संदेश

दिसंबर, 2005 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

प्रार्थना ध्वज

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कल सुबह की उड़ान से भारत जाना है और इस चिट्ठे की तीन सप्ताह के लिए छुट्टी. हो सकता है कि भारत से चिट्ठे पर तस्वीरें चढ़ाने का मौका मिल जाये पर शादी के शोर शराबे में बैठ कर लिखना तो असंभव ही होगा. इसलिए आज का संदेश इस वर्ष का अंतिम संदेश है. पुराने वर्ष का अंत, कहने को तो वह भी क्मप्यूटर और अंतरजाल की तरह काल्पनिक सच्चाई (virtual reality) है, यानि सब माया है, सब कुछ हमारी अपनी सोच में है. दिन तो वैसे ही हमेशा की तरह सूरज के उगने और डूबने से बनता है, पर हम लोग उसे केलेण्डर में दिनों, महीनों, वर्षों का नाम दे देते हैं. कुछ भी हो, वर्ष का अंत कहने से, जी करता है कि पीछे मुड़ कर देखें, क्या हुआ, क्या किया, क्या नया हुआ. अंतरजाल पर बहुत सी जगह यही हो रहा है, २००५ के प्रमुख समाचारों को याद करने के लिए. मैंने अपने चिट्ठे पर एक ट्रेकिंग का प्रोग्राम लगा दिया था, जिससे पता चलता है कि कौन, कहाँ से मेरे लिखे चिट्ठे को पढ़ने आता है. उससे देखा कि पिछले महीने करीब २५० लोग इस चिट्ठे को पढ़ने आये. यह देख कर लगा कि वाह, कितने पाठक हैं जो मेरे लिखे को पढ़ने आये. फिर और गहराई में देखा तो पाया कि बहुत से लोग गूग

इंडियाना जोनस् बोलिविया में

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मेरी न भूल पाने वाली यात्राओं में एक बोलिविया यात्रा भी है. बोलिविया की राजधानी "ला पाज़" साढ़े तीन हज़ार मीटर की ऊँचाई पर है. हवाई अड्डे पर उतरते ही आप को डाक्टर और नर्सें दिखती हैं, यह देखने के लिए कि कोई बेहोश तो नहीं हो गया और कई बोर्ड दिखते हैं जिन पर लिखा है कि अगर आप को चक्कर आ रहे हैं या सिर घूम रहा है तो तुरंत बैठ जाईये और सिर को घुटनों के बीच में रख लीजिये. तस्वीर में ला पाज़ में एक जलूस. वहाँ शहरों से बहुत दूर त्रिनीदाद राज्य में एक गाँव में गये. वहाँ होटल नहीं थे, हमें सोने की जगह मिली एक अधूरे घर में जहाँ खिड़की दरवाज़े नहीं थे. घर में बत्ती भी नहीं थी. मोमबत्ती बुझाई तो बिल्कुल अँधेरे में डूब गये. पाखाना घर से बहुत दूर पीछे खेतों में था. रात को घर में बिस्तर के पास मुर्गियाँ, सूअर, बिल्ली आदि घूमते थे. असली मज़ा तो तब आया जब वहाँ से वापस जाने का समय आया. हमारा छोटा सा जहाज़ था, दो सीटों वाला. एक सीट पर पाइलेट जी बैठे और दूसरी पर मेरे साथी. मैं पीछे स्टूल पर बैठा. तेज़ बारिश हो रही थी और जहाज़ एक खेत में रुका था, जहाँ बच्चे, गधे, कुत्ते आदि थे. पहले तो खेत से सबको

श्वेत पुष्प

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पश्चिम बंगाल में एक छोटा सा शहर था अलीपुर द्वार जहाँ हम लोग बचपन में कई बार मौसी के पास गर्मियों की छुट्टियाँ बिताने जाते थे. कुंदू बाबू का घर मौसी के घर के करीब ही था और पड़ोसी होने के अलावा वे मौसी के परिवार के डाक्टर भी थे. अक्सर उनके घर आना जाना होता. मृदु और मितभाषी कुंदू बाबू का धैर्य अंतहीन था, मुझ जैसे बच्चे के अनेके प्रश्नों के उत्तर वह सोच समझ कर धीरे धीरे, बहुत गम्भीरता से देते. ठीक से इसके बारे में कभी नहीं सोचा पर हो सकता है कि मेरे अचेतन मन को उनके व्यक्तित्व से ही प्रेरणा मिली डाक्टर बनने की! कुंदूबाबू का एक बेटा था जिसकी घर के पास ही फोटोग्राफर की दुकान थी, और पाँच बेटियाँ थीं. उनकी दो बेटियों की शादी हो चुकी थी और तीन घर में रहती थीं, कनकन, आभा और शिवानी. कुंदू बाबू की पत्नी को सब लोग बड़ी माँ कहते. उनकी जो याद है उसमें वह आंगन में कूँए के पास गीले, खुले बाल ले कर खड़ीं हैं, माथे पर बड़ी सी गोल बिंदी, चौड़े लाल किनारे वाली सफेद साड़ी, अपनी मैना को मिर्ची खिलाते हुए. वह मैना हमारे लिए बहुत अचरज की चीज़ थी, क्योंकि वह बोलती थी, मां मां चिल्ला कर मिर्ची मांगती. तब अंग्रेजी लेखि

