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जुलाई, 2007 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

शाहरुख का कमाल

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इटली में हिंदी सिनेमा के बारे में बहुत कम जानकारी है. एक तरफ है समानान्तर सिनेमा जो हमेशा से ही फिल्म फेस्टिवलों के माध्यम से जाना जाता है, इसकी जानकारी इटली में भी है. नसीरुद्दीन शाह, शबाना आज़मी जैसे कलाकारों को इन समाराहों में जाने वाले लोग जानते हैं, पर आम व्यक्ति को इसकी जानकारी न के बराबर है. फिल्म समारोहों में आने वाली फिल्में विभिन्न शहरों में "सिनेमा द एसाई" यानि प्रायोगिक सिनेमा नाम के कुछ सिनेमाघर होते हैं जहाँ दिखाई जाती हैं. इस तरह के सिनेमाघरों में नारी भ्रूण हत्या के विषय पर बनी "मातृभूमि" पिछले वर्ष बहुत देखी तथा सराही गयी. पर बात वहीं तक आ कर रुक जाती है, यानि थोड़े से लोग जिन्हें गम्भीर सिनेमा पसंद है वह वहाँ यह फिल्में देखते हैं. आम लोग जो सिनेमाहाल में फिल्म देखने जाते हैं उन्हें भारतीय फिल्मों के बारे में कुछ नहीं मालूम. इस बारे में पिछले कुछ वर्षों में कुछ बदलाव आने लगा है. कुछ वर्ष पहले शाहरुख कान की फिल्म "अशोक" वेनिस फिल्म फेस्टिवल के समय दिखायी गयी हालाँकि वह पुरस्कार प्रतियोगिता में नहीं थी. पर वेनिस फिल्म फेस्टिवल ने लोकप्रिय हि्

बाहर से बुढ़ऊ, भीतर से हृतिक रोशन

मन में चाहे आप अपने आप को जैसा भी सोचें, लोग तो आप की उम्र ही देखते हैं. और फ़िर सच भी है कि बाल सफ़ेद होने के साथ साथ शरीर याद दिलाने लगता है कि इस संसार की चीज़ो से बहुत अधिक मोह बनाना ठीक नहीं. कभी बैठने लगो तो अचानक कमर में दर्द होने लगता है, कभी बैठ कर उठो तो हाथ कोई सहारा खोजते हैं, नीचे ज़मीन पर बैठना पड़े तो कामेडी फ़िल्म का दृश्य लगता है. कभी टाँगे इधर रखो, कभी उधर, कहीं चैन नहीं आता और पीठ किसी दीवार के सहारे के सपने देखती है. कुछ तो सफ़ेद बालों ही का विचार करके गम्भीर दिखने की कोशिश करनी पड़ती है वरना लोग कहे कि यह बूढ़ा तो बहुत मस्त है. कुछ काम का तकाजा भी है, जो तभी प्रारम्भ हो गया था जब डाक्टरी की पढ़ाई चल रही थी. मेडिकल कोलिज में आपस में जितना भी दँगा फसाद कर लीजिये, बाहर वालों के सामने तो शराफत और गम्भीरता ही दिखानी पढ़ती है. जैसे जैसे साल बीतते जाते हैं, यह गम्भीरता का चश्मा और मोटा बनता जाता है. बचपन से मुझे गाने का बहुत शौक था. वैसे तो परिवार में मुझसे अच्छा गाने वाले कई लोग थे और शायद इसीलिए घर परिवार में शादी या पार्टी के मौके पर मुझे गाने के निमत्रण नहीं मिलते थे पर स्

गर्मियों की एक संगीतमय शाम

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काम जल्दी जल्दी समाप्त किया और घर लौट आया क्योंकि रात को एक संगीत कार्यक्रम में भारत से आये त्रीलोक गुर्टू को सुनने जाना था. ऐसे ही एक कार्यक्रम में कुछ दिन पहले भी गया था, इतनी अधिक भीड़ थी कि कुछ दिखाई नहीं दिया, बस दूर से स्टेज पर नृत्य करते लोग रोशनी के बिंदू जैसे दिख रहे थे. बैठने की जगह भी नहीं थी और लोगों के कँधों के पीछे से उचक उचक कर देखने से थोड़ी देर में थक कर कार्यक्रम को छोड़ कर वापस घर आ गया था. इसलिए सोचा कि इस बार कम से कम एक घँटा पहले पहुँच कर कुछ आगे की कुर्सी खोजी जाये. सँगीत का यह कार्यक्रम शहर के बीचों बीच पुराने भाग में हो रहा है जहाँ करीब 1700 वर्ष पुराना एक गिरजाघर है. वहाँ पर कार में जाना मना है इसलिए बस में जाना था. तैयार हो रहा था कि अचानक टेलिफोन आया. एक युवती की आवाज थी बोली की नगरपालिका के संस्कृति विभाग से बोल रही थी और शाम के समारोह के लिए मुझे मेयर की तरफ से निमत्रँण था. यानि इसबार कोई धक्का मुक्की नहीं बल्कि स्टेज के सामने पहली पँक्ति में शहर के जाने माने लोगों के साथ बैठ कर कार्यक्रम देखने का मौका मिल रहा था. मुश्किल से स्वयं पर काबू करके, मैंने यूँ दिखा

