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जून, 2006 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

हिंदी के उपन्यासकार

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रत्ना जी ने लिखा है कि मेरे लिखने के अन्दाज़ में उसे मेरी प्रिय लेखिका शिवानी की झलक दिखती है. शिवानी की कोई किताब पढ़े तो वर्षों बीत गये, पर उनके लिखने के तरीके की झलक मेरे लिखने में मिलती है, सोच कर बहुत खुशी हुई. अपने मनपसंद हिंदी लेखकों के उपन्यास पढ़े तो अब यूँ ही साल गुजर जाते हैं क्योकि मेरे बहुत से प्रिय लेखक अब नहीं रहे या कम लिखते हैं. और नये लेखकों से मेरी जान पहचान कुछ कम है. कुछ महीने पहले दिल्ली से गुज़रते समय मुझे डा. राँगेय राघव की एक अनपढ़ी किताब मिल गयी थी, "राह न रुकी" (भारतीय ज्ञानपीठ, पहला संस्करण, 2005). आजकल उपन्यास पढ़ना कम हो गया है और कभी पढ़ने बैठूँ भी तो रुक रुक कर ही पढ़ पाता हूँ, एक बार में नहीं पढ़ा जाता. पर मई में जेनेवा जा रहा था, "राह न रुकी" सुबह पढ़ना शुरु किया और पूरा पढ़ कर ही रुका. इस उपन्यास में उन्होने जैन धर्म के सिद्धातों का विवेचन किया है चंदनबाला नाम की जैन संत के जीवन के माध्यम से. भगवान बुद्ध का जीवन और उनका संदेश के बारे में तो पहले से काफी कुछ जानता था पर कई जैन मित्र होने के बावजूद भगवान महावीर के बारे में बहुत कम जानता था, श

कुछ इधर उधर की

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पुरस्कार के साथ साथ "सबसे सक्रिय हिंदी चिट्ठाकार" की पदवी पाने का पढ़ कर अचरज भी हुआ, खुशी भी. जिसने भी मेरे चिट्ठे को इस योग्य समझा, उन सब को धन्यवाद. **** लिखनेवाले के लिए सबसे बड़ी सुख होता है उसे पढ़नेवालों की राय जानना. इस दृष्टि से चिट्ठा लिखना, लेखन की अन्य सभी विधाओं से बेहतर है क्योंकि पढ़ने वाले चाहें तो सीधा ही उसपर अपनी राय दे सकते हैं. बचपन में हिंदी लेखिका शिवानी मुझे बहुत पसंद थीं, पर उनसे कभी सीधा कोई सम्पर्क नहीं हुआ. फ़िर कुछ वर्ष पहले छोटी बहन से सुना कि अमरीका में शिवानी जी उसके ही क्लिनिक में साथ काम करने वाले एक डाक्टर की सम्बंधीं हैं और उनके घर पर ठहरीं हैं. लगा कि हाँ, अपने प्रिय लेखक से सम्पर्क हो सकता है पर इससे कुछ समय बाद ही मालूम चला कि शिवानी जी नहीं रहीं. फ़िर अचानक पिछले वर्ष अमरीका से शिवानी जी के पुत्र का संदेश मिला. उन्होंने कल्पना पर शिवानी जी के बारे में मेरा लिखा पढ़ा था जो उन्हे अच्छा लगा था. लगा जैसे कोई पूजा थी, जिसके लिए मुझे वरदान मिल गया हो. **** मैंने अपनी एक इतालवी मित्र को अपनी नई लाल मेज़ और अलमारी के बनाने की कठिनाईओं के बारे में बत

