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अगस्त, 2005 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

एक रुपइया बारह आना

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कल कार में "चलती का नाम गाड़ी" फिल्म का यह गीत सुन कर मन में उन दिनों की याद आयी जब पैसों के नाम पाई, धेला, टका और आने होते थे. आज भी कितने पुराने तरीके हैं बोलने के जिनमें वो दिन अभी भी जिंदा हैं. "मैं तुम्हारी पाई पाई चुका दूंगा" या फिर "दो टके का आदमी" और "बात तो सोलह आने सच है", जैसे वाक्य शायद अब लोग कम ही समझते होंगे ? क्या कभी कभी कोई पूछता भी है कि इस तरह के शब्द कहां से आये ? पाई, धेला और टका में से कौन सा बड़ा है और कौन सा छोटा, मुझे नहीं याद. मेरे ख्याल से १९६० के आसपास भारतीय प्रणाली बदल कर रुपये और पैसे वाली बन गयी थी. मुझे कथ्थई रंग का सिक्का जिसके बीच में छेद था और एक आने के चकोर सिक्के की थोड़ी सी याद है. एक आना यानि ६ पैसे, चवन्नी यानि चार आने, अठन्नी यानि आठ आने और सोलह आने का रुपया जिसमें ९६ पैसे होते थे. शायद अब ये शब्द केवल पुराने फिल्मी गानो में ही रह गये हैं, जैसे एक रुपइया बारह आना, आमदन्नी अठन्नी खर्चा रुपइया. हां मन में एक शक सा है. लगता है कि पाई, धेला, टका पंजाब के या उत्तर भारत के शब्द हैं. इन्हें दक्षिण भारत में क्या कह

छोटी सी पुड़िया

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कल रात को टीवी पर समाचार में बताया कि स्विटज़रलैंड में एक नये शोध कार्य ने साबित कर दिया है कि होम्योपैथी सिर्फ धोखा है. इस शोध कार्य के अनुसार, लोगों को अगर होम्योपैथी की गोलियों के बदले सिर्फ चीनी की गोलियां दी जायें तो भी उतना ही असर होता है, यानि कि होम्योपैथी में दवाई का असर नहीं केवल मन के विश्वास का असर है. इस समाचार से एक पुरानी बात याद आ गयी. करीब बीस बरस पहले एक बार मेरे कंधे में दर्द हुआ. तब डाक्टरी की पढ़ाई पूरी कर चुका था, तो अपने लिए दवाई खुद ही चुनी. चार पांच दिन तक ऐंटी इन्फलेमेटरी दवा की गोलियां खा कर पेट में दर्द होने लगा था पर कंधा का दर्द कम नहीं हुआ. फूफा तब रिटायर हो गये थे और होम्योपैथी की दवा देते थे, मुझसे सवाल पूछने लगे. पूछताछ कर के उन्होंने मुझे तीन पुड़िया बना दी. पहली पुड़िया मैंने वहीं खायी और उस दिन घर वापस आते आते, दर्द बिल्कुल गुम हो गया. मैंने बाकी की दोनो पुड़ियां सम्भाल कर पर्स में रख लीं. वे पुड़ियां मेरे साथ इटली आयीं. करीब सात आठ साल पहले, एक बार फिर कंधे में दर्द हुआ, तो उनमें से एक पुड़िया मैंने खा ली और दर्द तुरंत ठीक हो गया. आखिरी पुड़िया मैंने खो द

सड़क के कलाकार

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हर शहर में आप को सड़क के कलाकार यानि बस्कर मिल जायेंगे. रेलगाड़ी में या मेट्रो में या फिर सड़क के किनारे, अपनी कला से आप का मन जीत कर कुछ पैसे कमाने के लिए. यूरोप में कई जवान लड़के लड़कियाँ, यात्रा के दौरान अगर पैसे कम पड़ जायें तो गिटार बजा कर या गाना गा कर भी पैसे कमाने की कोशिश कर सकते हैं. शायद कुछ लोग सोचते हों कि ये लोग भिखारी हैं कलाकार नहीं, पर मुझे कई बार यह सड़क के कलाकार बहुत अच्छे लगते हैं. लंदन में पिकादेली सर्कस के मेट्रो स्टेशन पर एसकेलेटर करीब सौ मीटर तक नीचे जाते हैं, और जब आप नीचे जा रहे हों तब नीचे खड़े हो कर वाद्य बजाने वालों की आवाज़ सुनायी देती है जो मुझे बहुत प्रिय है. एक बार वहाँ रावेल के "बोलेरो" को सुना था, जिसे आज तक नहीं भुला पाया. बोलोनिया से करीब ५० किलोमीटर दूर एक शहर है फैरारा, जहाँ हर साल एक बस्कर फैस्टीवल लगता है. दूर दूर से सड़क के कलाकार यहाँ इस फैस्टीवल में अपनी कला दिखाने आते हैं. कल शाम हम भी इस फैस्टीवल को देखने गये. फैरारा वैसे भी, यानि बिना फैस्टीवल के भी देखने लायक है. शहर के बीचो बीच बाहरँवीं शताब्दी का किला है, कस्तैलो एसतेन्से और शहर के इस

चाय, काफी या फिर ..

