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इच्छा मृत्यु या हत्या ?

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संजय लीला भँसाली की फ़िल्मों से अन्य जो भी शिकायत हो, उनके मौलिक कलात्मक अंदाज़ को, तथा उसकी सौंदर्यपूर्ण और संवेदशनशील अभिव्यक्ति को, नहीं नकारा जा सकता. उनकी फ़िल्मों के विषयों की प्रेरणा तो अक्सर विश्व सिनेमा से मिली लगती है, लेकिन फ़िल्म को कहने का तरीका उनका अपना है. मेरे विचार में उनकी फ़िल्मों की विशेषता है कि उनमें एक ओर मानव भावों को प्रधानता दी जाती है, दूसरी ओर उन भावनाओं की संकेतात्मक अभिव्यक्ति करने के लिए अक्सर वह कोई विशेष वातावरण बनाते हैं जिसमें प्रकृति, रंग, भवन वास्तुकला, संगीत आदि, कला के हर पक्ष को वह खोज कर गढ़ा जाता है. इस तरह उनकी फ़िल्मों का वातावरण भव्य, सुंदर और भावपूर्ण तो होता है, पर साथ ही, अगर सोच कर देखा जाये तो नकली या नाटकीय भी. यह तो उनकी कला अभिव्यक्ति की व्यक्तिगत शैली है, जो विषेशकर पिछली कुछ फ़िल्मों में गहरी हो गयी है. कोई कलाकार अपनी कला की अभिव्यक्ति के लिए किस शैली को चुनता है, यह तो उसका निजि निर्णय है, लेकिन मुझे लगता है कि बहुत से आलोचक उनकी फ़िल्मों को केवल इस शैली के मापदँड से देख कर उनकी आलोचना लिखते हैं, उसके परे नहीं जा पाते. "

यादों के दर्पण

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जुगनू जी को घर पर पहली बार कब देखा, यह ठीक से याद नहीं. पापा से जुड़े नवजवानों को हम लोग घर में "शिष्य" कहते थे, जुगनू शारदेय जी उनमें से ही थे. यह उनकी पहली तस्वीर हमारे दिल्ली के राजेन्द्र नगर वाले घर से है जो शायद 1984 में खींची गयी थी. पिछले सालों में बीच बीच में उनसे मुलाकात होती रही है. पिछले वर्ष से उनकी तबियत ठीक नहीं चल रही थी, लेकिन कुछ सप्ताह पहले जब वह मिले तो उनका स्वास्थ्य कुछ ठीक लगा और बहुत अच्छा लगा. यह दूसरी तस्वीर इसी मौके से है. उनको शुभकामनाओं के साथ, आज उनका एक पुराना लेख प्रस्तुत है जो उन्होंने करीब चालिस साल पहले लिखा था और "जन" पत्रिका में छपा उनका पहला आलेख था. यादों के दर्पण में सिमटा हुआ अतीत (आत्मकथा, ख़ान अब्दुल गफ़्फ़ार खाँ , हिन्द पाकेट बुक्स, शाहदरा दिल्ली) एक सीधे साधे और सच्चे आदमी ने अपनी कहानी, अपनी ही जुबानी प्रस्तुत की है. न लाग, न लपेट, सिर्फ मन की पीड़ा, अतीत के स्मरण और भविष्य का सपना. इस इन्सान को हिन्दुस्तान की पुरानी पीढ़ी भूल गयी है और जिन्हें उसकी याद है वे विवश हैं और नयी पीढ़ी जो इतिहास कक्षाओं में पढ़ती ह

चर्चा - भाषा की पूजा

कुछ दिन पहले 1967 की "जन" पत्रिका में छपा, हिन्दी लेखक और विचारक श्री रघुवीर सहाय के हिन्दी भाषा के बारे में लिखे आलेख को " भाषा की पूजा " के नाम से प्रस्तुत किया था. आज प्रस्तुत है इसी आलेख के बाद में हुई चर्चा की रिपोर्ट जिसमें हिन्दी लेखन जगत के बहुत से जाने माने नाम इस बहस पर और रघुवीर सहाय के आलेख के बारे में, हिन्दी या प्रान्तीय भाषाएँ या अँग्रेजी के विषय पर कहते हैं. इन नामों में हैं श्रीकांत वर्मा, मुद्राराक्षस, मनोहर श्याम जोशी, नेमीचन्दर जैन, इत्यादि. यह रिपोर्ट श्री रमेश गौड़ ने तैयार की थी. चर्चा श्री नेमिचन्द्र जैनः लेख में स्वतः सिद्ध प्रकार के वक्तव्य हैं. भावुक अभिव्यक्ति और चिन्तन का यह एक नमूना है. सभी मातृभाषाएँ इस्तेमाल की जायें तो समस्या सुलझ जायेगी, इस तरह की धारणा लगती है जो गलत है. श्री विनय कुमारः  यह मान लिया गया है कि राजनीतिक ही अन्ततः भाषा के सम्बंध में निर्णय करेगा. भाषा की सड़न आदि के लिए केन्द्रीय सत्ता या सत्ताधारी दल को ही ज़िम्मेदार माना गया है. वास्तव में समस्या अधिक व्यापक है. सुविधा प्राप्त ऊँची हैसियत का पूरा वर्ग स्थित