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जुलाई, 2005 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

भूले हुए शहर

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आज शाम को रिजु वापस जर्मनी चला जायेगा. आज सुबह, अगर वह जल्दी उठ जाये तो उसे बोलोनिया के पुराने बंदरगाह को दिखाने का वायदा किया है. समुद्र तट से १०० किलोमीटर दूर बोलोनिया में बंदरगाह भी होगा, कोई सोचता नहीं है. बोलोनिया की नगर पालिका शहर के इतिहास के बारे में यहाँ के नागरिकों को बताने के लिए अक्सर "रिस्कोपरीरे बोलोनिया" यानि "बोलोनिया को फ़िर से जानिये" नाम से शहर के साईकल टूर की योजना करती है. जो लोग इसमे भाग लेना चाहें वे अपनी साइकल ले कर सुबह शहर के किसी भाग में मिलते हैं और शहर के बड़े बूढे इतिहासकारों की मदद से अपने शहर के इतिहास की छोटी बड़ी घटनाओं के बारे में जान पाते हैं. ऐसे ही एक टूर में मैंने जाना कि बोलोनिया कभी नहरों के जाल से भरा शहर था. इन्हीं नहरों से आयी थी बोलोनिया की समृद्धी जब करीब चार सौ साल पहले बोलोनिया का सिल्क सारे विश्व में मशहूर था. तब शहर के बीचों बीच एक नहर पर बंदरगाह था जहाँ जहाज़ आते थे और यहाँ से सिल्क ले कर सारे संसार में जाते थे. फ़िर धीरे धीरे समय के बदलने के साथ इन नहरों और बंदरगाह की भूमिका बदलती गयी, उनका उपयोग कम होता गया और उन नह

सतही सामानतायें और नफरत की जड़ें

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हम लोग वेनिस में घूम रहे थे. मुख्य रास्ते को छोड़ कर घरों के बीच हम लोग उस वेनिस में पहुँच गये जहाँ थोड़े ही पर्यटक पहुँचते हैं. चलते चलते आ पहुँचे वेनिस के पुराने गेटो यानि उस भाग में जहाँ ज्यू रहते थे. खुले चकोर स्क्वायर में एक नल लगा हुआ था. सामने एक घर की बालकनी फ़ूलों के बोझ से दबी जा रही थी. तब तक सूरज आसमान में जोर शोर से चमक रहा था और हम लोग गरमी से पस्त हो रहे थे. नल देख कर तुरंत फुर्ती से बढ़े, हाथ मुँह पानी से भिगोने और ठंडा पानी पीने. तभी एक कमरे की खिड़की पर एक युवक प्रकट हुआ जो हमारी तरफ देख रहा था. दो पुलीस वाले भी आ गये जो हमें देख रहे थे. तुरंत कारण समझ में आ गया, रिजु कुरता जो पहने था. ज्यू कोलोनी में अनजानी पोशाक में लड़के को देख कर उन सब का चिंतित होना स्वाभाविक ही था. जाने कोई कट्टरपंथी हो जो कोई बम वगैरा फौड़ने की सोच रहा हो ! उसके बाद हम लोग वहाँ अधिक नहीं रुके. कुर्ते को देख कर अक्सर ऐसा ही होता है. पिछले हफ्ते एक्वाडोर में जलूस के समय मैंने एक लम्बा नीले रंग का कुर्ता पहना था, गले में ढोलक थी और मैं बिना सुर और ताल की परवाह किये मस्त हो कर उसे बजा रहा था, जब