शक्तिवान का भय

कल टेलीविजन में फ़िर से गाज़ा में घुसते इज़राईली टैंकों को देख कर झुरझुरी सी आ गयी. भारत में समाचारों में कभी पालिस्तानियों का नाम नहीं आता था पर यहाँ तो शायद ही कोई दिन होता है जब वहाँ कि किसी बमबारी या बम विस्फोट का समाचार न हो. अभी कुछ दिन पहले गाज़ा के समुद्र तट पर इज़राईली मिसाइल से मरे लोगों की तस्वीरों में पिता की लाश के पास खड़ी ग्यारह वर्ष की रोती हुई लड़की मन को छू गयी थी, पर अधिकतर तो ऐसी तस्वीरों को देखने की आदत सी हो गयी है. ईंट का जवाब पत्थर से दो, यह है इज़राईल की आतंकवाद से लड़ने की नीति. पालिस्तीनी हमास के या अन्य दलों के लोग बम फैंकें या फ़िर नवजवान लड़के स्वयं को इज़राईलियों की भीड़ में बम से उड़ा दें, तो इज़राईली बम और मिसाईल उसी दिन या अगले दिन अपना काम करते हैं. मरने वालों के आँकणे देखें तो हर मरने वाले इज़राईली के बदले में कम से कम तीन पालिस्तीनी मरना चाहिये, ऐसा लगता है. ताकतवर अपनी ताकत से जितना कुछ कर सकता है, चाहे वह जायज हो या नाजायज, सब कुछ कर रहा है. जहाँ पालिस्तीनी रहते हें, इनके घरों के बीच ऊँची जेल जैसी दीवार खड़ी गयी है ताकि पालिस्तीनी बाहर न निकल सकें. कुछ व

हमारा इतिहास

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एक दोहा खोजने के लिए रामायण निकाली तो नजर उसके प्रारम्भ में दी गयी तुलसीदास जी की जीवनी पर पड़ी. इसमें लिखा था, "तुलसीदास जी का जन्म संवत 1554 ई. में बाँदा जिले में राजापुर ग्राम में हुआ था ... चल कर वे प्रयाग होते हुए काशी आये और वहाँ रामकथा कहने लगे. उन्हें एक प्रेत मिला, उसने उन्हें हनुमान जी का पता बताया. हनुमान जी से मिल कर तुलसीदास जी ने अपनी श्रीराम दर्शन की अभिलाषा पूरी करने पूर्ण करने का प्रयत्न किया ..." रामायण प्रेस द्वारा मुम्बई में 1999 में छपी इस रामायण को पढ़ कर सोच रहा था कि संवत 1554 का अर्थ हुआ कि तुलसीदास जी आधुनिक कैलेण्डर के हिसाब से सन 1497 में हुआ, यानि आज से करीब 500 वर्ष पहले. स्वामी शिवानंद जी ने भी तुलसीदास जी की जीवनी लिखी है, उनके अनुसार तुलसीदास जी का जन्म संवत 1589 यानि सन 1532 में हुआ था. शिवानंद जी अधिक विस्तार से बताते हैं कि उन्हें एक पेड़ पर से एक प्रेत मिला था जिसने उन्हें हनुमान जी से मिलने का रास्ता बताया. उसने कहा कि एक हनुमान मंदिर में हनुमान जी एक कुष्ठ रोगी का रुप धारण करके रामायण का पाठ सुनने आते हैं. अंतरजाल पर तुलसीदास जी के बारे में

अभिनय का शौक?

अगर आप को अभिनय का शौक है, आप इटली में रहते हैं और अच्छी इतालवी भाषा बोलते हैं तो मुझसे तुरंत सम्पर्क कीजिये. इतालवी राष्ट्रीय टेलीविज़न के लिए एक सिरीयल में कुछ भारतीय अभिनेताओं की आवश्यकता है और उन्होने मुझसे सहायता माँगी है. अगर आप किसी ऐसे व्यक्ति को जानते हैं जिसको इसमें दिलचस्पी हो सकती है तो उसे मुझसे इस ब्लाग के माध्यम से या कल्पना पर दिये गये मेरे ईमेल के पते से संपर्क करने के लिए कहिये. अंतिम तारीख 30 जून 2006.

एक अधूरा ताजमहल

मेरे हाथ डबलरोटी की तरह फूल गये हैं. क्मप्यूटर के कीबोर्ड पर उँगलियाँ चलाते हुए लगता है मानो जोड़ों के दर्द की बीमारी का पुराना रोगी हूँ. यह सब हाथों की मेहनत का कमाल है. कई सालों से मन में अपनी छवि सी थी ऐसे मानव की जिससे दिमागी चाहे जितने काम करवा लीजिये पर हाथों से कुछ करने के लिए न कहिए. "अरे भाई तुमसे तो एक कील भी सीधा नहीं लगता", "यह कैसी टेढ़ी लकीर लगाई है श्रीमान जी, बँगाल की खाड़ी का नक्शा लगता है" जैसी बातें सुन सुन कर, मन में पक्का हो गया था कि जो काम ठीक से न करना आये, उसे न करने में ही भला है. सोचता कि दुनिया में कुछ लोग हाथ से मेहनत मजदूरी करते हैं और दूसरे कुछ लोग दिमाग से वह मेहनत करते है, और मैं उन दूसरों मे से हूँ. इसलिए जब भी कभी कुछ "सचमुच" का काम करने की बात आती है, मैं अक्सर चुप ही रहता हूँ या फ़िर करीब खड़े हो कर सलाह देने की जिम्मेदारी निभाता हूँ. जब अचानक क्मप्यूटर वाली मेज की एक टाँग को हिलते हुए महसूस किया तो तुरंत श्रीमति जी को आवाज लगाई. उन्होंने सलाह दी कि मेज खतरनाक हालत में था और उसे जल्दी से जल्दी बदलना ही बेहतर होगा. किसी लकड़ी

