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अप्रैल, 2008 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

लेखक का संसारः लाल्टू

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जनवरी 2008 में हैदराबाद में जाने माने हिंदी लेखक और कवि लाल्टू से मुलाकात हुई. उस बातचीत के कुछ अंश जो मैंने रिकार्ड किये थे, वह प्रस्तुत हैं. मैं कविता क्यों लिखता हूँ? बहुत पहले दैनिक भास्कर का एक चंडीगढ़ संस्करण होता था; वहाँ हमारे एक मित्र थे अरुण आदित्य. उन्होंने एक विषेशांक निकाला था कि हम लोग कविता क्यों लिखते हैं. बहुत से लोगों से उन्होंने यह प्रश्न पूछा था. मैंने इस बात पर सोचा तो मुझे लगा कि हम कविताएँ इस लिए लिखते हैं क्योंकि हम जीवन से प्यार करते हैं, हम प्रकृति से प्यार करते हैं, हम आदमी से प्यार करते हैं और प्यार ही हमारे लिए विद्रोह का एक स्वरूप है. मुझे लगता है कि आधुनिकता के जिस संकट में हम लोग फँसे हुए हैं जहाँ जीवन कहीं कई तहों में, कई सतहों में, अनगिनत संकटों में उलझा हुआ है, ऐसे माहौल में प्यार ही ऐसी चीज़ है जो सबसे ज़्यादा संकट में है. किसी तरह, जो दूसरों के प्रति हमारे अंदर जो प्यार की भावना है, उसको अभिव्यक्त कर पायें यह हमारी कविताओं में कोशिश होती है. जब हम किसी राजनीतिक विषय पर भी लिखते हैं, मूलतः हमारे अंदर एक ऐसा शख्स चीख रहा है, जिसे लगातार प्यार की ज़रुरत

नहीं उदास नहीं

"बस ये चुप सी लगी है, नहीं उदास नहीं. सहर भी है रात भी है, दोपहर भी मिली लेकिन, हमने शाम चुनी है. नहीं उदास नहीं." जाने क्यों बार बार यही शब्द मन में बार बार लौट आते हैं. मन में एक तस्वीर उभरती है, छत वाले बंद कमरे में कैद घुघी, इधर से उधर पँख फड़फड़ाती हुई, रोशनदान के शीशे से टकराती, चारपाई के नीचे छुप जाती है. जब थक कर हाथ में आती है तो उसके दिल की धड़कन महसूस होती है. धक धक, धक धक. नहीं उदासी नहीं, बस चुप्पी सी है. बात नहीं करो कोई. नहीं सुनना कोई गाना. नहीं देखनी कोई फ़िल्म. किताब के अक्षर पढ़े तो जाते हैं पर समझ नहीं आते. बार बार आँखें शब्दों को देखती हैं और सामने कोई और चेहरे आ जाते हैं. बाग में अकेला बैठा लड़का, हाथ में मोबाईल फ़ोन को टक टकी लगाये देख रहा है. मानो मन ही मन उसे घँटी बजाने के लिए प्रार्थना कर रहा हो. कुत्ते के साथ घूमने निकला जोड़ा भी मोबाईल पर ही लगा है. युवक अपने मोबाईल पर किसी से बात कर रहा है, उसकी साथी अपने मोबाईल पर किसी और के साथ बात कर रही है. रोमेयो नाम है उनके कुत्ते का. रोमेयो याने रोमियो, रोमियो जूलियट वाला. इतालवी भाषा में रोमियो को रोमेयो ही कहते

