रविवार, अगस्त 21, 2022

अंतर्राष्ट्रीय शिक्षा रिपोर्ट का घोटाला

गेट फाऊँन्डेशन, युनेस्को, युनिसेफ़, युएसएड जैसी संस्थाओं के नाम दुनिया भर में प्रसिद्ध हैं। युनेस्को और युनिसेफ़ तो संयुक्त राष्ट्र संघ की संस्थाएँ हैं। ऐसी संस्थाएँ जब कोई रिपोर्ट निकालती हैं तो हम उन पर तुरंत विश्वास कर लेते हैं।

लेकिन पिछले कुछ वर्षों में इन अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं के प्रति कुछ संदेह जागे हैं। जैसे कि २०१९ के अंत में चीन में वुहान से कोविड की बीमारी निकली और दुनिया भर में फ़ैली तो विश्व स्वास्थ्य संस्थान ने जब इस महामारी की समय पर चेतावनी नहीं दी तो बहुत से लोगों ने इस संस्था की ओर उंगलियाँ उठायीं कि उन्होंने चीनी सरकार के रुष्ट होने के भय से दुनिया के देशों को समय पर महत्वपूर्ण जानकारी नहीं दी। ऐसी ही कुछ बात शिक्षा से जुड़ी एक नयी अंतर्राष्ट्रीय रिपोर्ट के बारे में भी उठायी गयी है जिसका विषय है प्राथमिक विद्यालयों के छात्रों में पढ़ायी की क्षमता। इस रिपोर्ट पर आरोप है कि उन्होंने इस रिपोर्ट में जान बूझ कर गलत आंकणों का प्रयोग किया है। यह आलेख इस रिपोर्ट और उस पर लगे आरोपों के बारे में है।


दो तरह की रिपोर्टें

कर्मा कोलोनियलिस्म की वेबसाईट पर साशा एलिसन ने प्रसिद्ध अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं द्वारा छापी २०२२ की एक नयी रिपोर्ट "सीखने की गरीबी" (Global Learning Poverty Report, 2022) के बारे में लिखा है, जिसमें विभिन्न देशों में शिक्षा की स्थिति के बारे में चर्चा है। इन देशों में भारत भी है। इस रिपोर्ट को छापने वाली अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएँ हैं वर्ल्ड बैंक, युनिसेफ, युनेस्को, बिल गेटस फाऊन्डेशन तथा कुछ विकसित देशों की सहायता एजेन्सियाँ।

एलिसन ने अपने आलेख में दिखाया है कि यह संस्थाएँ दो तरह की रिपोर्टें छापती हैं। जब यह दिखाना हो कि इन संस्थाओं के कार्यक्रमों से लाभ पाने बच्चों का शिक्षा स्तर कितना सुधरा है तो यह सकारात्मक जानकारी देती हैं। जब जनता से और सरकारों से अपने कार्यक्रमों के लिए पैसे माँगने का समय आता है तो अचानक उन्हीं बच्चों के शिक्षा स्तर गिर जाते हैं। इसके लिए यह रिपोर्टें आंकणों को अपनी मनमर्ज़ी से गलत ढंग से बढ़ा-चढ़ा कर दिखाती हैं।

जैसे कि २०१५ में जब संयुक्त राष्ट्र के लिए मिल्लेनियम डेवेलेपमैंट गोलस् (सहस्राब्दी विकास लक्ष्य) में मिली सफलताओं की रिपोर्ट तैयार की गयी तो युनेस्को की रिपोर्ट में बच्चों की शिक्षा की रिपोर्ट बहुत सकरात्मक थी, क्योंकि उसमें दिखाना था कि सन् २००० से २०१५ तक के किये खर्चे से चलाये जाने वाले कार्यक्रमों से दुनिया में बच्चों को कितना लाभ हुआ।

एक साल बाद संयुक्त राष्ट्र ने सस्टेनेबल डेवलेपमैंट गोलस् के तहत २०३० तक के नये लक्ष्य निर्धारित किये, तो सभी संस्थाएँ अपने कार्यक्रमों के लिए पैसे जमा करने के लिए अफ्रीका और एशिया के विकासशील देशों की शिक्षा स्थिति के बारे में नकारात्मक रिपोर्ट दिखाने लगीं।

२०२२ की अंतर्राष्ट्रीय शिक्षा रिपोर्ट

एलिसन स्वयं लाओस में शिक्षा के क्षेत्र में काम करते थे और जब उन्होंने "सीखने की गरीबी" रिपोर्ट में पढ़ा कि लाओस में स्कूल जाने वाले पाँचवीं कक्षा के ९७.६ प्रतिशत बच्चे ठीक से नहीं पढ़ सकते तो उन्हें शक हुआ कि यह गलत आंकणे लिये गये हैं। उन्होंने इस रिपोर्ट में शिक्षा के बारे में छपे आंकणों का विशलेषण किया है और दिखाया है कि इसमें अफ्रीका और एशिया के विकासशील देशों के बारें में जानबूझ कर गलत आंकणे लिए गये हैं। उदाहरण के लिए इस रिपोर्ट के हिसाब से एशिया के छः देशों में केवल ३७ प्रतिशत बच्चे सरल भाषा की किताब को पढ़ सकते हैं जबकि इसका सही आंकणा ८४ प्रतिशत होना चाहिये था।