पिछली बार मुम्बई गया तो भाभी ने खाने के समय पूछा "तो साथ क्या लोगे पीने के लिए ? वाइन चाहिये ?" "नहीं भाभी, पानी ही ठीक है", मैंने कहा क्योंकि गोलकुंडा वाइन एक बार चखी थी पर खास नहीं भायी थी. "वहाँ तो सुना है वाइन बड़े डिब्बे में है, तुम्हारी रसोई में! बस उसका नल खोलो और वाइन भर लो गिलास में." भाभी ने ऐसे कहा मानो अब मेरे शराबी हो कर मरने में कुछ अधिक देर नहीं. यह सब खुराफात भतीजी की थी जो यूरोप में छुट्टियाँ मनाने आयी थी और हमारे साथ कुछ दिन रुकी थी. उसी ने यह समाचार भाभी को दिया था कि चाचा की रसोई में वाइन का ढ़ोल रखा है. क्या कहता कि भाभी वह तो सिर्फ इस लिए क्योंकि ढ़ोल में लेने से बहुत सस्ती पड़ती है ? भाभी को क्या कहता कि लेटिन सभ्यता में वाइन का क्या महत्व है ? बिना वाइन के भी कोई खाना होता है क्या ? यहाँ तो डाक्टर भी कहते हैं कि आधा गिलास वाइन खाने के साथ खाने से दिल की बिमारी कम होती है और लाल वाइन में तो लोहे और अन्य मिनरल पदार्थ हैं जिनसे खून बनता है. यानि कि मजा का मजा और साथ में मुफ्त स्वास्थ्य भी. मेरी एक मित्र उत्तरी इटली में पहाड़ों में एक स्कूल

स्त्री, पुरुष या विकलांग ?

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यह कैसा सवाल हुआ, विकलांग लोग क्या स्त्री या पुरुष नहीं होते? मेरी एक मित्र है, अफ्रीका में डाक्टर है. वहीं एक कार दुर्घटना में उसका दाहिना हाथ और बाजू चले गये. उसने मुझे कहा, "जब मैंने बाजू खोयी तभी अपना स्त्री होना भी खो दिया. लोगों के लिए मैं अब औरत नहीं केवल विकलांग हूँ." उसकी इसी बात से, मैंने अपने शौध का विषय चुना कि विगलांग होने का सेक्सुएल्टी यानि यौन जीवन पर क्या असर पड़ता है. इस शोध के लिए यौन जीवन का अर्थ केवल मेथुन क्रिया नहीं थी बल्कि दो व्यक्तियों के बीच आपस में जो भी सम्बंध, यानि स्पर्श, प्यार, दोस्ती, बातें, फैंटेसी, आदि सब कुछ था. शौध के बारे में मैंने ई‍ग्रुप्स में विज्ञापन दिये और बालिग विकलांग व्यक्तियों को शोध में भाग लेने का निमंत्रण दिया. प्रारम्भ में 32 लोगों ने शौध में भाग लेने में दिलचस्पी दिखायी. अंत में करीब 20 लोगों ने भाग लिया. हर एक व्यक्ति से ईमेल के द्वारा बात होती थी. हर एक से बात कम से कम तीन चार महीने चली, किसी किसी से तो और भी लम्बे चली. सवाल मैं ही नहीं करता था वह भी मुझ से सवाल कर सकते थे. सेक्स का हमारे जीवन में क्या अर्थ है? सोचता थ

हिंदी में लिखना

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दिल्ली से एक मित्र कुछ किताबें ले आये हैं जिनमे मुणाल पांडे की किताब "परिधि पर स्त्री" (राधाकृष्ण प्रकाशन, १९९८) भी है. मुणाल पांडे जी सुप्रसिद्ध लेखिका दिवंगत शिवानी जी की पुत्री हैं और अंग्रेजी में एम.ए. हैं पर अधिकतर हिंदी में ही लिखती हैं. उनके बहुत से कहानी संग्रह, लेख संग्रह तथा उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं. इस पुस्तक में मृणाल जी ने नारीवाद के विभिन्न पहलुओं के बारे में लिखा है. पढ़ते पढ़ते मैं कई बार रुक कर सोचने के लिए मजबूर हो जाता हूँ. उनकी कलम में तलवार की धार छिपी है जो ऊपर से बिठाये सुंदर मुखौटे को चीर कर अंदर छुपे धाव को नंगा कर के दिखाती है. देश के विश्वविद्यालयों में स्त्री समस्याओं पर हो रहे शोध कार्य पर वह लिखती हैं, " यह हमारे देश के वर्तमान अकादमिक क्षेत्र की एक केंद्रीय विडंबना है कि गरीबी, असमानता तथा स्त्रियों की विषम स्थिति पर बड़े बड़े विद्वानों द्वारा जो भी बड़िया काम आज हो रहा है, उसके बुनियादी ब्यौरे तो वे अपने शोध सहायकों की मार्फत भारतीय भाषाओं में संचित करा रहे हैं, पर उनका अंतिम संकलन, माप जोख तथा विश्लेषण वे अंग्रेजी में ही प्रस्तुत करते हैं

कोई लौटा दे मेरे ...?

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कल जितेंद्र जी का लम्बा चिट्ठा, उनकी पुरानी रेडियो और टीवी से जुड़ी यादों के बारे में पढ़ा तो तुरंत उत्साह से टिप्पड़ीं लिखी. टिप्पड़ीं भेजने का बटन दबाया तो एक अजीब सा लम्बा संदेश आया, जिसका सार में अर्थ था कि हमारी कूड़े जैसी टिप्पड़ीं को वो कूड़ेदान में डाल रहे थे. तो पहले तो कुछ परेशानी हुई, क्योंकि बहुत समझदारी की बातें न भी हों, पर ऐसी तो कोई बात नहीं थी कि उसे नाराज हो कर इस तरह ठुकरा दिया जाये. फिर सोचा कि इस विषय पर अपना भी एक चिट्ठा बन सकता है. जितेंद्र जी ने लिखा तो खूब, बस उनकी एक बात पसंद नहीं आयी जो उन्होंने शास्त्रीय संगीत और कर्नाटक संगीत सभा के चाहने वालों के बारे में लिखी है. क्यों भाई, आप भारत के पारमपरिक संगीत के बारे में ऐसा क्यों सोचते हैं कि उसे सच्चे मन से चाहने वाले नहीं हो सकते ? खैर, शास्त्रीय संगीत के बारे में अपने प्रेम और अन्य धारणाओं के बारे में फिर कभी, इस बार बात रेडियो और टीवी से जुड़ी यादों की है. हमारे घर में तब बिजली नहीं थी. लैम्प की रोशनी से ही सब काम होते थे. शाम को ६ बजे के आसपास लैम्प जलाया जाता और ८ बजे तक सब बच्चे सोने के लिए तैयार हो जाते. तारों के