शुद्ध पृथ्वीवासी

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शायद हर जगह लोग ऐसे ही प्रश्न पूछते हैं, कि आप कहाँ से हैं? इटली में लोग, कोई नया मिले तो यह प्रश्न अवश्य पूछते हैं. जब परिवार सारा जीवन एक ही जगह पर बिताते थे तो इस प्रश्न का उत्तर देना कठिन नहीं था. आप कहाँ रहते पूछने का अर्थ यह जानना भी है कि आप विश्वासनीय हैं या नहीं. लोगों में रहने की जगह के साथ जुड़ी बातों की वजह से छोटा बड़ा सोचने की भी आदत होती है. जैसे कि उत्तरी इटली वाले अपने आप को दक्षिणी इटली वालों से ऊँचा समझते हैं. जब शुरु शुरु में इटली आया था और यहाँ अधिक प्रवासी नहीं थे, तो जो घर किराये पर मिला उसकी मकान मालकिन मुझसे यही बोली थी, "मैं तो अपना घर किराये पर या तो उत्तरी इटली वालों को दूँगी या विदेशियों को. "मेरिद्योनालि" लोगों (दक्षिण इटली के लोगों) को नहीं दूँगी." पर आजकल सब कुछ बदल रहा है. बहुत से लोग उत्तर देते हैं, "मेरी माँ एक जगह से हैं, पिता दूसरी जगह से और हम बच्चे लोग तीसरी जगह में बड़े हुए, पर आजकल हम चौथी जगह रहते हैं." यानि यह किसी को यह बताना कि आप कहाँ से हैं, धीरे धीरे कठिन होता जा रहा है. मुझसे लोग अक्सर जब मुझसे पूछते हैं

जरुरत से ज़्यादा समझदार माँ बाप

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मेरी परेशानियाँ मेरे सब साथियों की परेशानियों से भिन्न थीं. आधुनिक और स्वतंत्र विचार रखनेवाले माता पिता मिलने का यही झंझट था. किशोरावस्था में सब साथियों के झगड़े होते अपने घरों में, बालों की लम्बाई पर, बैलबोटोम पैंट की चौड़ाई पर, रात को कितनी देर तक बाहर रह सकते हैं, जैसी बातों पर. हम थे कि तरसते ही रह जाते कि हमें कोई रोके या टोके, पूछे कि हमने ऐसा क्यों पहना है या वैसा क्यों किया है ? उस जमाने में कान, नाक, माथे, होंठ आदि पर पिन घुसवाने या बालों को रंग बिरंगा बनवाने के फैशन नहीं आये थे, पर अगर आये होते तो हमने अवश्य उन्हें अपनाया होता और पक्का विश्वास है कि कोई हमसे नहीं पूछता कि हमने ऐसी बेहूदा हरकत क्यों की थी. हमारे साथी अपने माता पिता से प्रतिदिन लड़ते झगड़ते, और हम थे कि कोई हमें लड़ने का मौका ही नहीं देता था. क्या मालूम इससे हमारे व्यक्तित्व पर क्या गलत असर पड़ा हो ? मेरा ख्याल है कि किशोरावस्था में हर बच्चे को माता पिता से लड़ने का अधिकार है, उसे अधिकार है कि उसके विचार माता पिता से न मिलें, और वह अपने विचारों के लिए लड़ कर अपना स्वतंत्र व्यक्तित्व बनाये. अगर ऐसा न हो तो बच्चों के मन

बीत गये कितने दिन!