अनोखा वेनिस

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पहली बार जब इटली आया था तो विचेंज़ा जाने के लिए वेनिस हवाई अड्डे पर उतरा था. पहली बार मुझे वेनिस घुमाने ले गये मेरे प्रोफेसर रित्सी. तब से अब तक जाने कितनी बार जा चुका हूँ वेनिस घूमने. कभी बारिश में, कभी तेज सर्दी और बर्फ में, और कई बार जुलाई की गर्मी में. बिबयोने से गर्मी की छुट्टियों के बाद घर वापस आते समय अक्सर रास्ते में एक चक्कर वेनिस का लग ही जाता है. और जब कोई मित्र या परिवार का सदस्य बाहर से आये तो उसे वेनिस घुमाना भी आवश्यक है. निराला, अनोखा शहर है वेनिस. जितनी भी बार देखो, हर बार वैसा ही, अविश्वास्नीय सा. सबसे अधिक अच्छा लगता है मुझे वेनिस की छुपी हुई गलियों में जाना जहाँ आम लोग रहते हैं. विषेश यादों में वह रात है जब मेरी रेलगाड़ी छूट गयी थी और रात भर रेलवे स्टेश्न के सामने सीड़ियों पर बितायी थी या जब ज्यूदेक्का द्वीप पर माधवी मुदग्ल का ओड़िसी नृत्य देखा था या जब रात को १२ बजे, मेरी क्रिस्टीन के साथ पियात्सा सन मारको में बेले नृत्य देखा था. कल रिजु के साथ वेनिस फिर लौटा. प्रस्तुत हैं इस बार की वेनिस यात्रा की दो तस्वीरें

कल के सपने

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कितने साल बीत गये. रेने और इवोन फ्राँस से आये थे. नाना जी के खेत पर उन्होंने आपना तम्बू गाड़ा था. उन्होंने ही मेरी जान पहचान करवायी मेरी क्रिस्टीन से. ३९ साल हो गये इस बात को. चिट्ठी से ही बातचीत होती थी हमारी, पहली बार मिले १९८० में जब मैं लियोन गया था. कल मेरी क्रिस्टीन का पत्र आया है. उसे आज भी चिट्ठी लिखना अच्छा लगता है जबकि मुझे किसी को चिट्ठी लिखे हुए ज़माने हो गये. पर इसे कहते हैं दोस्ती. मेरी क्रिस्टीन ने भेजा था मेरा पहला कैमरा मुझे. दूसरा कैमरा मिला था शादी पर, इतालवी मित्रों से. अपने आप खरीदा हुआ पहला कैमरा मैंने अभी कुछ साल पहले ही खरीदा था. खरीदने से पहले, कई दुकाने घूम कर आया, दोस्तों से सलाह माँगी, कई दिन सोचा. एक्वाडोर से वापस आने पर अपने खोये हुए कैमरे के बदले में नया खरीदना था, पर इस बार कहीं नहीं गया, बस अंतरजाल पर ढूँढा और एक शाम कम्प्यूटर के सामने बिता कर निर्णय लिया, वहीं से आडर दिया और आब इंतज़ार कर रहा हूँ कि आये. कोलोन से रिजु आया है कुछ दिनों की छुट्टियों में. कल रोम गया था. आज उसके साथ वेनिस जाने का सोचा है. एक्वाडोर से आने के बाद ७ घंटे के जेट लैग को अभी काबू

एक्वाडोर की यात्रा

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दो सप्ताह की यात्रा के बाद वापस आया हूँ. पहले राजधानी कीटो, फिर रियोबाम्बा, फिर कुएंका, फिर ग्वायाकिल और अंत में वापस घर. नये कीटो को टेक्सी से हवाई अड्डे से आते समय देख कर थोड़ा दुख सा हुआ. चारो तरफ ऊँचे सुदंर पहाड़ और बीच में कैंसर के नासूर की तरह हर तरफ सिमेंट के चकोर घर, एक के ऊपर एक, मधुमक्खियों के छत्तों की तरह, कहीं कोई हरियाली नहीं, कोई खाली जगह नहीं. मैं पुराने कीटो में ठहरा था जहाँ इस शहर का अपना पुराना रुप अभी भी कुछ बचा हुआ हैं. यह हिस्सा सुन्दर है. सड़कें तो ऐसी हैं जो पहाड़ों के ऊपर नीचे जाती हैं और उन पर चलने के लिये अच्छी सेहत का होना जरुरी है. कई बार सड़क ऐसे सीधे ऊपर की ओर जाती है कि यहाँ के रहने वाले भी, रुक रुक कर साँस लेने के लिये मजबूर हो जाते हैं. शहर के बीचों बीच जहाँ पुराना और नया कीटो मिलते हैं, भारत के नाम का छोटा सा स्क्वायर है जहाँ फुव्वहारों के बीच में लगी गाँधी जी की मूर्ती है. सब जगह यहाँ की जन जाती की गरीब इंडियोस् महिलायें सड़क पर कुछ बेच रही होती हैं और हर तरफ, बहुत सारे बच्चे जो हर जगह स्कूल जाने के बजाय काम में लगे हैं, दिखते हैं. जैसी गरीबी भारत में दिखत