दिल्ली १९८४

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इन दिनों नानावती रिपोर्ट के बाद १९८४ में दिल्ली में हुई घटनाओं के घाव फिर से खुल गये हैं. मैं उन दिनों इटली से अपनी पत्नी और कुछ महीने के बेटे के आने की प्रतीक्षा कर रहा था. जहाँ हम रहते थे वहां ६ सिख परिवार थे, एक मुस्लिम और एक ईसाई, बाकी के घर हिंदु थे. जब शहर से दंगों के समाचार आये, हम सब लड़कों ने मीटिंग की और रक्षा दल बनाया, बाहर से आने वाले दंगा करने वालों को रोकने के लिए. हांलाकि छतों से शहर में उठते जलते मकानों के धूँए दिख रहे थे, पर सचमुच क्या हुआ यह तो हमें पहले पहल मालूम नहीं हुआ. वे सब समाचार तो कुछ दिन बाद ही मिले. आज प्रस्तुत है अर्चना वर्मा की कविता "दिल्ली ८४" के कुछ अंश, उनके कविता संग्रह "लौटा है विजेता" से (१९९३). अगर पूरी कविता पढ़ना चाहें तो यहां क्लिक कीजिये . दिल्ली ८४ दिन दहाड़े बाहर कहीं गुम हो गया सड़कों पर जंगल दौड़ने लगा. उसके घर में आज चूल्हा नहीं जला चूल्हे में आज घर जल रहा था. ऐन दरवाजे पर मुहल्ले के पेट में चाकू घोंप कर भाग गया था कोई. रंगीन पानी में नहाई पड़ी थीं गुड़ीमुड़ी गलियाँ, खुली हुई अँतड़ियाँ. और आज दो तस्वीरें एक चीन यात्रा से.

अरुंधति राय या मेधा पटकर ?

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आऊटलुक में अरुँधति राय का लेख पड़ा, जिसमें अंत में वे एक गाँव की बात करती हैं जहाँ गाँव वालों ने बिना किसी परेशानी के, दो औरतों को आपस में शादी करने दी. मैं सोचता हूँ कि अगर दो पुरुष या दो स्त्रियाँ एक दूसरे से प्रेम करते हैं और साथ जीवन गुजारना चाहते हैं तो उनको इस बात का पूरा हक होना चाहिये. ऐसी ही एक अपील मुम्बई से मेरे पास आयी है जो माँग करती है भारतीय कानून की धारा ३७७ को बदलने की. धारा ३७७ पुरुष या स्त्रियों में कुछ सेक्स सम्बंधों को जुर्म मानता है. मेरे विचार में जो बात जबरदस्ती से किसी से की जाये या फिर नाबालिग बच्चों के साथ हो, उसी को जुर्म मानना चाहिये. अगर बालिग लोग अपनी मर्जी से, अपनी प्राईवेसी में कुछ भी करते हैं तो यह उनका आपसी मामला है. मुझे अरुँधति राय का लिखना बहुत अच्छा लगता है. हाँलाकि उनकी हर बात से मैं सहमत नहीं पर यह तो मानना ही पड़ेगा कि उनके लिखने का अन्दाज़, शब्दों और उपमाओं का चुनाव, हर बात के पीछे शौध से खोज कर निकाली हुई बातें, सभी उनके लेखों को पढ़ने योग्य बनाती हैं. कुछ वर्ष पहले मेरी उनसे मुलाकात दिल्ली के हवाई अड्डे पर हुई थी. दो मिनट बात की, नर्मदा के बार

त्रुल्लीप्रदेश के त्रुल्लो

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इटली के दक्षिण पूर्व में है पूलिया राज्य जहाँ की राजधानी है बारी. करीब ही ब्रिन्देसी का प्रसिद्ध बंदरगाह है. इसी राज्य में कुछ छोटे छोटे शहर हैं, एक वादी के आसपास, जिन्हें "तैर्रा देई त्रुल्ली" यानि के त्रुल्लीप्रदेश कहा जाता है. यह नाम यहाँ के पारमपरिक घरों की बजह से है क्योंकि इन घरों को त्रुल्लो कहते है (एक घर त्रुल्लो और अनेक हों तो त्रुल्ली). यह घर वहाँ के आसपास पाये जाने वाले एक विषेश तूफो पत्थर से, जो कि लाइमस्टोन जैसा पत्थर है, बनाते हैं और इन घरों को बनाने की कला करीब दो हजार साल पुरानी है. पत्थरों को खूबी से काट कर ऐसे एक के साथ दूसरा रखा जाता है कि बिना रेता या सीमेंट के पूरा त्रुल्लो बस सिर्फ पत्थरों से ही बनता है. घरों का विशिष्ट आकार ऐसा है कि धूँआ और गर्मी दोनो से ही बचाता है. पाओलो, मेरे मित्र और इस यात्रा में मेरे साथी, कहते हैं कि त्रुल्लों को बनाने की कला अब धीरे धीरे लुप्त हो रही है. किसके पास इतना समय है कि पत्थर काट कर धीरे धीरे अपने लिए यह घर बनाये. इसलिये इस्तरिया की वादी में लोग त्रुल्लियां तोड़ कर साधारण घर बना रहे हैं. लेकिन इस कला को खोने से बचाने क