रिपोर्ट के लिए गलत जानकारी देने के अतिरिक्त इस रिपोर्ट में आंकणों की एक अन्य समस्या है, कि अगर किसी देश से आंकणे न मिलें तो उसके आसपास के देशों के आंकणे ले कर उन सब देशों के औसत आंकणे बना लीजिये। जैसे कि रिपोर्ट में नाईजीरिया के आंकणे नहीं थे। जनसंख्या की दृष्टि से नाईजीरिया अफ्रीका का सबसे बड़ा देश है। इसलिए एलिसन कहते हैं कि आसपास के उससे दस गुना छोटे देशों की स्थिति के आधार पर इतने बड़े देश की स्थिति के बारे में "औसत आंकणे" दिखाना गलत है। लेकिन इस औसत आंकणों की बात को रिपोर्ट में स्पष्ट रूप में नहीं बताया गया है।

भारत में शिक्षा की स्थिति

भारत में बच्चों की शिक्षा से पायी समझ को मापने के लिए "आसेर" (Annual State of Education - ASER) के टेस्ट किये जाते हैं, इसमें देखा जाता कि पाँचवीं कक्षा के कितने प्रतिशत बच्चे दूसरी कक्षा की किताबों को पढ़ सकते हैं। भारत की स्वयंसेवी संस्था "प्रथम" इसको जाँचने के लिए देश के विभिन्न राज्यों में समय-समय पर सर्वे करती है। इसका आखिरी "आसेर" सर्वे २०१८ में किया गया, जिसकी रिपोर्ट २०१९ में निकली थी।

इस रिपोर्ट के अनुसार भारत में राष्ट्रीय स्तर पर करीब ४५ प्रतिशत पाँचवीं कक्षा के बच्चे दूसरी कक्षा की किताबों को आसानी से पढ़ सकते थे, जबकि बाकी के ५५ प्रतिशत बच्चों को वह किताबें पढ़ने में कठिनाई थी। विभिन्न राज्यों के स्थिति में बहुत अंतर था - एक ओर हिमाचल प्रदेश में ७५ प्रतिशत, केरल में ७३ प्रतिशत बच्चे पढ़ाई में सक्षम थे जबकि, दूसरी ओर झारखँड में केवल २९ प्रतिशत और असम में ३३ प्रतिशत बच्चे सक्षम थे। इस रिपोर्ट के अनुसार पिछले दस वर्षों में बच्चों की पढ़ने की सक्षमता बेहतर होने के बजाय कुछ कमज़ोर हुई है, जो चिंता की बात है। शिक्षा व्यवस्था राज्य सरकारों के आधीन है, इसलिए जिन राज्यों में स्थिति कमज़ोर है उन्हें इसे सुधारने में प्रयत्न करना चाहिये और "प्रथम" की रिपोर्ट पर ध्यान देना चाहिये।

२०२२ की "पढ़ाई की गरीबी" रिपोर्ट में भारत के बारे में कहा गया है कि ५६ प्रतिशत पाँचवीं के बच्चे दूसरी कक्षा की किताबों को पढ़ने में असमर्थ थे,जोकि ऊपर दी गयी "प्रथम" की सर्वे की रिपोर्ट के आंकणे से मिलता है।

अंत में

जब कोई अंतर्राष्टीय रिपोर्ट, विषेशकर जब उससे गेट फाऊँन्डेशन, युनेस्को, युनिसेफ़ युएसएड जैसे बड़े और प्रतिष्ठित नाम जुड़े हों तो हम उस पर तुरंत भरोसा कर लेता हैं क्योंकि हम सोचते हैं कि इतनी बड़ी संस्थाएँ अवश्य अच्छा काम ही करेंगी।

साशा एलिसन का आलेख दिखाता है कि कभी कभी ऊँची दुकान, फ़ीका पकवान वाली बात हो सकती है। यानि बड़े नामों पर भरोसा नहीं कर सकते और उनकी रिपोर्टों को आलोचनात्मक दृष्टि से परखना चाहिये।

अक्सर ऐसी अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं में भारतीय विशेषज्ञ जुड़े होते हैं और भारत का राष्ट्रीय सर्वे संस्थान विभिन्न विषयों पर सर्वे करता रहता हैं इसलिए उनमें भारत सम्बंधी गलत जानकारी या आंकणें नहीं मिलने चाहिये, लेकिन फ़िर भी सावधानी बरतना आवश्यक है।


