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अक्तूबर, 2005 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

अनोखा शब्दकोष

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कुछ सप्ताह पहले मैंने हिंदी के ऐसे शब्दों के बारे में लिखा था जिनका अंग्रेजी में अनुवाद करना सरल नहीं है. इसी विषय पर एक नयी पुस्तक लिखी है आदम जोआको दे बोआनो (Adam Jacot de Boinod) ने, The meaning of Tingo (टिंगो का अर्थ), जिसमें दुनिया कि विभिन्न भाषाओं से ऐसे शब्द ढ़ूढ़े हैं जिनका अनुवाद एक शब्द में नहीं हो सकता. इस पुस्तक से कुछ नमूने पस्तुत हैं: पानापोओ (हवाई भाषा) का अर्थ है किसी भूली हुई बात को याद करते हुए सिर खुजलाना माताएगो (पास्क्वा द्वीप) का अर्थ है लाल सूजी आँखें जिनसे साफ पता चले कि थोड़ी देर पहले रोये हैं करेलू (तुलू जाति) यानि शरीर के किसी भाग पर तंग कपड़े द्वारा छोड़ा गया निशान बक्कूशान (जापानी) यानि ऐसी युवती जो पीछे से सुंदर लगे पर सामने से सुंदर न हो इक्तसुआरपोक (साईबेरियन), किसी आनेवाला का इंतजार करते समय बार बार टैंट से बाहर जा कर देखना टोर्शलुस्सपानिक (जर्मन), बूढ़े होने के साथ सम्भावनाँऐ और मौके कम मिलने का डर फाआमिति (समोआ द्वीप) बच्चे या कुत्ते का ध्यान खींचने के लिऐ हौंठ सिकोड़ कर आवाज करना आज की तस्वीरे हें, १. मध्यपूर्व इटली के समुद्र के किनारे बसे शहर मोंतेसिलवान

रयू सिसमोंदि

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जेनेवा में फ्राँसिसी भाषा बोलते हैं. कुछ वर्ष पहले, मुझे कई महीने जेनेवा में रहना पड़ा. होटल में इतने दिन ठहरना तो बहुत मँहगा पड़ता, इसलिए किराये पर घर ढ़ूँढ़ा. बेटा स्कूल में था, इसलिए वह और पत्नी इटली में ही रह रहे थे और मैं सप्ताह के अंत में दो दिनों के लिए हर हफ्ते वापस इटली में अपने परिवार के पास आता था. रहने के लिए कमरा मिला रयू सिसमोंदि में, यानि कि सिसमोंदि मार्ग पर. जेनेवा के रेलवे स्टेश्न के करीब का यह इलाका सेक्स संबंधी दुकानों, छोटे छोटे होटलों और रेस्टोरेंट से भरा है. मेरी मकान मालकिन, जिजि, अमरीकी थी और मोरोक्को के एक युवक के साथ, मकान के सबसे ऊपर वाले हिस्से में सातवीं मज़िल पर रहती थी, जहाँ केवल लिफ्ट से जा सकते थे. ऊपर पहुँचने पर लिफ्ट के दाहिने ओर जिजि का घर था और बायीं ओर तीन कमरों में तीन किरायेदार पुरुष, जिनके लिए एक रसोई और गुसलखाना भी था. मेरे साथ वाले कमरे में कौन रहता था, उन पाँच महीनों में उसे कभी नहीं देखा. हाँ हर सुबह उसे सुना अवश्य. क्या काम करता था, यह तो मालूम नहीं, पर रोज सुबह पौने पाँच बजे उसका अलार्म बजना शुरु हो जाता, और करीब पंद्रह मिनट तक बजता रहता.