लाल सलाम

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कलकत्ता, सन १९७०. रात को टेलीफोन की घँटी बजती है. सुजाता चैटर्जी उठ कर टेलीफोन उठाती है तो कोई उससे काँतीपोखर आ कर अपने बेटे ब्रती चैट्रजी की पहचान करने के लिए कहता है. सुजाता समझ नहीं पाती कि क्यों उसके पति, उसका बड़ा बेटा, इस समाचार से चिंतित हो जाते हैं और पुलीस में जान पहचान ढूँढते हैं कि मामला दबा दिया जाये. दिव्यानाथ चैटर्जी, ब्रती के पिता काँतीपोखर अपनी कार में नहीं जाना चाहते, क्योंकि कोई उनकी कार को न पहचान ले. अंत में सुजाता ही जाती है बेटे की पहचान करने. एक कमरे में फर्श पर कपड़े से ढकी पाँच लाशे पड़ीं हैं, कोने में दो तीन लोग स्तब्ध से बैठे हैं. उनमें से एक लाश है उसके बेटे की, पाँव के अँगूठे पर लाश का नम्बर बँधा है, १०८४. पुलीस उसे लाश देने से इंकार कर देती है और सुजाता बेटे के साथ अन्य चार लाशों का दहन देखती है. इस तरह शुरु होती है गोविंद निहलानी की फिल्म " हजार चौरासी की माँ ". कहानी है मध्यवर्गी, प्रौढ़ सुजाता चैटर्जी की. उसके अपराध बोध की कि अपने पेट के जने बेटे की चीत्कार नहीं सुन पायी, घर में साथ रहने वाले बेटे की केवल हँसी देख सकी, वह क्या कर रहा है, कहाँ जाता

समयचक्र

कीर्ति-स्तम्भ नाम के लेख में हिंदी की लोकप्रिय लेखिका शिवानी ने लिखा थाः "आजादी के बाद यदि हमने कुछ अंश में कुछ पाया भी है, तो खोया है उससे अधिक. हमारी संस्कृति धीरे धीरे हमारी मुट्ठियों से निकलती जा रही है और परायी संस्कृति के प्रति हमारी निष्ठा, हमारा मोह, हमारा ध्येय भावना को शिथिल करता जा रहा है. अतीत में हमारी सर्वोच्च निष्ठा धर्म के प्रति थी, इसे से हमारे पारंपरिक धर्मानुष्ठानों में हमारी संस्कृति भी अपने स्वाभाविक रुप में जीवंत थी... हमारी संस्कृति बनी रहे, अतीत के प्रति हमारी निष्ठा शिथिल न हो, इसके लिएआवश्यक है सदियों से प्रचलित हमारी ये प्रथा संस्थाएं बनी रहें. किंतु धीरे धीरे इन उत्सवों में भी अब न उत्साह रहा है न वह आकर्षण! हाथ में ट्राजिस्टर लिए ग्रामीणों की टोली अब न वह मीठे झोड़े गाती, न चांचरी! स्त्रियां अब सभ्य शिष्ट पर्दों की ओट से डोला देखती हैं, छतों पर उनके रुप की फुलझड़ी नायकों की टोली को नहीं गुदगुदा पाती. महिषों की भीड़ अब चमकीले तेल लगे सींग घुमाती झूलती झालती नहीं निकलती, कुमाऊं का ग्रामीण अब पूर्ण रुप से सभ्य हो चुका है, देवी यदि भैंसे की बलि न देने से अप्