चाँदनी चौक से सनफ्राँसिस्को

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कोई ऐसे शहर भी होते हैं जहाँ जा कर बहुत से दूसरे शहरों की याद आती रहती है. या फ़िर शायद यह यायावर की नियति है कि जितना अधिक घूमोगे, उतना ही पाओगे कि हर जगह में पुरानी यादें उतनी अधिक उभरेंगीं. कुछ ऐसा ही लगा इटली के उत्तरी पश्चिम तट पर बसे शहर जेनोवा जा कर. पिछले तीन चार सालों से, जब से डिजिटल कैमरे से तस्वीरें लेने का शौक पाला है, शहरों में घूमने का मेरा तरीका ही बदल गया है. काम के सिलसिले में यात्राएँ तो पिछले बीस साल से लगातार चल रहीं हैं पर पहले कहीं जाता तो अधिकतर काम से ही काम रखता, बाहर घूमने कम ही जाता. कई बार ऐसा हुआ कि नये देश में जा कर भी, केवल हवाई अड्डे से होटल तक या सभा स्थल तक जाने का रास्ता देखा, और कुछ नहीं देखा. अब तस्वीरें खींचने का इतना शौक है कि हमेशा यही कोशिश रहती है कि कैसे काम से थोड़ी सी भी फुरसत मिले तो कुछ न कुछ देखने का कार्यक्रम बने. जेनोवा पहले चार पाँच बार जा चुका था पर शहर के बारे में कुछ नहीं मालूम था, न ही कोई जगह देखी थी. इस बार तीन दिन का ठहरने का कार्यक्रम था, कानफ्रैंस थी भी सागर तट पर पुराने बंदरगाह पर, जैसे ही कुछ समय खाली मिलता तुरंत बाहर घूमने

फ़ुल गेंदवा न मारो

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शायद यहाँ बसंत का मौसम है इसलिए या न जाने क्यों, अचानक मन में गीत के शब्द आयेः "फ़ूलों के रंग से दिल की कलम से तुझको लिखी रोज़ बाती ..." , फ़िल्म थी प्रेमपुजारी और इसे गा रहे थे देवआनंद. साथ में थी वहीदा रहमान और जाहिदा. जैसे अक्सर विचारों के साथ होता है, बात शुरु कहाँ से होती है और कहाँ जाती है, पता नहीं चलता. सोचा फ़ूलों से शुरु होने वाले अन्य कौन से गाने हैं? दो अन्य गाने तो तुरंत याद आ गयेः "फ़ूलों का तारों का सबका कहना है, एक हज़ारों में मेरी बहना है", यह भी देवआनंद साहब की फ़िल्म थी "हरे रामा हरे कृष्णा", साथ में थीं मुम्ताज़ और ज़ीनत अमान. और, "फ़ूलों ने कहा कलियों से, कलियों ने कहा भँवरों से...". यह कौन सी फ़िल्म का है, यह नहीं मालूम. फ़िर बहुत सोच कर याद आया, "फ़ुल गेदवा न मारो, न मारो लगत कलेजवा में चोट..". यह कौन सी फ़िल्म से है, यह भी याद नहीं पर शायद महमूद पर फ़िल्माया गया था. बस, और कोई गीत याद नहीं आता जो फ़ूल शब्द से शुरु होता हो. अगर आप में से किसी को कोई ऐसा गीत मालूम हो तो मुझे बताईयेगा. साथ ही कुछ फ़ूलों की तस्वीरें