यह हमारे परिवार

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रात को ११ बजे जब मोंतेसिलवानो से घर वापस लौटा तो कई हफ्तों के बाद चैन से सोया. पिछले तीन सप्ताह भागमभाग में निकल गये, ठीक से साँस लेने का भी समय नहीं था. रोम, दिल्ली, पादोवा, जेनेवा, मोंतेसिलवानो, तीन हफ्तों में तीन देशों में पाँच शहर घूमा हूँ. ऐसे घूमने में सबसे बुरी बात है कि किसी भी यात्रा को ठीक से जी सकने का मौका नहीं मिलता. सब यात्राँए काम से संबंधित थीं पर दिल्ली यात्रा के दौरान, एक परिवारिक काम भी था, बेटे की शादी पक्की करना. जीवन एक चक्र है. लगता है जैसे कल ही तो बेटा पैदा हुआ था. थोड़े दिनों में वह अपना नया परिवार बनायेगा और हमारा परिवार बड़ा बन जायेगा. शायद इसी लिए जेनेवा में झील के किनारे लगी संयुक्त राष्ट्र संघ की फोटो प्रदर्शनी मुझे बहुत अच्छी लगी. फ्राँस में रहने वाली फोटोग्रागर, उवे ओम्मर, ने यह तस्वीरें कई वर्षों तक विभिन्न देशों में घूम कर खींची हैं. फोटो में विभिन्न देशों के परिवार हैं. भारत के दो प्रतिनिधि परिवार हैं, एक राजस्थान में उदयपुर के पास का गाँव का परिवार जो फ़ूलवती की कहानी बताता है, फ़ूलवती विधवा हैं और अपने भाई के परिवार के साथ रहती हैं. दूसरा दिल्ली का ए

रामायण के पात्र

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रामायण में कई पात्र हैं जिनके नामों के बारे में अगर सोच कर देखें तो कुछ अजीब सा लगता है. जैसे मुनि विश्वामित्र जी, जो बहुत गुस्से वाले हैं और छोटी छोटी बात पर श्राप दे देते हैं, पर नाम पाया है विश्वामित्र. एक अन्य नाम जो मुझे समझ नहीं आता वह है रावण की पत्नी मंदोदरी का, मेंदोदरी यानि मंद उदर वाली ? क्या बेचारी को हाजमे की तकलीफ थी या फिर बच्चे पैदा करने में कोई कठिनाई थी ? कैसे माँ बाप थे उसके, जिन्होंने अपनी बेटी को यह नाम दिया ? पर रामायण का वह पात्र जिस पर मुझे सबसे अधिक दया आती है, वह है बेचारा कुम्भकरण. कुम्भ जैसे कानो वाला, अपने बच्चों के नाम रखता है कुम्भ और निकुम्भ, छः महीने सोता है और शायद जोर से खुर्राटे भी लेता है. उसे जगाना आसान नहीं. लगता है उसका काम ही विदूषक और खलनायक का मिला जुला रुप निभाना है. उसका व्यक्तित्व रामायण में अजीब सा है और उसके व्यावहार में तुक नहीं है. लंका काँड में जब उसके बेटे युद्ध में मर रहे हैं, वह सो रहा है. जब रावण के सभी संबंधी और प्रमुख योद्धा युद्ध में मर जाते हैं, तब जाता है रावण आपने भाई कुम्भू को जगाने. उठ कर, भाई की बात सुन कर कुम्भकरण जी बिलख

लम्बी गरदन वाली लड़कियाँ

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मुझे बचपन से ही चित्र बनाना बहुत अच्छा लगता था और चित्रकार बी प्रभा मुझे सबसे अधिक प्रिय थीं. उनके चित्रों की लम्बी गरदन, और लम्बे पर सुरमय शरीरों वाली लड़कियाँ मुझे बहुत भाती थीं. पुरानी हिंदी की सप्ताहिक पत्रिका, धर्मयुग में अक्सर उनके चित्र छपते. धरती के गर्म पीले, भूरे, मटियाले रंगों में बने उनके चित्र देख कर मैं उनकी नकल बनाने की कोशिश करता. उनके चित्रों की पात्र अधिकतर स्त्रियाँ होती थी, मुझे पुरुष चरित्र वाला उनका कोई चित्र नहीं याद. उन्हें मछुआरों के जीवन संबंधी चित्र बनाना शायद अच्छा लगता था, पर उनका जो चित्र मुझे आज तक याद है उसमें पिंजरे के पंछी को लिए खड़ी एक युवती थी. आज लगता है कि शायद उनकी चित्र बनाने की शैली अमृता शेरगिल की चित्रकला शैली से मिलती थी. अगर आप बी प्रभा के बारे में और जानना चाहते हैं या उनके चित्रों के दो नमूने देखना चाहते हैं तो अभिव्यक्ति में उन पर छपा लेख पढ़िये. विदेश में प्राचीन भारतीय कला का बाजार तो पहले ही था, आज आधुनिक भारतीय कलाकारों ने विदेशी बाजार में प्रतिष्ठा पानी प्रारम्भ कर दी है और प्रसिद्ध कलाकारों के चित्र लाखों डालर में बिकते हैं. बचपन में

