अत्याचार की नींव
इन दिनों टेलीविज़न पर मयनमार (बर्मा) में हो रहे आंदोलन के दृष्यों को देख कर खुशी भी होती है और मन में दहशत भी. तानाशाहों के दमन से दब कर रहने वालों में जब अपनी आवाज़ उठाने का साहस आता है तो उन्हें स्वयं भी विश्वास नहीं होता. सड़क पर निकलने वाली भीड़ में खुद को पा कर कैसा लगता होगा, इसकी कल्पना मैं कर सकता हूँ. और तानाशाह क्या करेगा? गोली चला कर आंदोलन को दबायेगा या समझ जायेगा कि हर अत्याचार की तरह, उसके अत्याचार की नींव बहुत कच्ची है, हल्के से धक्के से गिर जायेगी? 1968 के चेकोस्लोवाकिया के वसंत की याद आती है, जब अगस्त में रूसी टैंक प्राग में घुस आये थे और उस वसंत को बँदूक की ताकत से दबा दिया था. चेकोस्लोवाकिया के वसंत के बारे में केवल पढ़ा था, जबकि 1989 में चीन में हो रहे विद्यार्थी आंदोलन को करीब से देखने का मौका मिला था. पहले सियान में पुराने जनरल सेक्रेटेरी हू याओबेंग के मृत्यु के बाद हो रहे धरनो और जलूसों को देखा फ़िर, बेजिंग में तियानामेन स्क्वायर में विद्यार्थियों का आंदोलन देखा था. कुछ आंदोलनकारी छात्रों से बात की थी. बेजिंग छोड़ने के दो दिन बाद जब टेलीविज़न पर टैंकों को उसी तियानाम