बेतुके शीर्षक का रहस्य

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कल सुबह हड़बड़ी में लिखा था चिट्ठा, इसलिए गड़बड़ हो गयी. चिट्ठे का शीर्षक लिखा "कैसे आऊँ पिया के नगर" पर उसमें बातें कम्प्यूटर, मोडम, सर्वर और कुत्तों की थीं, पिया के नगर का कोई नामोनिशान ही नहीं था. शायद ऐसा होने का कारण है कि कुछ सोच कर शीर्षक लिखता हूँ कि आज का चिट्ठा इस बारे में होगा, पर फिर जब लिखने लगता हूँ तो विचार कभी कभी किसी अन्य दिशा में चले जाते हैं. अगर हड़बड़ी न हो, तो अंत में कोई नया शीर्षक ढ़ूंढ़ा जाता है और चिट्ठा तैयार हो जाता है. पर क्या सब बात केवल हड़बड़ी की थी ? अगर आप मनोविज्ञान जानते हैं तो समझ गये होंगे कि जल्दबाजी में की हुई गलती में मन की छुपी हुई बातें भी कई बार निकल कर आ सकती हैं. अगर इस दृष्टि से देखें तो इस शीर्षक से सपष्ट समझ में आता है कि शादीशुदा होने के वावजूद मेरी कहीं कोई छिपी हुई प्रेमिका है जिससे मैं मिलने को बेताब था. क्या खयाल है आप का ? या फिर इस शीर्षक में भक्त्ती भाव भी ढ़ूंढ़ा जा सकता है जैसे मन्नाडे जी के गीत "लागा चुनरी में दाग, छुपाऊँ कैसे" में था. यानी कि जिस "पिया" से मैं मिलने को बेचैन हूँ, वह इश्वर है. राम नाम सत्य!

कैसे आऊँ पिया के नगर?

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सोचा है कि अगर घर पर ही हूँ तो प्रतिदिन चिट्ठे में कुछ न कुछ तो अवश्य लिखने की कोशिश करनी चाहिये. इसलिए सुबह उठते ही पहला काम होता है कम्प्यूटर जी का बटन दबाना और कुछ देर तक सोचना कि क्या लिखा जाये. पर कभी कभी इसमें कुछ अड़चन भी आ सकती हैं, जैसे आज सुबह पाया कि मोडम जी को कुछ परेशानी थी और हमारे अंतरजाल के सर्वर जी उन्हें अपने से जुड़ने की अनुमति ही नहीं दे रहे थे. शुरु शुरु में तो थोड़ी मायूसी हुई. फिर सोचा कि भाई आज अगर चिट्ठे से छुट्टी है तो कुछ और काम ही किया जाये. कई काम पिछले दिनों से रुके थे क्योंकि हमें चिट्ठा लिखने से ही फुरसत नहीं थी. कुछ देर काम किया फिर सोचा क्यों न काम पर जाने से पहले, कुत्ते को ही घुमा लाया जाये, इससे पत्नि जिसे कमर का दर्द हो रहा है, उसे कुछ आराम ही मिलेगा. अच्छा ही हुआ कि आज इसने हमें छुट्टी दे दी सोचते हुए हमने कहा बस एक बार और कोशिश कर के देख लेते हैं, शायद सर्वर जी का मिजाज़ अब ठीक हो गया हो. और यूँ ही हुआ. बस हो गयी मुश्किल. क्या करें हम, आप ही कहिये ? अब हमें अपने कुत्ते के साथ सैर को जाना चाहिये या यहाँ बैठ कर चिट्ठा लिखना चाहिये ? दोनो काम तो हो नही

दे दाता के नाम

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इटली की सड़कों पर कुछ नये भिखारी आये हैं. पूर्वी यूरोप से आये इन भिखारियों के बारे में अखबार में निकला था कि इन्हें बसों द्वारा हर सप्ताह लाया जाता है और हर सप्ताह नये लोग आते हैं, भीख मांगने. काम पर जाते समय एक चौराहे पर आजकल एक जवान महिला दिखती हैं भीख मांगते हुए. करीब २५ या २६ वर्ष की उम्र होगी, सुनहरे बाल और सुंदर चेहरा. कल वे गुलाबी और सफेद धारियों वाली टी शर्ट और नीचे कसी हुई जीनस् पहने थीं. देख कर लगा कि अगर इन्हें दिल्ली के भिखारी देख लें तो कभी माने ही न कि यह भी भिखारी हैं. आम तौर पर मैं पैशेवर भिखारियों को कुछ नहीं देना चाहता पर कैसे मालूम चले कि कौन पैशेवर है और कौन मुसीबत का मारा, जिसे सचमुच जरुरत है ? रेल के डिब्बे में अक्सर नवजवान युवक और युवतियां यह कह कर पैसे मांगते हैं कि उनका पर्स खो गया है और वह घर जाने का किराया इकट्ठा कर रहे हैं. डर लगता है कि शायद यह नशे के लिए पैसे जमा कर रहे हों. पर शायद कभी कभी उनमें कोई सचमुच ऐसा भी होगा जिसका पर्स खो गया हो ? कुछ वर्ष पहले, एक बार रेल में चढ़ने के बाद मैंने पाया कि जल्दी में अपना पर्स घर ही छोड़ आया था. उस दिन डर डर कर बिना टिक