भारत से पोस्टकार्ड

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लगता है जैसे जीवन फिरकनी की तरह घूम रहा है, एक दिन यहाँ, दूसरे दिन वहाँ, न रुकने की फुरसत, न सोचने की. आठ दिन रहा भारत में, भागते भागते ही निकल गये. घर वापस आया, पर समय केवल अटैची से गंदे कपड़े निकाल कर साफ कपड़े डालने का है. दो या तीन दिनों की छोटी छोटी यात्राँए हैं, एक दूसरे से जुड़ी हुई, रात को कहीं से वापस आओ और सुबह फिर निकल पड़ो. किसी को न कह पाने की अपनी आदत को कोसते समय, २९ अक्टूबर को जब यह भागदौड़ समाप्त होगी तो चार दिन की छुट्टी का सोच कर मन को दिलासा देता हूँ और कहता हूँ कि फिर दोबारा ऐसा नहीं होने दूँगा. यह चिट्ठा लिखना ऐसे में ध्यान करने जैसा लगता है, जँगली घोड़ों की तरह भागते विचारों को ध्यान करने बैठूँ तो शायद थमा नहीं पाँऊ, पर लिखते समय सोचना, लिखे वाक्यों को पढ़ना और ठीक करना, उन विचारों को साध लेता है. इस बार की भारत यात्रा की यादें, छोटे छोटे पोस्टकार्ड हैं. दुर्गा पूजा के पंडाल में मिष्टी दोई, और दुर्गा माँ के समाने नाचते भक्त्त. दशहरे के जलते रावण के पुतले और पटाखों का शोर. दिल्ली के पुराने किले में देखा बिरजू महाराज और उनके नृत्य विद्यालय के छात्रों का कत्थक नृत्य समारोह

लैला के मँजनू

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कल सारा दिन एक पुराना गाना गुनगुनाता रहा. कभी कभी ऐसा होता है कि कोई गाना जीभ से चिपक जाता है सारा दिन बार बार उसे गुनगुनाये बिना रहा नहीं जाता. कल का वह गाना था रुना लैला का, "मेरा बाबू छैल छबीला.." और इसीलिए रुना लैला और उन दिनों के दूरदर्शन के बारे में याद आ गयी. ठीक से साल याद नहीं पर शायद १९७७ के आसपास की बात होगी. रुना लैला को "दमा दम मस्त कलंदर" गाते देखा तो अन्य हजारों की तरह हम भी उनके मँजनू हो गये. उनकी हर अदा पर फिदा थे. वे दिन थे "हम लोग" और "बुनियाद" के. जाने कहाँ गयीं और आज क्या करतीं होगीं वह ? क्या वह अभी भी गाती हैं ? "हम लोग" में मेडिकल कोलिज का मेरा साथी अश्वनि, डाक्टर का भाग निभा रहा था. उन दिनों हमारी छोटी बहन दूरदर्शन पर एनाउँसर थीं और कुछ छोटे मोटे कार्यक्रम किये थे, उससे समाचार मिलते, "बड़की बम्बई जा रही है, फिल्मों में कोशिश करना चाहती है". बुनियाद की बीजी और बाऊजी, अनीता कँवर और आलोक नाथ, और उनके परिवार की गाथा में क्या हुआ यह जानने की उत्सुकता रहती. पुराने रंगहीन टेलीविजन पर देखे वे प्रोग्राम आज भी या