विरह का दुख

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जुलाई-अगस्त के महीने इटली में बहुत सारे पुरुषों के लिये विरह के महीने होते हैं. यहाँ सभी विद्यालय गरमियों में तीन महीनों के लिये बन्द हो जाते हैं. बहुत सी दुकानें तथा कारखाने भी इसी समय वार्षिक छुट्टियाँ देते हैं पर वे १०-१५ दिनों की ही होती हैं. बहुत सी स्त्रियाँ बच्चों के साथ समुद्र तट पर छुट्टियाँ बिताने चली जाती हैं और उनके पति शहर में सप्ताह के दौरान काम करते हैं और सप्ताह अंत पर हाईवेस् पर कारो में घंटो लाइन में बिताते हैं अपनी पत्नियों और बच्चों से मिलने के लिये. इन दिनों में सुपर मार्किट में जाईये तो इतने अकेले पुरुष दिखते हैं चारों तरफ जितने अन्य कभी नहीं दिखते. हर कोई बनी बनायी चीज़ों के डब्बे ढूँढ रहा होता है जिसे बनाने में अधिक कष्ट न करना पड़े. आजकल हमारे भी विरह के दिन हैं. पत्नी अपनी बहन के साथ समुद्र तट पर छुट्टियाँ मना रही हैं. पुत्र जिनकी छुट्टियाँ तो हैं पर वह घर पर हमारे साथ हैं कहते हैं काम करना है पर मेरा ख्याल है कि काम से ज्यादा अंतरजाल और मित्रों का मोह है जो उन्हें यहाँ रोके हुए है. काम पर जाओ, खरीददारी करो, कभी कुछ सफाई करो, रोज खाना बनाओ और बर्तन साफ करो. सुप

थोड़ी सी ... गंगा

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बोलोनिया से करीब पचास किलोमीटर दूर एक शहर है रेजियो एमिलिया. यहाँ के आस पास पिछले दस सालों में बहुत से सिख परिवार बस गये हैं, जो कि गाय पालने तथा दूध के काम से जुड़े हुए हैं. क्योंकि इटली के रहने वाले लोग इस काम को नहीं करना चाहते, और इन बड़े फार्म को काम करने चाहिये थे, इसलिये इस सारे क्षेत्र में पंजाब से आये इन परिवारों की वजह से एक छोटा पंजाब बन गया है यहाँ और उनका अपना एक गुरुद्वारा भी है. इसी क्षेत्र में एक अन्य भारतीय युवक मुकेश चन्द्र के प्रयत्न से पिछले दस वर्षों से हर साल एक नया उत्सव मनाया जाता है जिसका नाम है "थोड़ी सी ... गंगा". इस उत्सव में इटली की सबसे बड़ी नदी पो के किनारे ग्वास्ताला नाम की जगह पर एक छोटा सा मेला लगता है, कुछ गीत संगीत होता है और भारत से लाया गया गंगा का पानी पो नदी में मिलाया जाता है जो दो देशों तथा सभ्यताओं के मिलन का प्रतीक है. इस वर्ष यह उत्सव कल १० जुलाई को मनाया गया और उसमे शामिल होने के लिये बोलोनिया की भारतीय एसोसियेशन का ८ व्यक्तियों का दल भी गया जिसमे मैं भी था. नीचे तस्वीरों में दो नदियों के जल के संगम समारोह के दौरान पो नदी के किनारे प

