बच्चन जी की कमसिन सखियाँ
आखिरकार मुझे करण जौहर की फ़िल्म "कभी अलविदा न कहना" देखने का मौका मिल ही गया. अक्सर ऐसा होता है कि जिस फ़िल्म की बहुत बुराईयाँ सुनी हों, वह उतनी बुरी नहीं लगती, कुछ वैसा ही लगा यह फ़िल्म देख कर. फ़िल्म के बारे में पढ़ा था कि समझ में नहीं आता कि अच्छे भले प्यार करने वाले पति अभिशेख को छोड़ कर रानी मुखर्जी द्वारा अभिनेत्रित पात्र को इतने सड़ियल हीरो से किस तरह प्यार हो सकता है? मेरे विचार में इस फ़िल्म यह फ़िल्म भारत में प्रचलित परम्परागत विवाह होने वाली मानसिकता को छोड़ कर विवाह के बारे प्रचलित पश्चिमी मानसिकता से पात्रों को देखती है. यह तो भारत में होता है कि अधिकतर युवक और युवतियाँ, अनजाने से जीवन साथी से विवाह करके उसी के प्रति प्रेम महसूस करते हैं. इसके पीछे बचपन से मन में पले हमारे संस्कार होते हैं जो हमें इस बात को स्वीकार करना सिखाते हैं. इन संस्कारों के बावजूद कभी कभी, नवविवाहित जोड़े के बीच में दरारें पड़ जाती है. मेरे एक मित्र ने विवाह में अपनी पत्नी को देखा तो उसे बहुत धक्का लगा, पर उस समय मना न कर पाया, लेकिन शादी के बाद कई महीनों तक उससे बात नहीं करता था. एक अन्य मित्र