शनिवार, अगस्त 13, 2022

यादों की संध्या

संध्या की सैर को मैं यादों का समय कहता हूँ। सारा दिन कुछ न कुछ व्यस्तता चलती रहती है, अन्य कुछ काम नहीं हो तो लिखने-पढ़ने की व्यस्तता। सैर का समय अकेले रहने और सोचने का समय बन जाता है। शायद उम्र का असर है कि जिन बातों और लोगों के बारे में ज़िन्दगी की भाग-दौड़ में दशकों से नहीं सोचा था, अब बुढ़ापे में वह सब यादें अचानक ही उभर आती हैं।

यादों को जगाने के लिए "क्यू" यानि संकेत की आवश्यकता होती है, वह क्यू कोई गंध, खाना, दृश्य, कुछ भी हो सकता है, लेकिन मेरे लिए अक्सर वह क्यू कोई पुराना हिंदी फ़िल्म का गीत होता है। बचपन के खेल, स्कूल और कॉलेज के दिन, दोस्तों के साथ मस्ती, पारिवारिक घटनाएँ, जीवन के हर महत्वपूर्ण समय की यादों के साथ उस समय की फ़िल्मों के गाने भी दिमाग के बक्से में बंद हो जाते हैं। इस आलेख में एक शाम की सैर और कुछ छोटी-बड़ी यादों की बातें हैं।


आज सुबह से आसमान बादलों से ढका था, सुहावना मौसम हो रहा था, हवा में हल्की ठँडक थी। सारा दिन बादल रहे लेकिन जल की एक बूँद भी नहीं गिरी। शाम को जब मेरा सैर का समय आया तो हल्की बूँदाबाँदी शुरु हुई। पत्नी ने कहा कि जाना है तो छतरी ले कर जाओ, लेकिन मैंने सोचा कि थोड़ी देर प्रतीक्षा करके देखते हैं, अगर यह बूँदाबाँदी नहीं रुकेगी तो छतरी ले कर ही जाऊँगा। पंद्रह मिनट प्रतीक्षा के बाद बाहर झाँका तो बादलों के बीच में से नीला आसमान झाँकने लगा था। इस वर्ष अक्सर यही हो रहा है कि बादल कम आते हैं और अक्सर बिना बरसे ही लौट जाते हैं। हमारे शहर का इतिहास जानने वाले लोग कहते हैं कि ऐसा पहली बार हुआ कि हमारे घर के पीछे बहने वाली नदी में करीब आठ महीनों से पानी नहीं है। पूरे पश्चिमी यूरोप में यही हाल है।

खैर मैंने देखा कि बारिश नहीं हो रही तो तुरंत जूते पहने और हेडफ़ोन लगा लिया। शाम की सैर का समय कुछ न कुछ सुनने का समय है। कभी डाऊनलोड किये हुए हिंदी, अंग्रेज़ी या इतालवी गाने सुनता हूँ, कभी हिंदी के रेडियो स्टेशन तो कभी क्लब हाऊस पर कोई बातचीत या गाने के कार्यक्रम। आज मन किया विविध भारती सुनने का। यहाँ शाम के साढ़े सात बजे थे, तो मुम्बई से प्रसारित होने वाले विविध भारती के लिए रात के ग्यारह बजे थे और चूँकि आज गुरुवार है, मुझे मालूम था कि इस समय सप्ताहिक "विविधा" कार्यक्रम आ रहा होगा, जिसमें अक्सर हिंदी फ़िल्मों से जुड़ी हस्तियों के साक्षात्कारों की पुरानी रिकोर्डिंग सुनायी जाती हैं।

मोबाईल पर विविध भारती का एप्प खोला तो कार्यक्रम शुरु हो चुका हो चुका था और पुराने फ़िल्म निर्देशक, लेखक तथा अभिनेता किशोर साहू की बात हो रही थी। उनका नाम सुनते ही मन में "गाईड" फ़िल्म की बचपन एक याद उभर आयी। तब हम लोग पुरानी दिल्ली में फ़िल्मिस्तान सिनेमा के पास रहते थे। वह घर हमने १९६६ में छोड़ा था, इसका मतलब है कि वह याद इससे पहले की थी। मन में उभरी तस्वीर में एक दोपहर थी, नानी चारपाई पर चद्दर बिछा कर, उस पर दाल की वणियाँ बना कर सुखाने के लिए रख रही थी। बारामदे के पीछे खिड़की पर ट्राँज़िस्टर बज रहा था जिस पर उस दिन पहली बार किशोर कुमार और लता मँगेशकर का गाया गीत, "काँटों से खींच के यह आँचल, तोड़ के बँधन बाँधी पायल" सुना था। एक पल के लिए मैं उस आंगन में नानी को देखता हुआ सात-आठ साल का बच्चा बन गया था, यह याद इतनी जीवंत थी।