बादल गाये राग मल्हार

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टेलीविजन पर पश्चिमी (western) फिल्म देख रहा हूँ जिसमें बंदूक वाले भोले भाले गोरे डर के भागते बदमाश रेड इंडियनस् को मक्खियों की तरह मार रहे हैं जैसे भोले भाले बच्चे मजे लेने के लिए तितलियों के पँख खींच खींच कर उन्हें मारते हैं तो रेड इंडियनस् संदेश भेज रहे हैं, पहाड़ों पर आग जला कर उस पर धूँआ बनाते है और धूँए के गोल गोल बादल उठ कर हवा में ऊपर उड़ते हैं, जरुर इन रेड इंडियनस् ने कालिदास की मेघदूत से प्रेरणा पायी होगी जिसमें आकाश में उड़ते बादलों को देख कर उनके हाथ अपना संदेश अपनी प्रेयसी के पास भिजवाने की कामना है यानि ले जईयो बदरा संदेशवा, ले जाईयो बदरा जो दिल पर मत ले यार नाम की फिल्म में था और मुझे यह गीत मुझे बहुत अच्छा लगता है जिसे गाने वाले का नाम है अभियंकर या ऐसा ही कुछ. क्या मतलब हुआ ऐसे नाम का कि वह भयंकर नहीं है या फिर उसे भय नहीं लगता, जाने कैसे कैसे नाम रख देते हैं यह माँ बाप भी, कहीं किताब में कुछ पढ़ लिया और झट से रख दिया बच्चे का नाम, यह भी नहीं सोचा कि बाद में लोग उसका अर्थ सोच कर परेशान हो जायेंगे लेकिन गाना अच्छा है, पर फिल्म बेकार थी और सबसे बुरी बात कि यह गाना फिल्म में न

ताना तोराजा

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तोराजा एक विषेश आदिवासी जन जाति है जिसके लोग इंदोनेसिया में दक्षिण सुलावेसी द्वीप के मध्य में बने ताना तोराजा पहाड़ों में रहते हैं. दक्षिण सुलावेसी की राजधानी है उजुँग पंडांग जिसका पुराना नाम था मक्कासार और प्राचीन समय से यह शहर समुद्री व्यापार के रास्तों में एक प्रमुख केंद्र था. मुझे तोराजा दो बार जाने का मौका मिला. एक बार वहाँ जा कर, उनको भूलना आसान नहीं है. उजुँग पंडांग पहूँचने के लिए जहाज इंदोनेशिया के सभी प्रमुख शहरों और कुछ करीब के अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डों से उड़ान मिल सकती है. वहाँ से ताना तोराजा की राजधानी रानतेपाँव तक पहूँचने के लिए करीब दस घँटे की कार यात्रा चाहिये. इस यात्रा का पहला भाग जो समुद्र के किनारे से उत्तर में पारे पारे शहर तक जाता है, बहुत मनोरम है. उसके बाद की पहाड़ों की यात्रा सुंदर तो है पर कठिन भी क्योंकि सड़कें बहुत अच्छी नहीं. तोराजा की सबसे पहली विषेश चीज़ जो आप को दिखेगी, वह है उनके नाव जैसी छतों वाले लकड़ी के मकान. लगता है किसी ने बड़ी बड़ी नाँवें ऊँचे डंडों पर टका कर, उन पर रंगदार नक्काशी की है. इन भव्य छतों के नीचे छोटे छोटे घर हैं, जिनमें रहना खास आरामदायक न