पतझड़ के बसंती रंग

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कल की बारिश से थोड़ी सर्दी आ गयी है. सुबह खिड़की से बाहर देखा तो सामने मेपल के पेड़ के पीले होते पत्ते दिखायी दिये. मन कुछ उदास हो गया. शामें भी छोटी होने लगीं हैं. जून में रात दस बजे तक सूरज की रोशनी रहती थी पर अब तो ८ बजते बजते अँधेरा सा होने लगता है. कुछ ही दिनों में, पेड़ों के सारे पत्ते पीले या लाल हो कर झड़ जायेंगे. पतझड़ के रंग बसंत के रंगों से कम नहीं होते. घर के नीचे एक बाग है जहाँ होर्स चेस्टनट, मेपल, पलेन, इत्यादि के पेड़ हैं, सभी रंग बदल कर लाल पीले पत्तों से ढ़क जाते हैं, जिन्हें हवा के झोंके गिरा देते हैं. जमीन पर गिरे इन पीले या भुरे पत्तों पर चलना मुझे बहुत अच्छा लगता है. पतझड़ के इन रंगों से दिल्ली के बसंत की याद आती है जब सड़क के दोनों ओर लगे अमलतास और गुलमोहर खिलते हैं और लगता है कि पेड़ों में आग लगी है. रंग बदलने में मेपल के पेड़ जैसा शायद कोई अन्य पेड़ नहीं. इन पेड़ों से ढ़की बोलोनिया के आस पास की पहाड़ियाँ बहुत मनोरम लगती हैं. अमरीका और कनाडा में मेपल के पेड़ के रस के साथ पेनकेक खाने का चलन है. कुछ कड़वा सा, कुछ शहद जैसा, यह रस मुझे अच्छा नहीं लगता पर बहुत से लोग इसे पसंद करते हैं.

पहेलीः लोक कथा और सामाजिक सच्चाईयां

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अगर आप समाज की किसी बात से सहमत नहीं हैं तो आप बात लोक कथाओं या लोक गीतों से कह सकते हैं. ऐसा ही कुछ अभिप्राय था मानुषी की संपादक मधु किश्वर का जिन्होंने अपने एक लेख में, गाँव की औरतों का अपने जीवन की विषमताओं का वर्णन और विरोध रामायण से जुड़े गीतों के माध्यम से करने, के बारे में लिखा था. अमोल पालेकर की निर्देशित "पहेली" देखी तो यही बात याद आ गयी. क्योंकि "पहेली" भूत की बात करती है, एक लोक कथा के माध्यम से, इसलिए शायद अपने समाज के बारें कड़वे सच भी आसानी से कह जाती है और संस्कृति के तथाकथित रक्षकों को पत्थर या तलवारें उठा कर खड़े होने का मौका नहीं मिलता. फिल्म की नायिका, पति के जाने के बाद स्वेच्छा से परपुरुष को स्वीकार करती है और जब पति वापस आता है तो वह उसे कहती है कि वह परपुरुष को ही चाहती है. फिल्म की कहानी ऐसे बनी है कि पिता का आज्ञाकारी पुत्र ही खलनायक सा दिखायी देता है. यही कमाल है इस फिल्म का कि लोगों की सुहानभूती विवाहित नायिका और उसके प्रेमी की साथ बनती है, पति के साथ नहीं. सुंदर रंगों और मोहक संगीत से फिल्म देखने में बहुत अच्छी लगती है. इस कहानी में अगर भूत

छुट्टियों की थकान

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छुट्टियों में मज़े उड़ाना कितना थका देता है. अभी तो इन तीन दिनों की छुट्टियों का केवल एक ही दिन बीता है पर अभी से थकान हो रही है. कल सारा दिन रिमिनी में बिताया. रिमिनी बोलोनिया के पूर्व में करीब १०० किलोमीटर पर स्थित है. अगर आप इटली का नक्शा देखें तो सारा देश ही समुद्र तट से जुड़ा लगता है, पर पश्चिम समुद्र तट अधिक पथरीला है और रेत वाले बीच कहीं कहीं पर हैं. लेकिन, पूर्वी समुद्र तट, उत्तर में वेनिस से दक्षिण में बारी तक करीब एक हज़ार किलोमीटर तक रेत वाला बीच है, जहाँ समुद्र की लहरें अधिकतर शांत ही रहती हैं. इसलिए पूर्वी समुद्र तट छोटे छोटे शहरों से भरा है जहां गरमियों से पूरे उत्तरी यूरोप से पर्यटक छुट्टियां मनाने आते हैं. रिमिनी को इन सब शहरों की रानी कहते हैं. महीन सफेद रेत वाले समुद्र तट के अतिरिक्त यहां छुट्टियों में मज़े करने के सभी साधन उपलब्ध हैं. सारी रात खुले रहने वाले डिस्को, सिनेमा, दुकाने, जलपार्क, थीमपार्क, डोलफिनारियम, और जाने क्या क्या. पूरा शहर एक मेला सा लगता है. अगर आप कुछ और नहीं करना चाहते बस समुद्र तट पर ही आराम करना चाहते हैं, तो उसमें भी बहुत कुछ हैं करने और देखने क

कोई वहाँ है, ऊपर

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कल दोपहर को काम से छुट्टी ले कर जल्दी घर आ गया, क्योंकि अपने डेंटिस्ट से बात करना चाहता था. उसके क्लीनिक कई जगह हैं, जिनमें से एक घर के पास ही है, पर मुझे कभी याद नहीं रहता कि किस दिन कितने बजे हमारे घर के पास वाले क्लीनिक में रहता है. उसके कार्ड पर देखा, "शुक्रवार को शाम को ५ से ७ बजे", तो पौंने पाँच बजे घर से निकला. क्लीनिक पहुँचा तो मालूम चला कि मैंने कार्ड देखने में गलती कर थी, शुक्रवार को हमारे वाले क्लीनिक में वह शाम को साढ़े चार बजे तक ही रहता है. अब तीन दिन की छुट्टी है (१५ अगस्त इटली में राष्ट्रीय छुट्टी होती है), तो मंगलवार तक उससे मिलने के लिए इंतजार करना पड़ेगा. खुद को कोसा, की कार्ड को ठीक से क्यों नहीं देखा और मायूस हो कर घर लौटा. सोचा अब घर जल्दी आ ही गया हूँ तो पुस्ताकालय की किताबें ही लौटा आँऊ. किताबें उठायीं और बस स्टाप पर आ खड़ा हुआ. जहाँ पुस्तकालय है वह जगह सिर्फ पैदल चलने वालों के लिए है और वहाँ कार से जाना संभव नहीं है. जाने क्या सोच रहा था, गलत बस में चढ़ गया जो बहुत लम्बा चक्कर लगाती है. खुद को और कोसा, और करता भी क्या. इन गरमियों की छुट्टियों की वजह से बस

तुम मुझे खून दो...