बचपन में पापा हैदराबाद में थे और माँ अध्यापिका-प्रशिक्षण का कोर्स कर रही थी और उसके बाद उन्हें नवादा गाँव के नगरपालिका के प्राथमिक स्कूल में नौकरी मिली थी, तो मैं और मेरी बहन, हम दोनों नानी के पास ही रहते थे। नानी और माँ में केवल अठारह या उन्निस साल का अंतर था, इसलिए मेरी सबसे छोटी मौसी उम्र में मेरी बड़ी बहन से छोटी थी।

नानी जब पैदा हुई थी तो उनकी माँ चल बसी थीं, इसलिए नानी अपनी मौसी के पास बड़ी हुईं थीं और उनके मौसेरे भाई, इन्द्रसेन जौहर, अपने समय के प्रसिद्ध फ़िल्म अभिनेता और निर्देशक बने थे। नानी की शादी करवाने के बाद उनके विधुर पिता ने नानी की उम्र की लड़की से शादी की थी, इस तरह से नानी की पहली संतानें भी उनके पिता की अन्य संतानों से उम्र में बड़ी थीं, और नानी के सबसे छोटे भाई मेरे हमउम्र थे।

नानी सुबह उठ कर अंगीठी जलाती थी। घर में एक कोठरी थी, जिसमें कच्चा और पक्का कोयला रखा होता था। अंगीठी की जाली पर नानी पहले थोड़ा सा कच्चा कोयला रखती, और उसके ऊपर पक्का कोयला। फ़िर नीचे राख वाली जगह पर कागज़ जलाती जिससे कच्चे कोयले आग पकड़ लेते। वह राख भी जमा की जाती थी, उससे बर्तन धोये जाते थे और उसे गाय या भैंस के गोबर में मिला कर उपले बनाये जाते थे।

उपलों को नानी अपनी पश्चिमी पंजाब के झेलम जिले की भाषा में "गोया" कहती थी। लेकिन उस घर में उपले कम ही बनते थे शायद क्योंकि शहर में गोबर आसानी से नहीं मिलता था। नानी का गाँव वाला घर जिस पर नाना ने "दीवान फार्म" का बोर्ड लगा रखा था, नवादा और नजफ़ गढ़ के बीच में ककरौला मोड़ नाम की जगह से थोड़ा पहले था। जहाँ नानी की रसोई थी, वहाँ अब "द्वारका मोड़" नाम के दिल्ली मेट्रो स्टेशन की दायीं सीढ़ियाँ हैं और जहाँ उनका बड़ा वाला कूँआ था वहाँ अब मेरे मामा के बनाया एक स्कूल चलता है। बचपन में वहाँ मैं अपनी छोटी मौसियों के साथ तसला ले कर गोबर उठाने जाता था। अगर आप ने कभी गोबर नहीं उठाया तो शायद आप को उसे हाथ से छूने या उठाने का सोच कर अज़ीब लगे, लेकिन बचपन में मुझे ताज़े गोबर की गर्मी को हाथ से छूना बहुत अच्छा लगता था। गाँव वाले उस घर में, दूध, दाल, सब्जी, हर चीज़ में उपलों की गंध आती थी।

आज उत्तरपूर्वी इटली में, दिल्ली से हज़ारों मील दूर, किशोर साहू के नाम और उनकी बातों से, साठ वर्ष पहले की यह सब यादें एक पल के लिए मन में कौंध गयीं, एक क्षण के लिए उपलों की गंध वाले उस खाने की वह सुगंध भी जीवित हो उठी।

किशोर साहू के बाद बात हुई पुरानी फ़िल्म अभिनेत्री मनोरमा की। उनका मुँह बना कर और आँखें मटका कर अभिनय करना मुझे अच्छा नहीं लगता था। उनकी बातें सुन रहा था तो मन में हमारे करोल बाग वाले घर की यादें उभर आयीं। तब दिल्ली में नियमित दूरदर्शन के कार्यक्रम आते थे, जिनमें मेरे सबसे प्रिय कार्यक्रम थे चित्रहार और फ़िल्में। छयासठ से अड़सठ तक हम उस घर में तीन साल रहे और उन तीन सालों में दूरदर्शन पर बहुत फ़िल्में देखीं। तब रंगीन टीवी नहीं होता था और टीवी कम ही घरों में थे। बिना जान पहचान के हम बच्चे मोहल्ले के आसपास के किसी भी टीवी वाले घर में घुस जाते थे, कभी किसी ने मना नहीं किया। हम लोग टीवी के सामने ज़मीन पर पालथी मार कर बैठ जाते।

तब रामजस रोड पर एक स्कूल में भी शाम को फ़िल्म आती तो वहाँ की एक अध्यापिका आ कर टीवी वाला कमरा खोल देती थीं, वहाँ खूब भीड़ जमती। उन सालों की दूरदर्शन पर देखी मेरी प्रिय फ़िल्मों में से वैजयंतीमाला की "मधुमति", मधुबाला की "महल", नूतन की "सीमा" और राजकपूर की "जागते रहो" थीं।