मनमोहन सिंह की ब्रिटिश प्रशंसा

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आशीष ने अपने लेख में भारत के प्रधानमंत्री द्वारा इंगलैंड में ब्रिटिश शासन की प्रशंसा के बारे मे क्षोभ व्यक्त किया है. शायद मनमोहन सिंह सोचते हैं कि किसी के घर जा कर उनकी बुराई नहीं करनी चाहिये ? मैं आशीष की बात से सहमत हूँ. पर यहाँ मैं भारत के ब्रिटिश शासन के बारे में कुछ अन्य पहलुओं की बात करना चाहता हूँ. पिछली सदियों में एशिया, अफ्रीका और दक्षिण अमरीका के बहुत से देशों पर यूरोपीय उपनिवेशवाद की वजह से विदेशी शासन हुए. मुझे इनमें से कई देशों की यात्रा का मौका मिला. मेरे ख्याल से इन सभी उपनिवेशवादी देशों में से शायद अंग्रेज़ ही बेहतर थे क्योंकि उन्होंने उन देशो में शिक्षा, स्वास्थ्य, रेलवे, यातायात इत्यादी शासन की कुछ संस्थाएँ छोड़ीं. इनकी आलोचना की जा सकती है, पर कम से कम आलोचना करने के लिए कुछ है तो सही. बैल्जियन या पोर्तगीज शासनों ने कहीं कुछ नहीं छोड़ा, सिर्फ लूटा. स्पेन ने तो दक्षिण अमरीका में पूरी की पूरी जन जातियों का खातमा कर दिया. इसका यह अर्थ नहीं कि अंग्रेजी शासन भारत के लिये अच्छा था, केवल यह कि अगर विदेशी शासन होना ही था तो अच्छा हुआ कि वह अंग्रेज़ो का हुआ, स्पेनिश, बैलजियन य

एक बार जब ...

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लंदन के बम विस्फौट की घटना के बारे में सोचने से, अपनी अन्य कई यात्राओं के बारे में याद आ गया, जब कोई विशेष बात हुई थी. पिछले १७‍-१८ वर्षों में इतनी बार यात्रा की है कि सबके बारे में याद रखना तो कठिन है पर फ़िर भी कई बार ऐसा हुआ कि उसे भूल पाना संभव नहीं है. लंदन में रात शायद १९९४ या १९९५ की बात है. जून का महीना था और मैं लंदन मे हमेशा की तरह हैमरस्मिथ के इलाके में एक होटल में ठहरा था जहाँ पहले भी बहुत बार ठहर चुका था. रात को गरमी बहुत थी, होटल में एयरकंडीशनिंग नहीं थी और न ही कोई पंखा था. कमरे की खिड़की ऐसी थी जो बस ऊपर से थोड़ी सी खुलती थी. इसलिये बस जाँघिया पहन कर सो रहा था. अचानक रात में कुछ शोर से नींद खुल गयी. खिड़की के बाहर से कुछ अजीब सी आवाज़ आयी थी. मैंने बिस्तर के पास की बत्ती जलायी और उठ कर खिड़की के पास आया. बाहर जो देखा तो एक क्षण के लिये दिल रुक सा गया और फिर बहुत तेज़ी से धड़कने लगा. होटल के चारों ओर हाथों में बंदूके लिये पुलिस वाले थे. उनमें से कुछ मेरी खिड़की की रोशनी जलने से सिर उठा कर मेरी तरफ ही देख रहे थे. जल्दी से बत्ती बंद कर, मैंने खिड़की पर परदा कर दिया. एक बार तो सोच