रँग दे, मोहे रँग दे - स्वयं की तलाश

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"आप ने तो मेरा दिल ही तोड़ दिया", वह बोली. मैंने उससे कहा था कि उसे ठीक से जानने से पहले मुझे उससे कुछ डर सा लगता था. उसका सिर गँजा है, केवल सिर के बीचों बीच बालों की लाल रँग की मुर्गे जैसी झालर है, कानों में, नाक में, होठों के नीचे, जीभ पर रँग बिरँगे पिन हैं, बाहों पर डिज़ाईन गुदे हैं. जब भी कोई भारतीय साँस्कृतिक कार्यक्रम हो, वह अवश्य आती है, साथ में अपना कुत्ता लिये, अपने जैसे साथियों के साथ. जहाँ वे लोग बैठते हैं, आसपास कोई नहीं बैठना चाहता, सब लोग दूसरी ओर हट जाते हैं. उन्हें देख कर मन में ईण्लैंड और जर्मनी के गँजे सिर वाले स्किन हैडस (skin heads) की छवि बनती थी, जो अक्सर प्रवासियों पर हमले करते थे, उन्हें मार कर अपने देशों में वापस लौट जाने को कहते थे. यहाँ बोलोनिया में उन्हें पँका-आ-बेस्तिया (Punk-a-bestia) कहते हैं, यह शब्द अँग्रेजी के पँक और इतालवी का बेस्तिया यानि जानवर को मिला कर बना है. उसे भारतीय संस्कृति से बहुत लगाव है. "देखो मेरी पीठ पर मैंने ॐ लिखवाया है", उसने मुझे दिखाया. उसे शिकायत थी कि मैं भी अन्य इतालवी लोगों की तरह उसके बाहरी रूप पर ही रुक गया

मैं पिता हूँ या माँ?

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यहाँ के स्थानीय समाचार पत्र में दो बातों ने ध्यान खींचा. एक तो था पूरे पृष्ठ का विज्ञापन, जिस पर बड़ा बड़ा लिखा था, "साहसी पिता - पुरुष जो बदलते हैं, दुनिया बदल सकते हैं". विज्ञापन का ध्येय है कि घर के कामों का बोझ केवल स्त्री पर नहीं होना चाहिये बल्कि पुरुष को घर के उन कामों में हाथ बँटाना चाहिये जो अधिकतर लोग "नारी कार्य" के रूप में देखते हैं जैसे कि सफाई करना, कपड़े धोना, बच्चों की देख भाल करना और उनके साथ खेलना. दूसरी ओर एक समाचार अमरीका से भी था, "थरथराईये, सुपर पिता आ रहे हैं", यानि वे नव पिता जो अपने पिता होने को बहुत गम्भीरता से लेते हैं, इतनी गम्भीरता से कि वह माँ को कुछ नहीं करने देते और बच्चे के सभी काम स्वयं करते हैं. उन्होंने इन पिताओं को "Mom blocker" यानि कि माँ को रोकने वाले बुलाया है. बच्चे के बारे में छोटे बड़े सभी निर्णय वह स्वयं लेते हैं और माँ को बीच में दखलअंदाज़ी की अनुमति नहीं देते. इन पिताओं का ही एक उदाहरण हैं श्री ग्रेग एलन जिनका चिट्ठा है डेडीटाईपस ( Daddytypes ) और जो स्वयं को सुपरमामो (Supermammo)कहते हैं, यानि माँ से बढ़

