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अगस्त, 2009 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

श्वास की मिठास

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इस साल तो कोई भी अच्छी हिंदी फ़िल्म देखने को तरस गये. "न्यू योर्क" या "लव आज कल" जैसे नामी फ़िल्मों से भी उतना संतोष नहीं मिला. "संकट सिटी" और "कमीने" के बारे में अच्छा पढ़ा है पर देखने का मौका नहीं मिला. पर कुछ दिन पहले 2003 की बनी एक मराठी फ़िल्म देखी "श्वास" तब जा कर लगा कि हाँ कोई बढ़िया फ़िल्म देखी. फ़िल्म को बनाया था संदीप सावंत ने और सीधी साधी सी कहानी है, कोई बड़े नामी अभिनेता या अभिनेत्री नहीं हैं, लेकिन फ़िल्म मन को छू गयी. कहानी है परशुराम (अश्विन छिताले) की, छोटा सा बच्चा जो अपनी उम्र के सभी बच्चों की तरह खेल कूद और शरारतों में मस्त रहता है, बस एक ही कठिनाई है कि बच्चे को कुछ दिनों से देखने में कुछ परेशानी हो रही है, जिससे न पढ़ लिख पाता है, न ठीक से खेल पाता है. परशु के पिता बस में कँडक्टर थे पर एक सड़क दुर्घटना से विकलाँग हो कर घर में रहते हैं, इसलिए परशु की चिंता उसके दादा जी केशवराम (अरुण नालावड़े) करते हैं. दादा जी ही परशु को ले कर पहले गाँव के डाक्टर के पास ले कर जाते हें जो उन्हें परशु को शहर के बड़े आँखों के डाक्टर

चाँद और आहें

कुछ दिन पहले आयी एक फ़िल्म "शार्टकट" का एक गीत सुना तो बहुत अच्छा लगा. "कल नौ बजे तुम चाँद देखना, मैं भी देखूँगा, और फ़िर दोनो की निगाहें चाँद पर मिल जायेंगी" मन में तीस या चालिस साल पहले देखी फ़िल्म "शारदा" की याद आ गयी जिसमें कुछ इसी तरह का गीत था, "ऐ चाँद जहाँ वो जायें, तुम साथ चले जाना". जब हीरो राजकपूर कहीं पर चला जाता है और पीछे से उसकी पत्नी या प्रेयसी यह गीत गाती है. इस फ़िल्म की कहानी बहुत अज़ीब थी. राजकपूर जी प्यार करते हैं शारदा यानि मीना कुमारी से, वह कहीं जाते हैं तो पीछे से शारदा का विवाह उनके पिता से हो जाता है, और जब वह घर वापस आते हें तो पिता की नयी पत्नी को देख कर दंग रह जाते हैं. इस तरह भी हो सकता है, इस बात को माना जा सकता है, बिमल मित्र के उपन्यास "दायरे के बाहर" में भी यही होता है, लेकिन शारदा का यह कहना कि उनके पुराने प्रेमी अब उन्हें माँ कह कर पुकारें और माँ के रूप में सोचें, मुझे बहुत अजीब लगा था और बेचारे राज कपूर पर बहुत दया आयी थी. बिमल मित्र ने अपने नायक शेखर से इस तरह की बात नहीं की थी. खैर शारदा की बात