लंदन के बम विस्फौट

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जब लंदन के बम विस्फौट का समाचार मिला तो सबसे पहली बात जो मन में आयी, वह अपनी जान बचने की खुशी की थी. फ़िर जब अंतरजाल पर विस्फौट के बारे में पढा तो एक पल के लिये काँप गया. केवल २४ घंटे पहले, सुबह वही बम विस्फौट के समय पर मैंने भी हैमरस्मिथ तथा सिटी लाईन से उन्हीं स्टेशनों से गुज़रा था, एड्जवेयर रोड, किन्गस् करौस, लिवरपूल स्ट्रीट, क्योंकि सटेनस्टेड हवाई अड्डे की गाड़ी वहीं से चलती है. जब ब्रिक लेन ढूँढते ढूँढते अल्डगेट स्टेशन पहुँच गया था तो वहाँ एक महिला ने रास्ता बताया था. उन जानी पहचानी जगहों की अनजानी तस्वीरें टेलीविज़न पर देख कर अज़ीब सा लग रहा था. मेरे बेटे की एक मित्र लंदन गयी है कुछ दिन पहले, उसे उसकी चिंता हो रही थी. मेरे एक अन्य मित्र का बेटा टेविस्टोक प्लेस में रहता है, जहाँ बस में विस्फौट हुआ तो उनका परिवार भी परेशान था. मोबाइल टेलीफोन काम नहीं कर रहे थे. फिर शाम होते होते सब के समाचार मिल गये. सब ठीक ठाक हैं, किसी को कुछ नहीं हुआ, तो जान में जान आयी. लंदन वालों का खयाल आता है मन में. क्या इस घटना से उनके रहने, घूमने में कोई अंतर आयेगा ? अगर दिल्ली के १९८५‍-८६ के दिनों के बारे

काल्पनिक यात्रा

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काल्पनिक यात्रा अगले सप्ताह मुझे एकुआडोर जाना है. वहाँ जन स्वाथ्य अभियान की अंतरराष्ट्रीय सभा हो रही है, देश के दक्षिणी भाग में स्थित शहर कुएंका में. ञेरा विचार है कि देश की राजधानी कीटो में पहँच कर वहाँ से कुएंका तक की यात्रा बस में करुँ, रास्ते में छोटे शहरों या गावों में रुक रुक कर. १३ तारीख को कीटो पहुँच जाऊँगा और १६ तारीख को कुएंका पहुँचना है तो इसका मतलब है कि खीटो से कुएंका की यात्रा मैं २-३ दिनों में आराम से कर सकता हूँ. यात्रा में जाने से पहले काल्पनिक यात्रा के अपने ही मजे हैं. यहाँ के पुस्तकालय से मैं एकुआडोर की पर्यटन की एक पुस्तक ले कर आया हूँ जिसमें अपनी यात्रा की योजना बना रहा हूँ. साला बोरसा, बोलोनिया का अनौखा पुस्कालय साला बोरसा एक बहुत पुरानी इमारत है बोलोनिया शहर के सबसे प्रमुख पियात्सा में जिसका नाम है पियात्सा माजोरे (पियात्सा यानि खुली चकोर-आकार की जगह. इटली में में, ऐसी खुली जगहों की समाज की सामुदायिक जिन्दगी में बहुत महत्व है जहाँ लोग मिलते हैं, बैठते हैं, बातें करते हैं), करीब दो हज़ार साल पुरानी. इस पुरानी इमारत का पुराना रुप कायम रखते हुए इसे अंदर से बिल्कुल

लंदन का छोटा बंगलादेश, ब्रिक लेन

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लंदन जाना मुझे अच्छा लगता है हाँलाकि वहाँ जाने का अर्थ अधिकतर मेरे लिये अंतहीन मीटिंगस् होती हैं, जो जब स्माप्त होतीं हैं तो सिर दर्द कर रहा होता है. इस बार भी यूँ ही हुआ. जो कसर बची थी वह बारिश और ठंड ने पूरी कर दी. फ़िर भी सोचा कुछ तो अपने होटल से बाहर निकलना ही चाहिये. यही सोच कर मैं ब्रिक लेन की तलाश में निकल पड़ा. लंदन की गाईड पुस्तिका कहती है कि ब्रिक लेन पहले घटिया सा गन्दा इलाका समझा जाता था, पर आज बंगलादेशी समुदाय के लोगों की वजह से सारे इलाके का काया पलट हो गया है. लिवरपूल स्टेशन के आसपास का सारा इलाका आज तो बहुत सुंदर लगता है. हाथ मे नक्शा ले हर मैं भी निकल पड़ा. चलते चलते बहत दूर निकल आया पर आसपास "छोटे बंगलादेश" का कोई निशान नहीं दिखा. फ़िर नक्शे को दुबारा से देखा. इतना छोटा छोटा सब दिखाया था उस नक्शे में के कि सड़कों के नाम पढने के लिये मुझे ऐनक उतार कर उसे आँखों के पास लाना पड़ा पर फ़िर भी कुछ समझ नहीं आया. शायद मेरी सूरत देख कर उन्हें दया आ गयी और एक महिला रुक गयीं. मैंने पूछा तो उन्होंने इशारे से रास्ता बताया. फ़िर से चल दिया और फ़िर से काफ़ी चलने के बाद भी जब ब्

