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जनवरी, 2013 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

दो बहने़ - जापानी गेइशा और भारतीय मुजरेवाली

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जापानी कला प्रदर्शनी लगी थी, जिसका विषय था "उक्कियो ए" (Ukiyo e), यानि "तैरता शहर". सत्रहवीं शताब्दी के जापान में कला दिखाने वाले लोगों को नैतिक दृष्टि से हीन माना जाता था इसलिए उन्हें शहर के बाहर नदी पर रहने को विवश किया जाता था. नावों पर रहने वाले इन लोगों को "तैरता शहर" कहते थे. तैरते शहरों में रहने वाले लोगों में गेइशा (Geisha), चित्रकार, नाटक के अभिनेता, कवि, लेखक, वैश्याएँ, आदि लोग होते थे. अक्सर समाज ऐसा करते हैं कि जिन व्यक्तियों को नैतिक दृष्टि से हीन या अवँछनीय मानते हैं उन्हें समाज से बाहर निकालने का नाटक करते हैं. पर समाज में जिन ज़रूरतों को पूरा करने के लिए वह काम होते हैं, उनको नहीं रोक पाते और समाज के हाशिये पर सब कुछ वैसे ही चलता रहता है. हाँ उसमें कानून के रखवालों का भ्रष्टाचार और दमन भी जुड़ जाते हैं. कुछ ऐसा ही "उक्कियो ए" के समाज के साथ भी हुआ. उनको जापानी भद्र समाज ने बाहर तो किया पर उससे नाता नहीं तोड़ा. शाम होते ही, अँधेरे में "उक्कियो ए" में रोशनियाँ जल जातीं और शहर के जाने माने लोग मनोरँजन के लिए वहाँ पहुँ

अगर ..

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कल्पना ने आँखें नीचे करके कनखियों से उसकी ओर देखा तो उसका दिल पिघल गया. कुछ दिन पहले ही मिले थे पर थोड़े दिनों में ही ऐसे घुलमिल गये थे मानो सदियों का रिश्ता हो. और आज पहली बार दोनो ने प्यार किया था. कल्पना ने ही उसे अपने घर बुलाया था कि वह घर पर अकेली थी. इतनी जल्दी शारीरिक सम्बन्ध बनाना उसे कुछ ठीक नहीं लगा था पर वह कल्पना को न नहीं कह पाया था. वह सारी शाम इसी तरह एक दूसरे की बाँहों में गुज़ार देना चाहता था लेकिन कल्पना उठ बैठी थी, और कपड़े पहनने लगी थी. "क्या हुआ, मेरे पास बैठो न!" उसने कहा था तो कल्पना ने नाक भौं सिकोड़ ली थी. "अभी समय नहीं, मुझे सहेलियों के साथ फ़िल्म देखने जाना है! चलो उठ कर जल्दी से कपड़े पहन लो, नहीं तो मुझे देर हो जायेगी." "कौन सी फ़िल्म जा रही हो? मैं भी चलूँ?" कल्पना उसकी ओर देख कर मुस्करा दी थी, "पागलों जैसी बात न करो, तुम लड़कियों के बीच में क्या करोगे? चिन्ता न करो, मैं तुम्हें जल्दी ही टेलीफ़ोन करूँगी." उससे रहा नहीं गया था और वह मचल उठा था, "मैं तुमसे दूर नहीं रह सकता. आज फ़िल्म का प्रोग्राम बदल