अगर आप अविवाहित हैं

अगर आप की शादी नहीं हुई और शादी करने की सोच रहें हैं तो फटाफट कल सात जुलाई को अपनी शादी करिये. यह सलाह दे रहें हैं दुनिया भर के न्यूमोरोलोजिस्ट यानि अँकों के हिसाब से भविष्य बताने वाले. क्यों? क्यों कि कल 07/07/07 तारीख है और सात बहुत शुभ अंक है. सात दुनिया के आश्चर्य हैं, सात तारे हैं सप्तऋषी में, यह कहना है उनका. शादी का सबसे बढ़िया महूर्त है सुबह सात बजे और शाम को सात बजे. लोगों ने इस दिन विवाह करने के लिए शादी के हाल, गिरजाघर आदि की बुकिंग कई साल पहले से कर रखी थी. लास वेगास में बुकिंग का जोर अन्य जगहों से अधिक है. लिटिल व्हाईट वेडिंग चेपल में सामूहिक विवाह होंगी, जिसमें हर बार में सात युगल एक साथ विवाह बँधन में बधेंगे, शादी की फीस होगी 77 डालर और गिरजाघर इसी फीस में शादी के साथ साथ उन्हें सात फ़ूलों का गुलदस्ता देगा और सात मुफ्त फोटो भी. खैर अगर आप सो रहे थे और आप इस दिन अपनी शादी पक्की करना भूल गये तो घबराईये नहीं, अगले साल दो विषेश दिन हैं विवाह के लिए 06/07/08 और 08/08/08. यह उन्होंने नहीं कहा कि 6,7,8 अंक साथ आने का क्या विषेश पवित्र अर्थ है? शायद भगवान को पत्तों का शौक है और इ

गुँडागर्दी का इलाज

अँग्रेजी अखबार द फाईनेंशियल टाईमस में एक चिट्ठी छपी जिसमें फिल्मों में बढ़ती हुई मार काट और हिँसा के बारे में चिंता व्यक्त थी. अखबार के एक लेखक श्री टिम हारफोर्ड ने इस पत्र के उत्तर में लिखाः "यह आवश्यक नहीं कि हिँसक फिल्मों से समाज में हिँसा पैदा होगी. जब गुँडे या मारधाड़ करने वाले लोग हिँसक फिल्म देखने जाते हैं तो न बियर पीते हैं न आपस में मार पिटाई करते हैं. दो अर्थशास्त्री, गोर्डन डाह्ल और स्टेफानो देला वीन्या ने एक शोध में पाया है कि जब मल्टीपलैक्स में हिँसक फिल्में दिखाई जाती हैं, तो आसपास के इलाके में शाम से ले कर सुबह तक के समय में अपराध कम हो जाते हैं. पर अगर कोई रोमानी फिल्म दिखाई जाती है, तो गुँडा टाईप के लोग पब में जा कर अधिक बियर पीते हैं और उनके मार पिटाई करने का अनुपात बढ़ जाता है. डाह्ल और वीन्या के शौध के अनुसार, हिँसक फिल्में अमरीका में प्रति दिन, कम से कम 175 अपराध कम करने में मदद करती हैं." यानि कि आप के शहर में गुँडागर्दी अधिक हो तो, सिनेमा हाल वाले से कहिये कि जितनी हिँसा से भरी फिल्म दिखा सकता है दिखाये. पर इस शौध से यह पता नहीं चलता कि यह बात केवल अमरीका

टिप्पणियों की धूँआधार बारिश

आज हिंदी अभिनेता आमिर खान का चिट्ठा देखा, द लगान ब्लोग ( The Lagaan Blog ). 29 जून को उन्होंने चिट्ठा लिखा "घजनी" के शीर्षक से, और इन दो दिनों में इस चिट्ठे को मिली हैं 766 टिप्पणियाँ, वह भी छोटी मोटी टिप्पणियाँ नहीं कि किसी ने एक दो वाक्य लिखे हों, बल्कि कई लोगों की टिप्पणियाँ चिट्ठे से अधिक लम्बी हैं. यह सच भी है कि जाने पहचाने प्रसिद्ध लोग क्या कहते हैं, क्या सोचते हैं, कैसे वे फ़िल्मे बनती हैं जिनके हम सब दीवाने होते हैं, यह सब बातें बहुत दिलचस्प लगती हैं और सुप्रसिद्ध अभिनेता द्वारा लिखी बात पढ़ना, फ़िल्मी पत्रिकाओं में छपे साक्षात्कारों से अधिक दिलचस्प लगता है. पर अगर आमिर खान की तरह अन्य जनप्रिय अभिनेता और अभिनेत्रियाँ अगर चिट्ठे लिखने लगेंगे तो फ़िल्मी पत्रिकाँए कौन पढ़ेगा? पर शायद इसका खतरा अधिक नहीं क्योंकि मेरे विचार में ढँग से चिट्ठा लिखने के लिए कुछ दिमाग चाहिये और मुझे जाने क्यों लगता है कि बहुत से प्रसिद्ध अभिनेता फ़िल्में में ही अच्छे लगते हैं, उनकी बातें सुन कर मन में बनी उनकी छवि टूट सकती है. अधिकतर अभिनेताओं का आत्मकेंद्रित जीवन बोर करने वाला लगता है. और अगर