@ का हिन्दी अनुवाद

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@ को अंग्रेज़ी मे तो एट कहते ही हैं पर अन्य भाषाओं में क्या कहते हैं ? इतालवी में इसे कहते हैं कियोच्योला और फ्रासिसी में एसकारगो, दोनो का अर्थ है घोंघा. रुसी में कहते हैं सोबाका यानि कुत्ता और ग्रीस भाषा में पापाकी यानि छोटी बतख. इज़राईल वाले इसे स्टूर्डल यानि सेब का केक और कुछ अन्य देशों में इसे बन्दर कहते हैं इसकी लम्बी पूंछ के लिए. तो हिन्दी में क्या अनुवाद होगा इसका ? भोपाल एक्सप्रेस कल शाम को १९९९ में बनी महेश मथायी द्वारा निर्देशित फिल्म भोपाल एक्सप्रेस देखी. यूनियन कारबाईड के कारखाने से निकली गैस की "दुर्घटना" के दृश्य भयानक भी हैं दर्दनाक भी. देख कर दुख यही होता है कि अपने भारत में जब हज़ारों गरीब लोग इस तरह से मर सकते हैं तो हमारी सरकार अपने लोगों की रक्षा तो कर नहीं पाती पर उन्हें न्याय दिलाने में भी कुछ नही् करती. यह फ़िल्म अंतरजाल पर निःशुल्क रियल मीडिया प्लैयर पर देखी जा सकती है, भोपाल डाट एफ एम के वैब पृष्ठ पर. मुक्तिबोध की एक कविता की कुछ पंक्तियाँ: अन्तःकरण का आयतन संक्षिप्त है आत्मीयता के योग्य मैं सचमुच नहीं. पर, क्या करुँ, यह छाँह मेरी सर्वगामी है. हवाओं

खोये हुए शब्द

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हंगरी की सुप्रसिद्ध लेखिका अगोटा क्रिसटोफ स्विटज़रलैंड में रहती हैं. कम्यूनिस्ट शासन के दिनों में, १९५६ मे उन्हें अपना देश छोड़ कर परदेस मे शरण लेनी पड़ी थी और उनका सारा लेखन फ्रांसिसी भाषा मे है. उनकी प्रसिद्ध तीन किताबों की श्रिंखला है, " के का शहर " जिसे मैने कुछ वर्ष पहले पढा था. लिखने का अनोखा अंदाज़ है उनका. गिने चुने शब्द, छोटी पतली किताबें, छोटे छोटे, एक पन्ने या आधे पन्ने के अध्यायों में विभाजित. पर हर एक शब्द चुना हुआ, पैने चाकू की तरह जो दिल की गहराईयों मे घुस जाते हैं. उनकी आत्मकथा आयी है, "अनपढ". इसमे अपने फ्रांसिसी भाषा मे लिखने के बारे मे अगोटा कहती हैं "सबसे बड़ा क्षय तब हुआ जब मुझसे मेरी मात्तृ भाषा खो गयी, चीज़ों की पहली भाषा, भावनाओं की, रंगों की, शब्दों की, पुस्तकों की, साहित्य की भाषा. जिस जैसी अन्य कोई भाषा नहीं. जो जब खो गयी तो साहित्य और लेखन भी खो जाते हैं, और हम फ़िर से अनपढ बन जाते हैं ..." ऐसा ही कुछ लगता है मुझे. यह तो नहीं लगता कि मैं अनपढ हो गया हूँ पर एक एहसास अवश्य है कि अंग्रेज़ी या इतालवी भाषा में महसूस की गयी, सोची और लि