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कल रात को श्याम बेनेगल के नयी फिल्म जो उन्होंने सुभाष चंद्र बोस पर बनायी है, देखी. श्याम बेनेगल का मैं अंकुर, जुनून के दिनों से प्रशंसक रहा हूँ हालाँकि पिछले कुछ वर्षों में उनकी बनायी कोई फिल्म नहीं देखी सिवाय जुबैदा के. नेता जी पर बनी यह फिल्म बहुत दिलचस्प लगी और यह भी लगा कि शायद भारत ने सुभाष बाबू के अनौखे व्यक्तित्व पर ठीक से विचरण नहीं किया और न ही उसे समाजशास्त्रियों और राजनीतिकशास्त्रों से भारत के इतिहास में सही स्थान मिला. एक व्यक्ति का राजनितिक नेता से लड़ाई का जनरल बन जाना आम बात नहीं है. लड़ाई के समय में नेताओं को अपना मानसिक संतुलन बनाये रखना होता है, पर बिना जनरलों और कर्नलों के नेता यह लड़ाई अपने आप नहीं संचालित कर सकते. चर्चिल, हिटलर इत्यादि रणनीति जानने वाले जनरलों के सहारे से लड़ाईयां लड़ते थे, स्वयं रणनीति नहीं बनाते थे, पर सुभाष बाबू राजनीति के साथ साथ खुद ही रणक्षेत्र में रणनीति भी बना रहे थे. फिर भी उनके सिपाही साथी फिल्म में उन्हें कमांडर साहब या जनरल नहीं बुलाते, नेता जी ही बुलाते हैं, क्यों ? क्योंकि शायद वे उन्हें लड़ाई का कमाडंर नहीं राजनीतिज्ञ रुप में ही देखते थे ?

रात के अनौखे यात्री

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कुछ वर्ष पहले तक हम लोग बोलोनिया से करीब ४० किलोमीटर दूर, इमोला शहर में रहते थे जो अपने ग्रांड प्री फोरमूला १ की कार रेस के लिए प्रसिद्ध है. तभी, कई बार देर रात को इमोला से बोलोनिया जाने वाली रेलगाड़ी में अनौखे यात्रियों को देखने का मौका मिलता था. वे अनौखे यात्री थे वेश्याएँ, औरतें भी और पुरुष भी. अधिकतर वेश्याएँ अफ्रीका और पूर्वी यूरोप से आयीं जवान लड़कियाँ होती हैं. उनमें से कुछ तो बहुत कम उम्र की लगती हैं, बालिग नहीं लगती. जब रेल पर चढ़तीं तो आम लड़कियों की तरह ही लगतीं, आपस में हँसी मज़ाक से बातें करती हुईं. फ़िर रेल पर चढ़ते ही सभी काम के लिए तैयार होने लग जाती थीं. डिब्बे के बाथरुम की ओर भागतीं. कुछ तो वहीं डिब्बे में ही कपड़े बदलने लगतीं. साधारण रोजमर्रा के कपड़े उतार, छोटी चमकीली पौशाकें, जिनको पहनने से उनके वक्ष और जांघों के बारे में किसी कल्पना की आवश्यकता न रहे. फिर मेकअप की बारी आती. छोटे छोटे शीशों में झांक कर भड़कीली लिपस्टिक और आँखों के ऊपर लगाने के लिए नीले और लाल रंग. २० मिनट में जब रेल बोलोनिया पहुँचती, वे सभी तैयार हो चुकी होतीं थीं. लगता उनका सारा व्यक्त्तिव ही बदल गया हो.

एक और कहानी

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पत्नि और बेटा छुट्टियों के लिए एक सप्ताह के लिए बाहर गये हैं. शाम को, काम से लौट कर घर में अकेला होने से, एक फायदा यह हुआ है कि लिखने के लिए समय अधिक मिल रहा है. न कुत्ते को घुमाने ले जाने का काम, न किसी से बात करने की सम्भावना. इसीलिए कल शाम को अपनी दूसरी कहानी पूरी कर डाली. यह सब हिंदी चिट्ठे के कारण ही हुआ है जिसने मेरे लिए भूलती हुई हि्दी के और सृजन के, द्वार खोल दिये. पहले जुलाई में लिखी " अनलिखे पत्र ". इससे पहले अंतिम हि्दी की कहानी लिखी थी सन् १९८३ में, जो धर्मयुग नाम की पत्रिका में "जूलिया" नाम से छपी थी. तब इटली में आये बहुत समय नहीं हुआ था. इन वर्षों में सब कुछ बदल गया. धर्मयुग को बंद हुए भी बरसों हो गये. "क्षमा" नाम है नयी कहानी का और आज उसी का एक छोटा सा अंश प्रस्तुत हैः "...वह आगे बढ़ ही रहीं थीं, जब नयी आयी लेडी डाक्टर उनकी तरफ मुड़ी. वसुंधरा को देख कर एक क्षण में ही उसके चेहरे का रंग उतर गया, और वसुंधरा भी पत्थर की तरह खड़ी रह गयी. इतने वर्षों के बाद मिलने के बाद भी दोनों ने एक दूसरे को तुरंत पहचान लिया था. इस तरह अचानक इतने सालों के बाद