मैं शिव हूँ

अक्सर मैं अपने चिट्ठे पर लिखी टिप्पणियाँ पढ़ने में देर कर देता हूँ. समय कम होता है और लिखने की, और दूसरे लोग क्या लिख रहे हैं, इसकी चिंता अधिक होती है, मेरे लिखे पर किसने क्या कहा, इसकी कम. पर कई बार टिप्पड़ियाँ पढ़ कर सोचता रह जाता हूँ. कई बार मालूम चलता है कि टिप्पणियों के माध्यम से थोड़ी बहस भी हो गयी और मैंने उस बहस में हिस्सा ही नहीं लिया. थोड़ी सी शर्म आती है कि इतनी दिलचिस्प बात हो रही थी जो मेरी बजह से शुरु हुई, जिसमें भाग नहीं लिया. ऐसी ही टिप्पणी थी सृजनशिल्पी की जो उन्होंने मेरे कुछ दिन पहले के अंतरलैगिक (Transgender) चिट्ठे पर लिखी थी जिसे पढ़ कर सोचता रहा. उन्होंने लिखा था: "हजारी प्रसाद द्विवेदी के उपन्यास वाणभट्ट की आत्मकथा में किसी व्यक्ति में पुरुष और स्त्री के द्वंद्व के संबंध में भारतीय दर्शन के दृष्टिकोण से प्रकाश डाला गया है, जिससे इस विषय के मनोविज्ञान को बेहतर ढंग से समझने में मदद मिलती है।" मैं भी यह सोचता हूँ कि आजकल के भूमँडलीकरण के ज़माने में हम अक्सर बहुत से विषयों पर पश्चिमी विचारों को देवकथित सत्य वचन सा मान लेते हैं, जबकि हमारी अपनी सभ्यता में उस विष

क्यों नहीं ?

"अंतर्राष्ट्रीय विकलाँग मानव" (Disabled Peoples International) के इतालवी प्रतिनिधि जाँपिएरो से बात कर रहा था. जाँपिएरो ने कहा, "विकलाँग लोगों के सामान्य जीवन अधिकारों का तो सदियों से उल्लँघन होता आया था पर तब उनमें इस अन्याय की चेतना नहीं थी. विकलाँग लोगों का घर से बाहर निकलना, अन्य विकलाँग लोगों से बात करना, कहीं आना जाना, आर्थिक दृष्टि से स्वतंत्र होना, आदि बहुत कठिन था. केवल द्वितीय विश्व महायुद्ध के आसपास जब उद्योगिक विकास से उत्तरी देशों की आर्थिक स्थिति मज़बूत हुई तो ऐसी संस्थाँए बनाई जाने लगीं जहाँ विकलाँग लोगों को अलग रखा जा सके और वह लोग आपस में मिलने जुलने लगे, एक दूसरे के जीवन अनुभव की बातें करने लगे. तब उन्हें पहली बार समझ में आया कि जिसे वह अपनी विकलाँगता की वजह से हुई कठिनाईयाँ समझते थे, वह उनकी विकलाँगता से नहीं, समाज की मानसिकता से जन्मी कठिनाईयाँ थीं और अगर वह सब मिल कर इस सामाजिक अन्याय और शोषण से लड़ें तो समाज बदल सकता है. अकेले मानव के शरीर के "नुक्स" देखने वाले मेडिकल कारणों की जगह उन्होंने विकलाँगता से सामाजिक कारणों की बात की." इसी सो

अपनी भाषा

मैं इन दिनों अमरीकी पुलित्ज़र पुरस्कार से तीन बार सम्मानित पत्रकार थोमस फ्रीडमैन की पुस्तक The World is Flat (Thomas Friedman, दुनिया समतल है, Allen Lane publications, 2005) पढ़ रहा था. इस पुस्तक के अंत के करीब वह अब्राहम जोर्ज की बात बताते हैं. केरल में जन्मे, भारतीय सेना के अफसर रहे, फिर अमरीका जा कर वहाँ एक सोफ्टवेयर की कम्पनी खोली. 1998 में अब्राहम अमरीका में नौकरी छोड़ कर वापस भारत आये जहाँ उन्होंने बँगलौर के पास पत्रकारों को तैयार करने की संस्था बनायी क्योंकि उनका सोचना था कि भारत की उन्नति के लिए ज़िम्मेदार और स्वतंत्र पत्रकारों का होना बहुत आवश्यक है. साथ ही साथ, उन्होंने दलित बच्चों को पढ़ाने के लिए एक गाँव में एक विद्यालय भी खोला, शांति भवन. फ्रीडमैन शांति भवन विद्यालय को देखने गये और उसके बारे में लिखते हैं कि कैसे सुंदर, स्वच्छ वातावरण में गरीब परिवारों के बच्चों को आम शिक्षा के साथ साथ, क्मप्यूटर आदि भी शुरु से ही सिखाया जाता है. फ़िर बताते हैं कि जिस दिन वह वहाँ गये, बच्चे केलिफोर्निया आचीवमैंट का इम्तहान दे रहे थे और विद्यालय की प्रिंसिपल श्रीमति लाव ने फ्रीडमैन से कहा, &qu