उन फ़िल्मों के बारे में सोचते हुए, उस समय सैर करते करते मैं हमारी सूखी हुई नदी के पुल पर पहुँच गया। वहाँ खड़े हो कर पहाड़ों के पीछे डूबते सूरज को देखना मुझे बहुत अच्छा लगता है, क्योंकि उस जगह पर पहाड़ों से घाटी में नीचे आती हुई बढ़िया हवा आती है। इस साल पानी न होने से पहले तो नदी के पत्थरों के बीच में लम्बी घास उग आयी थी, शायद उसे नदी के तल के नीचे की धरती में छुपी उमस मिल गयी थी। फ़िर भी जब पानी नहीं बरसा तो वह घास बहुत सी जगह पर सूख कर पीली सी हो गयी है, इस तरह से पुल से देखो तो संध्या के डूबते सूरज की रोशनी में नदी के तल पर बिछी घास के हरे और पीले रंग बहुत सुंदर लगते हैं। नदी के किनारे लगे पेड़ों के पत्ते जब सर्दी शुरु होती है तो सितम्बर के अंत में पीले और लाल रंग के हो कर गिर जाते हैं, लेकिन इस साल सूखे की वजह से अभी अगस्त के महीने में ही वह पत्ते पीले पड़ रहे हैं। बादलों से ढके आकश में प्रकृति के यह सारे रंग बहुत मनोरम लगते हैं।



पुल पर ही खड़ा था, जब विविध भारती पर आ रहे कार्यक्रम में शम्मी कपूर की बात होने लगी। उनकी एक पुराने साक्षात्कार की रिकार्डिंग सुनवायी जा रही थी। थोड़ा सा आश्चर्य हुआ यह जान कर कि वह अच्छा गाते थे। उस साक्षात्कार में उन्होंने "तीसरी मंजिल", "एन ईवनिंग इन पैरिस" जैसी फ़िल्मों के कुछ गाने गा कर सुनाये।

शम्मी कपूर के नाम से उनकी फ़िल्म "कश्मीर की कली" और फ़िर नानी के घर की याद आ गयी। घर के पास, ईदगाह को जाने वाली सड़क के पार एक फायर ब्रिगेड का स्टेशन होता था, जिसके सामने मैं सुबह स्कूल की बस की प्रतीक्षा करता था। वहीं पर फायरब्रिगेड में काम करने वाले एक सरदार जी से जानपहचान हो गयी थी। उनके पास एक छोटा सा पॉकेट साईज़ का ट्राँज़िस्टर था जिसमें इयरफ़ोन लगा कर सुनते थे। उन्होंने एक दिन मुझे वह इयरफ़ोन लगा कर रेडियो सुनवाया तो उस समय उसमें "कश्मीर की कली" फ़िल्म का गीत आ रहा था, "यह चाँद सा रोशन चेहरा, ज़ुल्फ़ों का रंग सुनहरा"। आज शम्मी कपूर जी की आवाज़ सुनी तो अचानक उस गीत को सुनने की वह याद आ गयी।

जब हम लोग करोल बाग में रहने आये, उन दिनों में मैं रेडियो पर नयी फ़िल्मों के गाने सुनने का दीवाना था, कोई भी गाना एक बार सुनता था तो उसकी धुन, शब्द, फ़िल्म का नाम, गाने वाले, लेखक, सब कुछ याद हो जाता था, इसलिए जब अंताक्षरी खेलते तो मैं उसमें चैम्पियन था। उन्हीं दिनों में दूरदर्शन पर पुरानी फ़िल्में देखने लगे थे तो सपने देखता कि जब बड़ा होऊँगा और पास में पैसा होगा तो सब फ़िल्मों को देखूँगा। आज तकनीकी ने इतनी तरक्की कर ली कि वह सारी फ़िल्में जो बचपन में देखना चाहता था और नहीं देख पाया था, अब जब चाहूँ तो यूट्यूब पर उनको देख सकता हूँ, तो क्यों नहीं देखता?

सैर से वापस घर लौटते समय सोच रहा था कि इन पचास-साठ सालों में दुनिया कितनी बदल गयी। बचपन का वह मैं, अगर उसे मालूम होता कि एक समय ऐसा भी आयेगा कि दुनिया में कहीं भी, किसी से बात करलो, जो मन आये वह संगीत सुन लो या फ़िल्म देख लो, तो उसे कितनी खुशी होती, और वह क्या क्या ख्याली पुलाव पकाता। 

अन्य दिनों में इस तरह की यादें, घर लौटने के दस मिनट में रात को देखे सपनों की तरह गुम हो जाती हैं, लेकिन आज सोचा है कि अपने ब्लाग के लिए इन्हें शब्दों में बाँध लूँगा।

शनिवार, अगस्त 06, 2022

लम्बे कोविड के खतरे

टिप्पणी (२९ अगस्त २०२२)