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लगता है कि कल की बात है जब वह पैदा होने वाला था. डाक्टर ने तारीख दी थी १० जुलाई की. १० जुलाई आयी और चली गयी, पर उसके आने के लक्षण नहीं दिखाई दे रहे थे. मैं पत्नी के साथ उसके चेकअप के लिए अस्पताल गया. यह वही अस्पताल था जहाँ हमने इक्ट्ठे काम किया था इसलिए वहाँ के सब डाक्टरों और नर्सों को जानते थे. "कुछ नहीं है, सब ठीक है. पर बच्चा अभी ऊपर है, बच्चेदानी में नीचे नहीं आया. तुम खूब चलो, भागो, सीढ़ियाँ चढ़ो, उतरो", डाक्टर बोले, "उससे बच्चा नीचे आ जायेगा." इस बात को हम दोनो ने बहुत गम्भीरता से लिया. सारा दिन घूमते. पूर्वी इटली में स्कियो नाम के शहर में रहते थे, जो पहाड़ों के बीच बसा है. वहाँ चढ़ने, उतरने के लिए सीढ़ियों की कमी नहीं थी. पत्नी के फ़ूले हुए पेट को छू कर, उसका हिलना, लात मारना महसूस करना, मुझे बहुत अच्छा लगता. क्या नाम रखेंगे, इस पर लम्बी बहस होती. यह तो पहले से तय था कि बच्चे के दो नाम होंगे, एक इतालवी और एक भारतीय. यह भी तय था कि अगर बेटी होगी तो उसका पहला नाम भारतीय होगा और दूसरा इतालवी, बेटा होगा तो इसका उलटा. दस दिन बीत गये इसी तरह. फिर अस्पताल चेकअप के

इज्जत के लिए

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हमारी संस्कृति में "इज्जत" का स्थान सर्वप्रथम है, कुछ भी हो जाये, इज्जत को बचा रखना चाहिये. इस इज्जत के बहुत से पक्ष हो सकते हैं, जिनमें से स्त्री के शरीर से जुड़े परिवार की इज्जत के प्रश्न सबसे प्रमुख हैं. बचपन में सुनी रानी पद्मनी की कहानी यही सिखाती है कि स्त्री की इज्जत उसके पति, उसके परिवार में है और बाहर का पुरुष उसके शरीर को छू ले तो उसकी इज्जत चली जायेगी. पराये मर्द के हाथ पड़ने से अच्छा है कि वह मर जाये. इसलिए जौहर या सती उसे पूजनीय बनाते हैं. मानव के लिए जीवन का महत्व सबसे अधिक है, पैसे, इज्जत, खेल तमाशा, सबसे अधिक. पर यह नियम केवल पुरुष पर लागू होता है, क्योंकि इज्जत उसके शरीर में नहीं रहती. उसके शरीर को कोई भी देख ले, वह कितनी औरतों के साथ सहवास करे, उससे इसकी इज्जत बढ़ती है. उसकी पत्नी मरे तो और वह सती होने के सोचे, उसे सब पागल कहेंगे. औरत और मर्द शरीरों के लिए इस तरह भिन्न सामाजिक नियम बना कर, हर समाज और तबका, अपनी इज्जत के मापदंड तैयार करता है. मुस्लिम समाज में इसका अर्थ बुरका बन जाता है, पाकिस्तान की उत्तर पश्चिमी प्रदेश में बेटियों और बहनों को "इज्जत बचाने&

उत्तर विषेशज्ञ

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पत्रिकाओं में "दुखयारी मौसियाँ" (Agony Aunts) होती हैं जिन्हें आप पत्र लिख कर अपने दुखों के उत्तर माँगते हैं. हर विषय की विषेशज्ञ होती हैं यह दुखियारी मौसियाँ, हर तरह के प्रश्न पूछ सकते हैं. चाहे उत्तर देने वाला पुरुष ही हो, उसे आँटी बुलाना ही ठीक समझा जाता है, शायद क्योंकि अंकल जी इतने बुद्धिमान उत्तर नहीं दे सकते ? "मेरी शादी नहीं हो रही, मेरी नाक बहुत छोटी है उससे मुझमें हीनता की भावना आ रही है. मुझे लगता है नाक मेरी मर्दानगी की निशानी है और कोई लड़की मेरी तरफ कभी प्यार से नहीं देखेगी. मैं आत्महत्या की सोच रहा हूँ, अगर आप मेरे प्रश्न का उत्तर नहीं देंगी तो मेरे पास कोई और चारा नहीं होगा सिवाय इसके कि मैं कुतुब मीनार से कूद जाऊँ." इसका उत्तर मिलता है, "शादी बहुत झंझट की चीज़ है, आप शुक्र कीजिये कि आप इससे बचे हुए हैं. मुझसे ज़्यादा कौन जान सकता है, इसके बारे में? मेरे पहले ही दो तलाक हो चुके हैं और तीसरे की तैयारी में हूँ. अगर फिर भी आप आत्महत्या की सोचें तो मेरी सलाह होगी कि आप कुतुब मीनार के बारे में भूल जाईये. एक तो उसका टिकट बहुत महँगा है और दूसरे वहाँ से