पुराने कपड़े

गेंद छज्जे से उछल कर बाहर गिर गयी थी. झाँक कर नीचे देखा, तो उसे घर के सामने वाले गिरजाघर की दीवार पर लगी काँटों वाली तार के बीच में फँसा पाया. पहले गिरजाघर की दीवार पर वह तार नहीं थी पर कुछ महीने पहले कोई लोग रात को दीवार से चढ़ कर अंदर घुस गये थे और खिड़कियाँ तोड़ दी थी, तो उसके बाद वह तार लगा दी गयी थी. गिरजाघर के पादरी का बेटा मेरे साथ खेलता था, और पादरी को मैं दोस्त के पिता की हैसियत से "अंकल जी" बुलाता था इसलिए बिना सोचे बोला, "अभी मैं ले कर आता हूँ गेंद को". गिरजाघर का गेट खुलवाने में कोई दिक्कत नहीं हुई. माली ने दीवार के पास सीड़ी लगा दी और मैं दीवार पर चढ़ गया. नुकीले काँटों से बचता हुआ तारों के बीच धीरे धीरे कदम रख कर मैं गेंद तक पहुँचा. नीचे झुक कर गेंद उठायी और जब उठ लगा तो चर्र सी आवाज़ सुनी. झुकते समय तार का एक नुकीला काँटा निक्कर में फँस गया था, जब सीधा हुआ तो उस तार ने निक्कर को चीर दिया था. सुन्न सा रह गया मैं. माँ क्या कहेगी ? काँटे से जाँघ पर भी खरोंच आयी थी और खून बहने लगा था पर उसकी कुछ चिंता नहीं थी. चिंता थी तो निक्कर की. क्या होगा, सोचा. माँ परेशान

पुरुष या स्त्री ?

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तुर्की (Turkey) की एक टेलीविज़न चैनल ने एक नया रियेल्टी शौ करना का फैसला किया था. आजकल इन्हीं रियेल्टी शो यानि वह कार्यक्रम जिनमें जीवन की सच्चाई दिखाई जायी, कहानी नहीं, का ज़माना है. इस कार्यक्रम में आठ तुर्की युवक जिनकी आयु १९ से ३९ वर्ष के बीच में थी, को तीन सप्ताह तक एक टेलीविजन कैमरे के सामने एक घर में स्त्री बनके रहना था. कुछ नयी बात नहीं थी, यह एक अमरीकी कार्यक्ररम "ही इज़ ए लेडी" (He is a lady) यानि "वह पुरुष स्त्री है" पर आधारित था. पर यह प्रोग्राम उन्हें रद्द करना पड़ा क्योंकि बहुत सारे लोगों ने कहना शुरु कर दिया कि यह कार्यक्रम पुरुषों का अपमान था. इधर इटली में श्रीमति ल्कसूरिया जी इतालवी संसद में चुनी गयी हैं. उनकी खासयित है कि वह इतालवी संसद की पहली ट्राँस हैं, ट्राँस यानि वह लोग जिन्हें अपना जन्मजात लिंग ठीक नहीं लगता और वे स्त्री से पुरुष या पुरुष से स्त्री बन जाते हैं. इसी विषय पर एक नयी अमरीकी फिल्म भी आयी है, "ट्राँसअमेरिका" (Transamerica) जिसमें शल्यक्रिया (surgery) से पुरुष यौन अंग निकलवा कर स्त्री बन जाने का सपना देखने वाला पुरुष मुश्क