पिछले कुछ महीनों (विषेशकर अप्रैल २०२२ के अंत के बाद से) से यूरोप, अमरीका आदि कुछ देशों में वर्ष के इस समय में होने वाली औसत मृत्यु दर से करीब दस से १२ प्रतिशत अधिक हो रही हैं। ईंग्लैंड और अमरीका दोनों देशों में मृत्यु के आकणें यह बढ़ी मत्यु दर दिखला रही हैं। कल (२८ अगस्त २०२२ को) स्कॉटलैंड की सरकार ने इस बात को स्वीकारा है। यह बढ़ी मृत्यु दर कोविड से होने वाली मृत्यु से अलग है। इनमें विषेशरूप से घर पर अचानक मरने वालों की संख्या अधिक है। चूँकि कोविड के वजह से पिछले दो वर्षों में बूढ़े और अन्य बिमारियों वाले बहुत से लोगों की मृत्यु हुई थी तो इस साल औसत मृत्यु दर में कमी आनी चाहिये थी, उसमें बढ़ौती का होना चिंताजनक है। वैज्ञानिकों को संदेह है कि शायद इन अधिक मृत्यु के पीछे कोचिड वैक्सीन का प्रभाव न हो इसलिए वैज्ञानिक कह रहे हें कि देशों के मृत्यु के आकणों, कारणों तथा आटोप्सी रिपोर्ट पर तुरंत शोध करना चाहिये। 

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लम्बे कोविड के खतरे


कोविड की बीमारी दो साल पहले, 2020 के प्रारम्भ में चीन से सारे विश्व में फ़ैली। चूँकि यह बीमारी चीन में 2019 में शुरु हुई, इसमें मरीज़ों को साँस लेने में कठिनाई होती थी और यह कोरोना वायरस से इन्फेक्शन से हुई थी इसे सार्स-कोविड-19 (Severe Acute Respiratory Syndrome - Corona Virus Disease) का नाम दिया गया। अब तक इस बीमारी से दुनियाँ में करोड़ों लोग प्रभावित हुए हैं और लाखों लोगों की मृत्यु हुई है। दुनिया में शायद ही कोई ऐसा देश हो जहाँ यह बीमारी न पहुँची हो।



अधिकाँश लोगों को जब यह बीमारी हुई तो उन्हें अधिक परेशानी नहीं हुई और वह जल्दी ठीक हो गये। करीब 2 प्रतिशत लोगों की तबियत अधिक बिगड़ी और उन्हें अस्पताल में भरती होना पड़ा। अस्पताल में भर्ती होने वाले लोगों में से करीब एक प्रतिशत लोग नहीं बचे, बाकी के लोग धीरे धीरे ठीक हो गये। बीमारी के प्रारम्भ में, जब इससे लड़ने के लिए वैक्सीन का आविष्कार नहीं हुआ था, बीमार होने वाले और मरने वाले अधिक थे। बहुत से देशों में इस बीमारी के लिए विषेश अस्पताल खोले गये। अधिकाँश देशों में 2020-21 में महीनों तक लॉक-डाउन रहे जिससे दुकानदारों, फैक्टरी वालों, स्कूल और कॉलेज के विद्यार्थियों, उद्योग चलाने वालों, रैस्टोरेंट वालों, कलाकारों, फ़िल्म वालों आदि सब पर गहरा नकारात्मक प्रभाव पड़ा।

जिन लोगों को यह कोविड की बीमारी हुई उनमें से कुछ लोगों में इस बीमारी का लम्बा प्रभाव पड़ा है, यानि वह इस बीमारी के बाद, कई महीनों या सालों तक ठीक नहीं हो पाये। इन लोगों की बीमारी को "लम्बे कोविड" (Long Covid) का नाम दिया गया है। कुछ दिन पहले, 28 जुलाई 2022 को, लम्बे कोविड के बारे में एक नया और महत्वपूर्ण शोध के परिणाम आये हैं जिनसे इस लम्बे कोविड की बीमारी और उसके शरीर पर होने वाले प्रभावों को समझने में मदद मिलती है। इस आलेख में कोविड का वायरस कैसे शरीर पर प्रभाव करता है और लम्बे कोविड की बीमारी से जुड़े इस शोध के परिणामों की चर्चा हैं।

लम्बे कोविड का शोध

इस शोध के लिए ईंग्लैंड में उन लोगों को चुना गया जिन्हें गम्भीर स्तर का कोविड का इन्फेक्शन हुआ था और बीमारी शुरु होने के २८ दिनों के बाद भी जिनकी तबियत पूरी तरह से नहीं सुधरी थी। इसमें कुल मिला कर तीन लाख छत्तीस हजार लोगों को लिया गया। इन लोगों को स्मार्ट फोन का एक एप्प दिया गया और उनसे नियमित रूप से स्वास्थ्य सम्बंधी जानकारी इकट्ठी की गयी। इसके अधिकतर शोधकर्ता लँडन के किन्गस कॉलेज से जुड़े थे।