शोर्य का अर्थ

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समर खान की नयी फ़िल्म "शोर्य" बार बार यही प्रश्न पूछती है कि शोर्य का क्या अर्थ है और इस प्रश्न का अपना उत्तर फ़िल्म के अंत में शाहरुख खान की आवाज़ में देती है, कि शोर्य का अर्थ है निर्बलों की, जिनकी आवाज़ न हो, उनकी रक्षा करना. फ़िल्म के बारे में कुछ अच्छा सुना पढ़ा था इसलिए शायद मन में आशाएँ अधिक थीं जिन पर यह फ़िल्म पूरी नहीं उतरी. फ़िल्म की कहानी है सिद्धांत और आकाश की, जो आर्मी में मेजर हैं और वकील भी, और पक्के दोस्त भी. दोनो अपने आप को एक मुकदमें में पाते हैं जिसमें गुनाहगार है कप्तान जावेद खान जिसने अपने एक साथी राठौर का खून किया है, उस पर आरोप है कि वह आतंकवादियों का साथी था, राठौर द्वारा पकड़े जाने पर उसने राठौर को मार दिया. आकाश हैं आरोप पक्ष का वकील और सिद्धांत हैं बचाव पक्ष का वकील. साथ में हैं एक पत्रकार काव्या शास्त्री जो जावेद की कहानी को समझना चाहती है. जावेद जी स्वयं अपने बचाव में कुछ नहीं कहते हैं और चुपचाप आरोप को स्वीकार करने के लिए तैयार हैं. आर्मी के उच्च अधिकारी ब्रिगेडियर प्रताप चाहते हैं कि जावेद को कड़ी से कड़ी सजा मिले. पर सच्चाई कुछ और है और कैसे सिद्ध

हाथ न लगाना

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इटली में गर्भपात के विषय में बात करना कभी कभी कठिन हो जाता है, यहाँ तक कि डाक्टर या नर्स तक इस विषय में बात नहीं करना चाहते. कैथोलिक धर्म में गर्भपात को पाप मानते हैं और कैथोलिक प्रधान देशों में बहुत समय तक किसी भी हालत में गर्भपात की अनुमति नहीं होती थी. आज भी कुछ देश जैसे कि आयरलैंड, निकारागुआ जैसे देशों में गर्भपात नहीं हो सकता, तब भी नहीं जब माँ की जान को खतरा हो या बच्चा बलात्कार का नतीजा हो या बच्चे को कोई बीमारी हो. मैं सोचता हूँ कि जैसे भारत में हिंदु धर्म में गौ मास खाने के प्रति गहरी सामाजिक धारणाएँ हैं, कैथोलिक समाज में गर्भपात के विषय पर भी कुछ कुछ वैसा ही है और जब कोई बात हमारी भावनाओं से गहरी जुड़ी हो उस विषय पर बहुत से लोग तर्क या बिना तर्क, किसी बात को नहीं सुनना चाहते. कैथोलिक धर्म में परिवार नियोजन यानि कण्डोम या गोलियों के उपयोग से स्त्री का गर्भवति होने से बचने को भी गलत माना जाना है. जब समाज में किसी विषय पर इस तरह को सोच हो तो उस पर खुल कर बात करना कठिन हो जाता है. बींसवीं सदी में बदलते इतालवी समाज ने सेक्स और बच्चा पैदा करना, इन दोनो बातों को अलग कर दिया. युवतियाँ

खुरदरी आवाज़ का जादू

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बेटे ने इंटरनेट से खोज कर राहुलदेव बर्मन के संगीत वाली बहुत से फ़िल्मों का संगीत डाउनलोड कर के दिया, उनमें कुछ बँगाली संगीत भी था. कुछ अलग सुनने को मिलेगा सोच कर उनमें से कुछ बँगला गाने मैंने अपने आईपोड में डाले. साईकल पर जा रहा था संगीत सुनते हुए कि अचानक बहुत सालों के बाद वह खुरदरी, मस्त आवाज़ सुनी जिसका कभी दीवाना था, यानि कि उषा उत्थप की आवाज़. मुझे जहाँ तक याद था वह दक्षिण भारत की रहने वाली थीं और अँग्रेज़ी में गाने गाती थीं. फ़िर उन्होंने कुछ हिंदी फ़िल्मों में हिंदी गाने भी गाये थे, पर वह बँगाली में भी गाती हैं, यह नहीं सोचा था. उनका बँगला गाना "मानो, मानो ना.." बहुत बढ़िया लगा. फ़िर सुना "शुखो नाईं गो गो गोपाले" तो और भी अचरज हुआ, बँगाली शब्द और दक्षिण का कर्नाटक संगीत एवं धुन, मज़ा आ गया. साठ-सत्तर के दशकों में उनकी बड़ी गोल बिंदी, भारी आवाज़, खुल कर पटाखे फटने जैसी हँसी, साड़ी पहने हुए अँग्रेजी गाना गाती वे, अज़ीब सी भी लगतीं और आकार्षित भी करतीं. तभी अंग्रेजी के उपन्यास पढ़ने शुरु किये थे और दिल्ली बी रेडियो स्टेशन पर "ए डेट विद यू" और "फोर्सिस