धोखा नम्बर 419

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ईमेल में आने वाले संदेश जिनमें कोई लिखे कि उसे करोड़ों रुपये एक जगह से दूसरी जगह भेजने हैं और अगर आप इस काम में उसकी मदद करें तो आप को भी कुछ करोड़ का कमीशन मिल जायेगा. जितने भी इस तरह के संदेश आते हैं मैं उन्हें तुरंत कूड़े के डिब्बे में डाल देता हूँ, शायद इस लिए कि इनकी आदत सी पड़ गयी है और हर दूसरे दिन ऐसे संदेश आते रहते हैं. पर जब पहली बार ऐसा संदेश देखा था तो सचमुच थोड़ी देर के लिए संदेह में पड़ गया था. बिना कुछ किये करोड़ रुपये बन जायें तो इसमें क्या बुरा है ? इसी चक्कर में बहुत से लोग अपना बहुत कुछ खो बैठे हैं, यह जान कर मुझे बहुत आश्चर्य हुआ. जर्मनी की फ्रीडा स्परिंगर बैक नाम की स्त्री पिछले 12 साल से नाईजीरिया की राजधानी लागोस में इसी चक्कर में हैं. उनका कहना है कि इस काम का विश्वकेन्द्र नाईजीरिया में ही है जहाँ हज़ारों लोग इस धँधे में लगे हैं. धोखाधड़ी की कानूनी धारा जिसे भारत में 420 कहते हैं, नाईजीरिया में 419 के नाम से जानी जाती है और फ्रीडा के अनुसार यह वहाँ का गृह उद्योग है जिससे नाईजीरिया बहुत विदेशी मुद्रा कमाता है. यह धोखा बहुत पुराना है और पहले चिट्ठियों के द्वारा होता था, अ

कैसे कहें ?

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पहले सोचा कि लोरेना बेरदुन (Lorena Berdùn) के बारे में लिखूँ. रात को देर हो गयी थी, जब डीवीडी देख कर उसे बंद किया तो टेलीविज़न का एक प्रोग्राम आ रहा था. सुंदर लड़की, थोड़े से कपड़े पहने, बात कर रही थी यौन सम्बंधों की. बात करने का बिल्कुल सीधा अंदाज़, यानि दूध का दूध और पानी का पानी, कुछ भी कहने में उसे कुछ झिझक नहीं थी, हाथ के इशारों से हर बात अच्छी तरह समझाती थी ताकि जिनको सुनाई कम देता हो, वे भी बात को ठीक से समझ सकें. अंतरजाल पर खोजा तो पाया कि कुमारी लोरेना तो बहुत प्रसिद्ध हैं. स्पेनवासी लोरेना ने मनोविज्ञान की उच्च शिक्षा के बाद यौनज्ञान विषेशज्ञ का काम अपनाया और कुछ पत्रिकाओं में पढ़ने वालों के पत्रों के उत्तर देने का काम शुरु किया. जल्दी ही उनकी प्रसिद्धी फैलने लगी क्योंकि वे सभी प्रश्नों के उत्तर बड़े खुले तरीके से देतीं थीं. कुछ ही समय में उन्हे टेलीविजन पर अपनी बात कहने का मौका मिलने लगा. वहाँ उन्होंने बिना झिझक किसी भी प्रश्न का उत्तर देने के साथ साथ कम कपड़े पहनने का काम प्ररम्भ किया. कुछ नग्न तस्वीरें भी खिंचवाईं. चूँकि स्पेन में कोई यह कह कर कि "हमारी संस्कृति में ऐसा करन