पिंटर की आग

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सन २००५ का साहित्य के लिए नोबल पुरस्कार अंग्रेजी नाटककार, लेखक और राजनीतिक कार्यकर्ता हेरोल्ड पिंटर को मिला है. मुझे आम तौर पर नाटक पढ़ने में दिलचस्पी नहीं है, कभी विजय तेंदुलकर या मोहन राकेश का कुछ पढ़ा था, पर हेरोल्ड पिंटर का कोई नाटक न पढ़ा था न देखा था. उन्हें पहली बार देखा और सुना दिसम्बर २००४, करीब एक साल पहले जब उन्होंने बीबीसी के कार्यक्रम "हार्डटाक" में कहा कि श्री बुश और श्री ब्लेयर दोनो को युद्ध अत्याचार का अपराधी मान कर उन पर मुकदमा करना चाहिये. वे बहुत अच्छा बोलते हैं और केवल भावुकता की ही बातें या भाईचारे और न्याय की किताबी बातें करते हों, ऐसा नहीं, वह अपनी बात को साबित करने के लिए स्पष्ट विचार, तर्क और प्रमाण के साथ बात करते हैं. अगर आप चाहें तो उनका वह साक्षात्कार देख सकते हैं. नोबल पुरस्कार लेते समय भी उनका भाषण कम दमदार नहीं था. इस भाषण में एक तरफ तो उन्होंने अपने लेखन के तरीके की झलक दिखाई, तो दूसरी तरफ अपने राजनीतिक कार्यकर्ता होना का सक्षम परिचय दिया है. अपने नाटकों के चरित्रों के बारे में वह कहते हैं कि चरित्र एक बार बनने के बाद अपना स्वतंत्र जीवन ले लेते

सबसे बड़ी चिंता

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बेटे के विवाह की तारीख करीब आ रही है. २५ दिसम्बर को तीन सप्ताह के लिए भारत जाना है. सबसे बड़ी चिता है कि ब्रांदो का क्या होगा ? ब्रांदो यानि हमारा कुत्ता. है तो वह भोंदू, घर में आये किसी मेहमान पर नहीं भौंकता, बहुत छोटे बच्चों को छोड़ कर. हमें समझ नहीं आया कि क्यों वह छोटे बच्चों को देख कर कभी कभी भौंकने लगता है ? ऐसे में उन बच्चों के आहित माता पिता को मैं कहता हूँ कि छोटे बच्चे अक्सर इसकी पूँछ खींचते हैं इसलिए यह उनसे डरता है! एक सप्ताह का था जब वह हमारे घर में आया था. उस समय हमारे घर में एक बिल्ला भी था, श्रीमान मारलोन उर्फ माऊँ. जब कुत्ता आया तो उसे मारलोन का साथी बनाने के लिए हमें ब्रांदो नाम रखने में बिल्कुल हिचकिचाहट नहीं हुई. तब से वह हम सब का लाड़ला है. बहुत आज्ञाकारी है, कुछ भी कहो तो तुरंत करता है. कभी कभी बाग में सैर करते समय किसी एक रास्ते से जाने या न जाने पर अड़ जाता है और पैर जमा लेता है, हिलाने से नहीं हिलता (तब हम उसे अंगद जी बुलाते हैं). अगर बरसात हो रही हो और सैर पर जाने के लिए उसे रेनकोट पहनाया जाये तो नीचे मुँह करके काँपने सा लगता है (तब हम कहते हें कि यह तो सीता मैया