कोविड का वायरस जो चीन में निकला, वह समय के साथ बदलता रहा है और उन बदलते हुए वायरसों को अलग अलग नाम दिये जाते हैं जैसे कि अल्फा, डेल्टा, आदि। इस शोध में उन सभी विभिन्न तरह से वायरसों से बीमार व्यक्तियों ने हिस्सा लिया।

जिन तीन लाख छत्तीस हज़ार रोगियों ने इसमें हिस्सा लिया, उनमें से एक हज़ार चार सौ उनसठ (1,459) रोगियों को "लम्बा कोविड" हुआ यानि उनकी बीमारी होने के तीन महीने बाद भी उनकी तबियत ठीक नहीं हुई थी। इसका अर्थ है कि इस शोध में हिस्सा लेने वाले हर 230 रोगियों में से एक व्यक्ति को लम्बा कोविड हुआ, जिससे मालूम चलता है कि गम्भीर कोविड होने वाले लोगों में से तकरीबन 0.4 प्रतिशत लोगों को लम्बा कोविड होने का खतरा हो सकता है।।

कोविड का शरीर पर असर

कोविड की बीमारी हमारे शरीर पर किस तरह से असर करती है, इसको जानने के लिए हमारे शरीर की आत्मरक्षा व्यवस्था (immunological system) को समझना ज़रूरी है।

जब हमारे शरीर में कोई भी बीमारी वाला किटाणु घुसता है तो हमारा शरीर उससे लड़ने की कोशिश करता है। बीमारी फैलाने वाले किटाणुओं से लड़ने वाली आत्मरक्षा की क्षमता को शरीर की इम्यूनुलोजिकल सिस्टम या शरीर-आत्मरक्षा व्यवस्था कहते हैं। हमारी यह आत्मरक्षा क्षमता मुख्यतः दो तरह की होती है - रक्त में घूमने वाली एँटीबॉडी (antobodies) और सुरक्षा-कोष (cellular immunity)।

एँटीबॉडी को शरीर की रक्त धमनियों में घूमने वाला सिपाही समझिये, जैसे ही किसी अनजाने किटाणु को देखता है, उसको पकड़ कर उससे लिपट जाता है और मदद के लिए चिल्लाता है, जिससे की मेक्रोफेज (macrophage) नाम के कोष वहाँ आ कर उन किटाणुओं को निगल जाते हैं और मार कर पचा लेते हैं।

अगर आप के शरीर ने उस किटाणु को पहले नहीं देखा, जब यह नया किटाणु शरीर में घुसता है तो एँटीबॉडी उनको पहचान नहीं पाती और इन किटाणुओं को शरीर में फ़ैलने का मौका मिल जाता है। तो इन्हें रोकने की ज़िम्मेदारी सुरक्षा कोषों पर आती है, इनका काम है नये किटाणुओं को पहचानना, लड़ना और उनसे लड़ने के लिए नये तरीके की एँटीबॉडी बनवाना। इस काम में थोड़ी देर लगती है और तब तक बीमारी शरीर में फैलती रहती है।

वैज्ञानिक कुछ घातक किटाणुओं जिनसे जानलेवा या गम्भीर बीमारी हो सकती है, उनसे बचने के लिए वैक्सीन बनाते हैं। वैक्सीन में मरे या अधमरे किटाणु, जिनसे बीमारी होने का खतरा नहीं हो, शरीर में टीके से या ड्रापस से भेजे जाते हैं, ताकि शरीर उनको पहचान कर उनसे लड़ने वाली एँटीबॉडी बनाने लगे। इस तरह से जब वह किटाणु आप के शरीर में घुसते हैं तो वे आप की आत्मरक्षा व्यव्स्था के लिए नये नहीं हैं और उनसे लड़ने वाली एँटीबोडी पहले से ही तैयार उनकी घात में बैठी हैं।

जब शरीर किसी किटाणु से लड़ता है, तो कई बार उस लड़ाई की वजह से भी शरीर पर कुछ दुष्प्रभाव हो सकते हैं, जैसे कि शरीर का तापमान बढ़ना। इसलिए जब शरीर में कोई भी इन्फेक्शन हो, बुखार आ जाता है।

कोविड के वायरस शरीर में साँस के साथ घुसते हैं और सबसे पहले फेफड़ों में फ़ैलते हैं। अगर शरीर में इन्हें तुरंत रोकने की शक्ति नहीं हो, तो इनकी संख्या में तेजी से बढ़ोतरी होती है। जब तक शरीर इन किटाणुओं से लड़ने के लिए एँटीबॉडी बनाता है तब तक कुछ लोगों के फेफड़ों में इतने किटाणु बन गये होते हैं कि जब एँटीबॉडी उन पर हमला करती हैं तो वहाँ पानी जमा हो सकता है या फेफड़ों की संकरी धमनियाँ उन किटाणु-एँटीबॉडी के गट्ठरों से बंद हो जाती हैं, जिनसे मरीजों को साँस लेने में कठिनाई होती है, उनके शरीर की आक्सीजन कम होने लगती है। इसके अतिरिक्त, फेफड़ों से किटाणु शरीर के अन्य भागों में जाते हैं और वायरस विभिन्न अंगों के कोषों को नुक्सान दे सकता है। यही सब बीमारी के लक्षण बन कर प्रकट होते हैं।