उकियो-ए का तैरता संसार

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उकियो-ए यानि वैश्याओं, अभिनेताओं, कलाकारों, नटों, आदि का संसार जिसे सोलहवीं शताब्दी के एडो (आज का टोकियो) से शहर निकाला मिला था और वह लोग शहर के किनारे नदी पर नावों में रहने को मजबूर थे. कहते थे कि वे लोग शहर में गंदगी फैला रहे थे और जिनकी बजह से शहर में कानून और व्यवस्था बनाये रखने में कठिनाई हो रही थी. जापानी बादशाह का तो सिर्फ नाम था जबकि असली ताकत थी शोगुनों की जो अपने समुराईयों की तलवारों की शक्ती से राज करते थे. जापान के मध्यम युग के इस इतिहास के लिए मेरे मन में बहुत आकर्षण है. उकियो-ए में ही विकास हुआ गैइशा जीवन और काबुकी नाटक कला का. उकियो-ए कला इसी जीवन का चित्रण करती है. अगर आप उकियो-ए कला और जीवन के बारे में जानना चाहते हैं तो अमराकी संसद के पुस्तकालय के अंतरजाल पृष्ठ पर लगी एक प्रदर्शनी अवश्य देखिये, यहाँ क्लिक करके . बचपन में बुआ के यहाँ एक विवाह में मेरी मुलाकात हुई थी एक जापानी छात्र श्री तोशियो तनाका से, जो भारत में हिंदी सीखने आये थे. बुआ दिल्ली विश्व विद्यालय में हिंदी की प्रोफेसर थीं. चालिस वर्ष पहले हुई उस मुलाकात की बहुत सी बातें मुझे आज भी याद हैं और शायद वहीं से

गिरते तारों की रात

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कई दिनों से अखबारें और टेलीविजन याद दिला रहे थे कि 6 और 7 अगस्त को रात को आसमान पर गिरते तारों को देखना न भूलिये. पर दोनों ही दिन, रात को बादलों ने आसमान को ढ़क दिया था, तो तारे क्या देखते! आप को "कुछ कुछ होता है" का वह दृश्य याद है जिसमें शाहरुख और काजोल गिरते तारों को देख कर पूछते हैं कि तुमने क्या मांगा ? क्या आप ने कभी गिरते तारों को देखा है ? सच पूछिये तो मैंने पहले कभी गिरते तारों को नहीं देखा था. कभी देखा भी हो तो ख़ास ध्यान नहीं दिया था. पर पिछले साल इन्हीं दिनों में एक शाम अपने दो मित्रों को घर पर खाने पर बुलाया था, ज्योवानी जो मेरे साथ काम करता है और उसकी साथी, मारिया लूसिया, जो बाज़ील की हैं. पत्नी और बेटा छुट्टियों में बाहर गये थे और मैं घर में अकेला था. खाना खा कर गप्प मार रहे थे कि मारिया लूसिया ने कहा कि चलो गिरते तारों को देखें. मैं भी उनके साथ बाहर बालकनी पर गया हालाँकि मन में सोच रहा था कि क्या तारे दिखेंगे. "वो देखो, एक वहाँ...वो देखो एक वहाँ.." दो, तीन बार सुना तो मैंने भी आसमान को ध्यान से देखना शुरु किया. तब देखा अपना पहला गिरता सितारा,

बच्चों की रोटीः एक सुबह बोलोनिया में

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मोनतान्योला की पहाड़ी टूटे घरों, दीवारों आदि से बनी है. बहुत सा मलबा बोलोनिया की प्राचीन दीवार के तोड़ने से आया था. ऊपर जाने की सीड़ियाँ श्री पिनचियो ने बनायी थीं और पहाड़ी के ऊपर बना एक बाग. नये बाग और भव्य सीड़ियों का उदघाटन करने, सन् १९३८ में इटली के राजा विक्टोरियो ऐमनूएले और तत्कालीन प्रधानमंत्री मुसोलीनी. प्रधानमंत्री की खुली कार पर चलायी गोली एक १४ वर्षीय बालक ने, सड़क के किनारे एक घर की खिड़की से पर मुसोलीनी जी बच गये और बालक को लगी फाँसी शहर के मुख्य चौबारे में, नैपच्यून की मूर्ती के सामने. मुसोलीनी की मौत को अभी ५ साल बाकी थे, उन्हें तो द्वितीय महायुद्ध के बाद इटली के फाशिस्ट शासन से लड़ने वाले स्वतंत्रता सैनानियों के हाथों मरना था. ८ अगस्त चौबारा यानि स्क्वायर ठीक मोनतान्योला के पीछे है और यहाँ पिछले तीन सौ सालों से एक बाजार लगता है. आजकल इस बाजार का दिन है शनिवार. सुबह सुबह दूर दूर से बेचने और खरीदने वाले यहाँ आ जाते हैं. बाजार का अर्थ है शोर, संगीत, विभिन्न रंग और भीड़. करीब दो साल के बाद यहाँ आया हूँ, पर इन दो सालों में इस बाजार में बहुत बदलाव आ गया है. हर तरफ भारतीय, चीनी, पाकिस्

लोकारनो में मंगल पांडे

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स्विटज़रलैंड तीन भाषाओं का देश है. देश के एक हिस्से में बोलते हैं फ्रांसिसी भाषा, दूसरे में जर्मन और तीसरे में इतालवी. लोकारनो का शहर इतालवी भाषा क्षेत्र में आता है जहाँ दो दिन पहले लोकारनो फिल्म फैस्टीवल प्रारम्भ हुआ और पहले दिन की फिल्म थी केतन मेहता की "मंगल पांडे". इस अवसर पर वहाँ के इतालवी भाषी टेलीविजन ने फिल्म निर्देशक और आमिर खान से साक्षातकार तो दिखाये ही, फिल्म के कई दृश्य भी दिखाये. उस पूरे समाचार को अगर आप चाहें तो यहाँ क्लिक कर के देख सकते हैं (उस पन्ने पर सबसे नीचे SFI1 का एक लिंक है उसमें ३ अगस्त की लिंक पर क्लिक कीजिये. रियल मीडिया की फोरमेट है. पहले इस फिल्म समारोह की एक सदस्य का साक्षातकार है, अगर उसे न देखना चाहें तो माउस की मदद से आप क्लिप को आगे बढा सकते हैं. फिल्म के बारे में पूरा समाचार, करीब दस मिनट का है और इतालवी भाषा में है केवल फिल्म के दृश्यों को नहीं डब किया गया है.) ईस्वामी ने अपने ब्लाग में एक नये सर्च इंजन " सीक " के बारे में आज़माने की सलाह दी है, जिसके बारे में कहते हैं कि शायद यह गूगल से भी बेहतर है. बेहतर है या घटिया यह तो समय