लंदन डायरी

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दोपहर को कुछ और काम नहीं था तो साउथहाल की तरफ निकल गया. अगर भारत गये हुए कुछ समय हो गया हो तो, मुझे भारतीय और पाकिस्तानी मूल के लोगों से भरे साउथहाल में आना बहुत अच्छा लगता है. कुछ खरीदना न भी हो तो दूकानों में हिंदी में बातचीत करने को मिलती है. हलकी हलकी बारिश हो रही थी और मैं छतरी नहीं ले कर गया था इसलिए अधिक नहीं घूमा. सड़क के किनारे फुटपाथ पर करोल बाग की तरह लोगों ने सड़क को घेर रखा है, जहाँ हर तरफ से भारतीय संगीत सुनाई देता है. सड़क पर यातायात का बुरा हाल है और कई कारों से तेज स्वर में भारतीय संगीत ही आता है. मुझे लगता है कि हम भारतीयों को गाड़ी में बैठ कर कहीं भी जाने की बहुत जल्दी होती है. लंदन में अगर आप सड़क पार करना चाहें तो अधिकतर पैदल पारपथ की धारियों के पास गाड़ियाँ अपने आप रुक जाती हैं जब कि भारतीय गाड़ी चलाने वाले इस नियम का पालन करने में कुछ कमजोर लगते हैं. मैंने साउथहाल से कुछ डीवीडी खरीदीं और एक भारतीय रेस्टोरेंट में खाना खाया और वापस होटल लौट आया. अभी रात को बहुत कागज़ देखने हैं, उनसे नींद भी जल्दी आ जायेगी. **** आज रात को सभा में आये सब लोग कोवेंट गार्डन में एक अफ्रीकी रेस

चिंडिया चमकेगी ?

कांग्रेस से आर्थिक विभाग के सदस्य जयराम रमेश ने अपनी नयी पुस्तक में एक नया शब्द बनाया है जो आने वाले सालों में शायद बहुत लोकप्रिय और जाना पहचाना बन जाये. यह शब्द है चिंडिया, यानि चीन और इंडिया को मिला कर नयी उभरती विश्व की महाशक्ति जिससे आज की विश्वशक्तियों, अमरीका, यूरोप, जापान को चिंता होने लगी है. कहते हैं कि अभी कुछ दिन पहले जब चीन के प्रधान मंत्री भारत यात्रा पर आया थे तो उन्होंने कहा कि चीन विश्व का हार्डवेयर बादशाह बनेगा और भारत सोफ्टवेयर की रानी. एक शरीर की हड्डी और माँस पेशियाँ देगा और दूसरा उन्हे चलाने के लिए दिमाग. यानि, चीन और भारत का भविष्य एक दूसरे के विरुद्ध सोचना नहीं होना चाहिये, बल्कि उनके परस्पर संबंधों की प्रेरणा होनी चाहिये, भारतीय अर्धनारीश्वर या चीनी यिन और यांग, साथ मिल कर वह इतने मजबूत हो जायें कि उनके सामने कोई अन्य न टिक पाये. इसी से विश्व महाशक्तियों के नीतिज्ञ इस समस्या का विवेचन कर रहे हें और इससे निपटने के मंसूबे बना रहे हैं. इतालवी पत्रिका लीमुस जो अंग्रेजी में भी इक पत्रिका निकालती है " हार्टलैंड ", ने अपना एक पूरा अंक "चिंडिया" पर ह

साईकल छाप

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मुझे अपनी पहली साईकल मिली जब मैं आठवीं कक्षा में पहुँचा. मेरा विद्यालय अंग्रेजों के जमाने का था. कहते थे कि अंग्रेजों के जमाने में सर्दियों में कक्षाएँ दिल्ली में लगतीं और गर्मियों में शिमला में. बिरला मंदिर से जुड़ा हुए विद्यालय का नाम ऐसा कि विद्यालय शब्द उस के साथ ठीक नहीं बैठता, हारकोर्ट बटलर स्कूल. अन्य विद्यालयों के बच्चे हमें छेड़ने के लिए बटलर यानि खानसामा बुलाते. श्रीमान बटलर जी १९१८ में उत्तरप्रदेश के राज्यपाल नियुक्त हुए थे और उनके नाम से कई संस्थाएँ बनी हैं. बेचारी हिंदी और बेचारा भारत वर्ष, आज से पचास पहले भी अंग्रेजी बोलने और कोनवेंट स्कूलों में पढ़ने का ही रोब था इसलिए जब किसी को स्कूल का नाम बताते, अच्छा असर पड़ता था. खैर बात को वापस अपनी साईकल की ओर ले चलते हैं. मेरे सभी मित्रों के पास साईकल ही थी, एक साथ मिल कर पढ़ने और घूमने जाते. कितनी भी दूर क्यों न जाना हो, जब तक साईकल थी, कुछ अन्य चिंता नहीं होती थी. नयी दिल्ली की बहुत सी सड़कें जो आज दुगनी या तिगुनी चौड़ी हो कर भी, यातायात से नयी टथपेस्ट की तरह भरी रहती हैं, उस समय साईकलों पर घूमने के लिए बहुत अच्छीं थीं. न भीड़ भड़क्का,