लम्बे कोविड के कारण

कोविड का वायरस फेफड़ों से घुस कर शरीर के विभिन्न हिस्सों में फ़ैल जाता है, और शरीर के महत्वपूर्ण अंगों के कोषों को नुकसान हो सकता है। अगर कोषों को नुकसान टेम्परेरी है जैसे कि उनमें स्वैलिंग आ जाती है, तो धीरे धीरे यह ठीक हो जाता है। लेकिन अगर महत्वपूर्ण अंगों के कोष बीमारी की वजह से मर जाते हैं तो अक्सर वह दोबारा ठीक नहीं होते।

जैसे कि हमारे दिमाग में विभिन्न गँधों को पहचानने वाले कोष होते हैं, जो अक्सर कोविड से प्रभावित होते हैं। अगर वह कोष बीमारी में मर जाते हैं तो हो सकता है कि उस व्यक्ति की सूँघने की शक्ति पूरी तरह से कभी नहीं लौटे। लम्बे कोविड से प्रभावित लोगों में पाया गया है कि उनके विभिन्न शरीर के हिस्सों में जैसे कि दिमाग में, दिल में, फेफड़ों मे, शरीर के कोषों को परमानैंट डेमेज हो गया है जिसकी वजह से वह ठीक नहीं हो पा रहे।

लम्बे कोविड के प्रभाव

इस शोध में लम्बे कोविड बीमारी होने वाले व्यक्तियों में तीन तरह के लक्षण पाये गये हैंः

(१) दिमाग और नसों से जुड़े लक्षण - जैसे कि सूँघने की क्षमता खोना, थकान होना, सोचने की शक्ति कमज़ोर होना, डिप्रेशन होना, सिरदर्द होना, आदि।

(२) हृदय और फेफड़ों से जुड़े लक्षण - जैसे कि साँस लेने में कठिनाई, हाँफना, जल्दी थक जाना, दिल की धड़कन बढ़ना, आदि।

(३) शरीर के अन्य अंगों से जुड़े लक्षण - जैसे कि बुखार रहना, गुर्दों की तकलीफ़ होना, जोड़ों में तकलीफ़ होना, आदि।

इस शोध में शामिल लम्बे कोविड से पीड़ित व्यक्तियों में उपर बताये लक्षणों में से सबसे अधिक लोगों को दिमाग तथा नसों से जुड़ी तकलीफ़ें पायी गयीं।

अंत में

कोविड की वैक्सीन के दुष्प्रभावों के बारे में भी बहुत चर्चा हुई हैं और यह दुष्प्रभाव अनेक शोधों में दिखाये गये हैं, लेकिन यह थोड़े ही लोगों में हुए हैं। कोविड की वैक्सीन की एक कमी यह भी है कि इसका असर थोड़े समय के लिए लगता है और वैक्सीन लगवाये कई लोगों को भी कोविड हुआ है। लेकिन विभिन्न शोध यह भी दिखाते हैं कि वैक्सीन लगवाये हुए लोगों को बीमारी कम गम्भीर हुई, उनमें से बहुत कम लोगों को अस्पताल में भर्ती होनी की ज़रूरत हुई और उनमें से इस बीमारी से बहुत कम लोग मरे।

मेरी राय में अगर आप को अभी तक कोविड नहीं हुआ है, या आप को मालूम नहीं कि आप को लक्षणविहीन कोविड हुआ या नहीं हुआ, तो कोविड की वैक्सीन लगवाना बेहतर है। अब हर दूसरे महीने इसके नये वेरिएन्ट वायरस निकल रहे हैं जिनसे यह बीमारी तेज़ी से फ़ैलती है लेकिन बहुत कम लोगों को अस्पताल में भर्ती होना पड़ता है, इसलिए सरकारों ने अब इसकी चिंता करना कम कर दिया है। इसका मतलब है कि अगले महीनों और वर्षों में यह बीमारी आम हो जायेगी, तो कोई भी इससे बच नहीं सकता। अगर आप ने अभी तक वैक्सीन नहीं लगवायी, तो हो सकता है कि आप खुशकिस्मत हो और कोविड होगा भी तो आप को नुक्सान नहीं पहुँचायेगा, लेकिन ऐसा कोई टेस्ट नहीं जो यह बता सके। बाकी तो अगर आप इस आलेख को पढ़ रहे हैं तो जाहिर है कि आप समझदार हैं।


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