ससुराल में भूमँडलीकरण

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मेरी ससुराल उत्तरी इटली में वेनिस के पास छोटा से शहर स्कियो (Schio) में है. जब तक पत्नी की माँ ज़िन्दा थीं तब तक उन्हें मिलने साल में कई बार जाते थे, पर पिछले कुछ सालों से स्कियो जाने के मौके कम ही मिलते हैं. इस सप्ताह छुट्टियाँ थीं तो श्रीमति ने दो दिन के लिए स्कियो जाने का प्रोग्राम बनाया. शहर छोटा अवश्य है पर बहुत सुंदर है. चारों ओर एल्पस के पहाड़ों से घिरा हुआ, हरियाली से भरा. वहाँ बसने वाले प्रवासी लोग कहते हैं कि वहाँ के लोग कुछ ठँडी तरह के हैं, प्रवासियों से ठीक से बात नहीं करते, पर निजी अनुभव ऐसा नहीं है. शायद इस लिए कि श्रीमति जी का परिवार कई सदियों से वहाँ रह रहा है और उसकी वजह से वहाँ के लोग मेरे साथ आम प्रवासियों वाला व्यावहार नहीं करते ? स्कियो छोटा सा है पर बहुत पैसे वाला शहर है. वहाँ बने लक्सओटिका चश्मे सारी दुनिया में निर्यात होते हैं. साथ ही बहुत पुराने विचारों वाला शहर है. "असभ्य प्रवासियों को बाहर निकालो ... मुसलमान नहीं चाहिये यहाँ... हम इटली से अलग हो कर अपना देश पादानिया बनायेंगे..." जैसी बातें करने वाली नेशनलिस्टिक पार्टी "लेगा नोर्द" का यहाँ ब

कहाँ से चले

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विचार थाली के बेंगन होते है, कभी इधर लुड़कते हैं कभी उधर, कहीं से शुरु होते हैं और कहीं और जा कर रुकते हैं. कुछ ऐसा ही है अतंरजाल पर घूमना. छुट्टियाँ हैं इन दिनों, इस लिए कभी कभी यहाँ वहाँ घूमने और पढ़ने में बहुत समय निकल जाता है. एक जगह पढ़ा कि स्पेन की सबसे प्रसिद्ध अभिनेत्री, पेनेलोपे क्रूज़ (Penelope Cruz) ने स्पेनिश लेखक जाविएर मोरो (Javier Moro) की पुस्तक भारतीय प्रेम ज्वर (Indian Passion) पर फिल्म बनाने का निर्णय किया है जिसमें उनके साथ मुम्बई फिल्मी दुनिया के कई कलाकार भी होंगे. यह फिल्म एक स्पेनिश स्त्री अनीता देलगादो के एक भारतीय महाराजा से विवाह की कहानी है. मन में कुछ उत्सुकता जागी कि कौन थी और किस भारतीय महाराजा से शादी की थी उन्होने ? हिंदी और अंग्रेजी पर खोज करने से अनीता देलगादो के बारे में कुछ विषेश नहीं खोज पाया सिवाय इसके कि कपूरथला के महाराजा जगतजीत सिंह से उनका विवाह हुआ था सन 1910 में. पर स्पेनिश भाषा में खोज करने पर अनीता देलगादो के बारे में बहुत कुछ पढ़ने को मिला. आंजेल देलगादो और कंदेलारिया ब्रिओनेस की पुत्री अनीता का जन्म हुआ मलागा में 8 फरवरी 1890 को हुआ था. गरीब

मोटे, छोटे देश

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मेले में कभी कभी जादू के शीशे वाला कमरा भी होता है, किसी शीशे में आप बिल्कुल पतले लगते हैं और किसी में आप के गाल फ़ूल जाते हैं. वर्ल्ड मेप्पर के नक्शे देख कर भी लगता है मानो जादू के शीशों के कमरे में घुस आये हों. यह नक्शे बनाने वाले डेन्नी डोरलिंग और अन्ना बारफोर्ड के बारे में न्यू साईंटिस्ट ( New Scientist ) में पढ़ा. इन नक्शों को बनाने के लिए उन्होंने मिशिगेन तथा एन आर्बर में शोध करने वाले माईकल गेस्टनर तथा मार्क न्यूमेन के बनायी आलगोरिदम का प्रयोग किया है. आम नक्शे तो हर देश के धरातल को दिखाते हैं जैसे ऊपर वाले नक्शे में दिखता है, वर्ल्ड मेप्पर के नक्शे देशों को विभिन्न मापदँडों से तोलते हैं, जैसे कि देश की आबादी. देश के धरातल के मुकाबले में जितनी आबादी अधिक होगी, उतना ही वह देश फूल जायेगा, जितनी आबादी कम होगी, उतना ही वह देश पतला दिखेगा. नीचे वाले नक्शे में देखिये, अमरीका, दक्षिण अमरीका के देश कितने पतले हैं और एशिया के देश कितने मोटे. प्रस्तुत है वर्ल्ड मेप्पर से कुछ अन्य नक्शे. सबसे पहले देशों की पर्यटन से होने वाली आमदनी का नक्शा. अगले नक्शे में है कोपीराईटिंग और रायल्टीस से होने