गाँधी जी और कम्प्यूटर

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पिछले दिनों इटली की टेलीफोन कम्पनी "टेलीकोम" का यहाँ के टेलीविजन पर नया विज्ञापन आया जिसने कुछ हलचल सी मचा दी है और उसके बारे में बहुत सी बहसे हुई हैं. विज्ञापन के शुरु का दृश्य है कि गाँधी जी धीरे धीरे चल कर अपनी कुटिया की ओर जा रहे हैं. कुटिया में वह पालथी मार कर बैठ जाते हैं और बोलना शुरु करते हैं. गाँधी जी के सामने एक वेबकैम उनकी वीडियो तस्वीर ले कर उसे सारी दुनिया में दिखा रहा है. फिर दिखाते हैं कि सारी दुनिया में लोग गाँधी जी की बात को सुन और देख रहे हैं. न्यू योर्क और क्रैमलिन में विशालकाय पर्दों पर, इटली और चीन में मोबाईल टेलीफोन पर, अफ्रीका में रेगिस्तान में एक कम्प्यूटर पर. विज्ञापन के अंत में यह वाक्य उभरते हैं "अगर सारी दुनिया ने यह संदेश सुना होता तो आज यह दुनिया कैसी होती ?" इस विज्ञापन में गाँधी जी को अंग्रेज़ी में बोलते दिखाया गया हैं. 2 अप्रैल 1947 को दिल्ली में दिया गये उनका यह भाषण "एशिया में आपसी संबध" नाम की अंतरराष्ट्रीय सभा में दिया गया था. जो अंश विज्ञपन में दिया गया है उसमें गाँधी जी कहते हैं "अगर आप दुनिया को कोई संदेश

बंदर के बच्चे सा शहर

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दो दिन के लिए काम से कोरतोना गया. कोरतोना एक छोटा सा शहर है रोम से करीब १०० किलोमीटर उत्तर में. कुछ अजीब सा नाम लगता है मुझे कोरतोना. "कोरता" का इतालवी भाषा में अर्थ है "छोटी". इतालवी भाषा में अगर आप किसी शब्द के साथ "ओना" जोड़ देते हैं तो उसका अर्थ होता है "बड़ी" या "मोटी". उस हिसाब से कोरताना का अर्थ हुआ "छोटी बड़ी" या "छोटी मोटी". पूरे यूरोप में ऐसे कई शहर हैं जो मध्यम युग (तेहरंवी से सोलहंवी शताब्दी का युग) में पहाड़ियों पर किले की तरह बनाये गये थे ताकि बाहर से कोई हमला न कर सके. इटली में रोम से फ्लोरेंस के रास्ते में सड़के के दोनो तरफ ऐसे कई पुराने शहर हैं जहाँ पर ३००-४०० वर्ष पहले के घर, सड़कें इत्यादि सब कुछ अपने पुराने रुप में अभी भी बिल्कुल वैसे ही हैं. बहुत से ऐसे शहर आज भारत के फतह पुर सीकरी की तरह खाली शहर हैं जहाँ कोई नहीं रहता अब. कोरतोना भी ऐसा ही शहर है, फर्क सिर्फ इतना है इस शहरवासियों को अपने शहर में देशी विदेशी पर्यटकों को घूमने के लिए बुलाने में सफलता मिली है, इसलिए यह शहर अभी भी आबाद है, खाली नहीं हुआ.

हँस कर कही बात

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कुछ समय पहले फ्राँस में जनमत (रेफेरेंडम) हुआ था यूरोपीय संविधान के बारे में. इसमे जीत हुई संविधान को न कहने वालों की. जनमत से पहले कई हफ्तों तक बहुत बहस हुई फ्राँस में, यूरोप के बारे में. उनका सोचना था कि पूर्वी यूरोप में पोलैंड, हंगरी, रोमानिया, स्लोवाकिया जैसे देशों से गरीब यूरोपी लोग पश्चिम यूरोप के अधिक अमीर देशों में आ कर मुसीबत कर देंगे. कई बार उदाहरण देने के लिए कहा गया कि पोलैंड के कम पैसों में नल और पाईप ठीक करने वाले फ्राँस में आ कर फ्राँस वासियों से काम छीन लेंगे. उस समय तो पोलैंड वालो ने अपने बारे में ऐसी बातें सुन कर कुछ नहीं कहा पर कुछ सप्ताह पहले वहाँ के पर्यटक विभाग ने इस बात पर एक नया इश्तहार निकाला जो नीचे प्रस्तुत है. इसमें नल ठीक करने वाले कपड़े पहना एक युवक कहता है "मैं तो पोलैंड में ही रहूँगा, आप भी यहाँ आईये". बजाये गुस्सा हो कर लड़ाई करने के, इस तरह से हँस कर चुटकी ले कर अपनी बात समझाना कँही बहतर है. अनूप ने परसों के ब्लाग में तुरंत टिप्पड़ी की कि बिना मूर्ती की तस्वीर के उसके बारे में बात करना अधूरा है. क्या करता, पास में उस मूर्ती की कोई फोटो नहीं थी. आ