अंतरजाल का कमाल

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सुबह सुबह उठ का तैयार हुआ और रेलवे स्टेश्न गया. रोम तक की यात्रा में करीब तीन घंटे लगे. फ़िर वहाँ से मैट्रो ली, फ़िर बस. देखने में तो जगह बहुत सुंदर थी हाँलाकि कुछ दूर अवश्य थी. पहाड़ियाँ और हरे भरे पेड़. होटल ढूंढने थोड़ी कठिनाई हुई, पहुँचते पहुँचते, पसीने कमीज़ पीठ पर चिपकने लगी थी, होटल एक पहाड़ी पर जो था. देखा तो दिल धक्क सा रह गया. दीवार पर उतरे हुए रंग, गिरती हुई सी दीवारें. अंदर भी वैसा ही हाल. हर चीज़ पर धूल की परत, थोड़े से लोग इधर उधर बैठे. अंतरजाल, यानि इंटरनैट पर तो बहुत अच्छा लग रहा था. पर सच्चाई अंतरजाल मे दिखाये गये सच से बिल्कुल भिन्न थी. वह होटल हमारी मीटिंग के लिये उपयुक्त नहीं था. इतनी दूर आ कर मायूसी. फ़िर वापस बोलोनिया आने के लिये, उतनी ही लम्बी यात्रा और पूरे रास्ते पछता रहा था कि यूँ ही सारा दिन बेकार किया. अब कोई अन्य जगह ढूँढनी पड़ेगी. अंतरजाल का कमाल, गधे को दिखाया घोड़े की चाल. नई कहावत है यह मेरी. सोचता हूँ, कैसे लोग ईबे (ebay) जैसी जगह से चीज़े खरीद लेते हैं, क्या उन्हें भी ऐसे लोग धोखा दे सकते हैं ? फ़िर सोचा, आज के भूमंडलीकरण और अंतरजाल की दुनिया मे अपनी भावनाओं

ब्लौग शिष्टाचार नियम

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जैसे ईमेल के शिष्टाचार नियम हैं, वैसे ही चिट्ठे के भी शिष्टाचार नियम होंगे ? जब कोई आप के एक चिटठे पर कोई टिप्पड़ीं लिखे तो क्या करना चाहिये ? क्या सभी टिप्पड़ीं लिखने वालों को अलग अलग उत्तर देना चाहिये ? और अगर ऐसा न किया जाये तो क्या इसका अर्थ है कि आप में शिष्टा की कमी है ? और कैसी बातें लिख सकते हैं चिट्ठे में ? क्या उसके भी शिष्टाचार नियम हो सकते हैं ? और अगर आप किसी के बारे में ऊल जलूल कुछ भी लिख दें, तो क्या वह व्यक्ति आप पर मान हानि का दावा कर सकता है ? और अगर ऐसे नियम हैं भी तो किसने बनाये हैं ? कौन पढता है चिट्ठों को और क्यों ? समय गुज़राने के लिये यूँ ही ? कितने सारे सवाल. पर वह सवाल जिसका उत्तर जानने के मुझे शायद सबसे अधिक इच्छा है, क्यों लिखते हैं हम ये चिट्ठे ? इस अंतिम सवाल के बारे में सोचता हूँ कि शायद हर किसी के मन में आत्म अभिव्यक्ति की इच्छा होती है, पर यह डर भी होता है कि जो हम कहना चाहते हैं, वह किसी को अच्छा लगे या न लगे, और अगर हम उसे किसी पत्रिका या अखबार में भेजने का साहस कर भी लें तो कोई उसे छापेगा नहीं और इससे हमारे आत्म सम्मान को ठेस लगेगी. इंटरनेट तथा चिट्ठे