मैं तो केवल भाषा की विविधता की सुंदरता की बात कर रहा हूँ. यह दुनिया सुंदर है क्योकि विविध है, अलग भाषाएँ, अलग संस्कृतियाँ, अलग वेष भूषा, अलग धर्म, अलग रीति रिवाज़ों से बनी है. ऐसे में भूमंडलीकरण दुनिया को एक जैसा बना रहा है, और हमारी विभिन्नताएँ धीरे धीरे गुम हो रही हैं. पर जैसे हिंदी अंग्रेज़ी से प्रभावित हो रही है और भारत में अंग्रेज़ी का बोलबाला पढ़ रहा है, वैसे ही नेपाल में खतरा है नेपाली के

काम है साधू

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काठमाँडू का पशुपतिनाथ का मंदिर हिंदू धर्मवासियों के लिए विषेश महत्व रखता है. जिन दिनों में काठमाँडू में था, उन दिनों में शिवरात्री भी थी इसलिए दूर दूर से भक्त मंदिर में दर्शन के लिए पहुँचे थे. सुना कि शिवरात्री की रात को मंदिर में पाँच लाख से अधिक लोग थे और कई लोग घँटों वहाँ फँसे रहे, बाहर नहीं निकल पाये. मैं उस दिन तो काठमाँडू से बाहर औखलढ़ुँगा में था पर दो दिन बाद मंदिर जाने की सोची. मेरे एक नेपाली मित्र ने सलाह दी कि पशुपतिनाथ के दर्शन के बाद, पशुपति की संगिनी ज्यूएश्वरी (शायद नाम मुझे ठीक याद नहीं) का मंदिर देखना न भूलूँ, जो पशुपतिनाथ के सामने ही बागमति नदी की दूसरी ओर है. कहते हैं कि जब शिव जी मृत पत्नी के शरीर को ले कर भटक रहे थे तो उस जगह पर उसके शरीर का एक हिस्सा गिरा था. पशुपतिनाथ में अभी भी भीड़ बहुत थी. मंदिर के भीतर तो फोटो खींचना मना है पर बाहर से जब फोटो खींच रहा तो वहाँ बैठे एक साधू जी बोले, "तस्वीर खींच कर उसे अखबार में छपा कर पैसे ले लोगे और हम यहाँ खाली हाथ बैठे रहेंगे." तो मन में आया कि शायद आज साधू बनने का अर्थ जग त्याग नहीं, दान पर जीवन गुज़ारना नहीं, एक तर

नेपाल: पर्वतों के बीच हाँफते

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२२ फरवरी को काठमाँडू पहुँचा तो मन में कुछ डर सा था. जिस महिला संगठन के साथ काम के लिए गया था, उन्होंने पहले ही सूचना दे दी थी कि आजकल किसी को काठमाँडू हवाई अड्डे पर लेने आना आसान नहीं और कहा था कि मुझे बाहर आ कर अपने होटल की गाड़ी को खोज कर अपने सब काम स्वयं ही करने होंगे. खैर नेपाल की अंदरुनी स्थिति का एक फायदा तो हुआ, विदेशी पर्यटकों की संख्या बहुत कम हो गयी है, इसलिए हवाई अड्डे पर पासपोर्ट की जाँच कराने में देर नहीं लगी. बाहर निकला तो सब तरफ पुलिस या मिल्टरी दिखाई दी. होटल काँतीपथ पर था जहाँ से दरबार चौक दूर नहीं इसलिए होटल पहुँच कर तुरंत बाहर घूमने निकल पड़ा. लोगों की भीड़ देख कर मन की चिता दूर हुई. लगा कि चाहे विदेशी पर्यटक कम थे पर देश की राजनीतिक परेशानियों ने काठमाँडू के साधारण जीवन पर बहुत अधिक असर नहीं डाला था. माओवादियों से झगड़ा तो बहुत सालों से चल रहा था, नेपाल के राजा फरवरी २००५ द्वारा पार्लियामेंट को भंग करके, संविधान बदलने और सभी राजनीतिक दलों के नेताओं को जेल में डालने से स्थिति बहुत बिगड़ गयी है. पिछले दिनों में राजनीतिक दलों ने माओवादियों से मिल कर एग्रीमेंट बनाया था पर अ