अपनी बात कहने का अधिकार

इतालवी राष्ट्रीय चुनाव होने वाले हैं और आजकल हर तरफ़ चुनाव रैलियाँ हो रहीं हैं. इसी तरह की एक रैली में दो दिन पहले हमारे शहर बोलोनिया में श्री जूलियानो फैरारा आये. फैरारा जी पत्रकार हैं, एक समाचार पत्र के सम्पादक हैं, टीवी पर कार्यक्रम भी करते हैं और पहले बहुत समय तक इतालवी उद्योगपति और पूर्व प्रधानमंत्री बेरलुस्कोनी के दल में थे. अब उन्होंने अपनी पार्टी बनायी है "जीवन का अधिकार पार्टी" जिसका प्रमु्ख ध्येय है कि देश में गर्भपात न करा सकने का कानून बनना चाहिये क्योंकि उनका कहना है कि जीवन का अधिकार सबसे बड़ा और ऊपर है, और किसी को दूसरे का जीवन लेने का हक नहीं, किसी न पैदा हुए बच्चे का भी नहीं. उनके दल को तुरंत पोप द्वारा समर्थन भी मिला है पर आम जनता उनके प्रति कुछ उत्साह नहीं दिखा रही. बोलोनिया में उनकी रैली में करीब एक हज़ार औरतों और नवजवानों ने उनका बहुत उत्साह से स्वागत किया, उन पर सिक्के, टमाटर और अँडे फ़ैंके और स्टेज पर चढ़ कर उनको बोलने से रोकने की कोशिश की. मारामारी में लाठियाँ चलीं, कुछ लोग घायल हुए और फैरारा जी को पुलिस संरक्षण में वापस जाना पड़ा. पिछले कुछ समय से इटली म

ऊँट बनने के सपने

जब समाचार पढ़ा कि आबु धाबी में ऊँटों की प्रतियोगिता हुई और सबसे सुंदर ऊँट को पाँच करोड़ का ईनाम मिला तो अपने लड़कपन के दिन याद आ गये. एक तो दुबला पतला था, उस पर किशोर होते होते अचानक लम्बाई बढ़ने लगी. इतनी लम्बी गर्दन लगती थी कि माँ कहती, "इतना बड़ा ऊँट सा हो गया पर अक्ल हमेशा घास चरने में लगी रहती है." सुन कर मन को बहुत दुख पहुँचता, मन में आता कि कैसे मोटा हुआ जाये, और यह ऊँट सी गर्दन कुछ छोटी लगे. एक पत्रिका में पढ़ा कि दूध और केला खाने से शरीर अधिक तंदरुस्त होता है और वज़न बढ़ता है, तो सुबह दूध के साथ केला खाना शुरु कर दिया. तब बेचारे ऊँटों को कौन पूछता था और ऊँट कहलाने का अर्थ था कि स्वयं को बदसूरत समझना. आज जब स्वयं को हाथी के रूप में देखता हूँ तो समझ में आता है कि शायद ऊँट होना उतना बुरा भी नहीं था. सुबह जब पत्नी दोपहर के खाने के लिए सलाद देते हुए कहती है कि तुम्हारा वज़न बहुत बढ़ गया है, आज खाने में केवल सलाद ही खाओ तो समझ में आता है कि ऊँट होना कितना सुखदायक हो सकता है. और जब यह पढ़ा कि सुंदर ऊँट को पाँच करोड़ का ईनाम मिला तो लगा काश हम भी ऊँट प्रतियोगिता में इतराते, हमारी भी त