अपने पराये

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गरमियों की छुट्टियों में पश्चिम बंगाल में एक छोटा सा शहर था अलिपुर द्वार, जहाँ हम लोग मौसी की घर जाते. रास्ते में रेलगाड़ी सिलिगुरी में बदलनी पड़ती जहाँ मौसा के बड़े भाई का घर था, वहाँ कुछ दिन रुक जाते. मौसी के बच्चों की तरह से हम भी उन्हें ताऊजी बुलाते. वँही मिले हमे भक्त चाचा. भक्त चाचा सचमुच के चाचा नहीं थे, शायद कोई दूर के रिश्तेदार थे, पर बहुत सालों से वँहा रहते थे और सब बच्चे उन्हें चाचा बुलाते. ताऊ जी का दोमंजिला घर बड़ी हवेली जैसा था. बड़ा मकान और चारों तरफ खुला मैदान. पाखाना घर के अंदर न हो कर, घर से दूर मैदान में बना था. करीब ही तिस्ता नदी बहती थी. घर में एक चीते का सिर और कई बाराहसिगों और हिरन जैसे जानवरों के सिर दिवारों पर लगे थे, जो ताऊजी और मौसा के जवानी के शिकारी दिनों की निशानियाँ थीं. भक्त चाचा चुड़ैलों की कहानियाँ सुनाते. शादी नहीं हुई थी उनकी शायद इसलिए चुड़ैलें अक्सर श्वेत वस्त्र पहने सुंदर औरतों के रुप में उन्हें नदी के किनारे सुबह मिलती थीं, उन्हें बुलाती पर वह उनके पीछे की ओर घूमे पाँव देख कर समझ जाते, तो वह अपने असली रुप में आ कर, लम्बे दाँत निकाल कर उन्हें काटने को टू

अपने शहर में अजनबी

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रविवार को भारत जाना है. कुछ दिनों का काम है और कुछ दिन घर वालों के साथ बीतेंगे. कल की पहचान वाली बात से ही सोच रहा था, कब अपना शहर अपने लिए अजनबी हो जाता है. पहली बार भारत से बाहर आया था तो 26 साल का था. शुरु शुरु में यह दूरी कुछ महीनों की ही होती थी, पर फिर धीरे धीरे लम्बी होती गयी. अब उस पहली यात्रा को 25 साल हो गये हैं और इन 25 सालों कब अपना शहर अपने लिए अजनबी हो गया, मालूम ही नहीं चला. क्या बाहर रहने से चलने, बोलने में कुछ अंतर आ जाता है ? कनाट प्लेस में चलते हुए जब लोग "चेंज मनी, सर चेंज मनी" पूछते हुए पीछे चलते हैं या रुमाल बेच रहे लड़के अंग्रेजी में कहते हैं रुमाल खरीदने के लिए, तो अचरज सा होता है कि क्या बात दिखायी दी उन्हें मुझमें जिससे वे समझ गये कि मैं बाहर से आया हूँ? ऐसा पहले नहीं होता था, पिछले कुछ सालों से ही होने लगा है और शुरु के दो तीन दिनों में ही होता है. दो तीन के बाद कुछ बदल जाता है, जैसे बाहरपन का संदेश छपा हो शरीर पर, वह धुल जाता है? यह बात कपड़े या चेहरे की नहीं, और हिंदी में उत्तर दो तो बात करने वाला एक क्षण का अचरज दिखाता है, "धत्त साला, धोखा ह

कुछ यहाँ से, कुछ वहाँ से

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कभी कभी लगता है कि समय के साथ साथ, हमारा सब कुछ मिला जुला हो रहा है. भाषा, संस्कृति, संगीत, वस्त्र, नाम, सब कुछ मिला जुला. कितने लोग आज अपने जन्म स्थान, अपने घर से दूर आ जा रहे हैं शायद इतिहास में यह पहली बार, इतने बड़े स्तर पर हो रहा है ? आम बात सी लगती है आज एक जगह पैदा होना, दूसरी जगह पढ़ायी पूरी करना, किसी अन्य प्रांत में काम करना या किसी अन्य प्रांत के पुरुष या स्त्री से विवाह करना. शायद यह मुझे इस लिए लगता है क्यों कि यही मेरे जीवन का किस्सा है. शायद, हजारों, लाखों लोग, जो छोटे शहरों या गाँवों में रहते हैं, उनके लिए यह बात सत्य नहीं है ? पर अगर आप अपनी जगह से नहीं भी हिलें तो भी, टेलीविजन, फिल्म और अंतर्जाल कुछ न कुछ तो मिलावट डाल ही रहें हैं हमारी अपनी पहचानों में ? आप लोग कलकत्ता से हैं या कानपुर से, पहले ऐसे सवाल पूछना आसान था और उनके उत्तर देना भी आसान था. पर आज पूछिये तो उत्तर मिल सकता है, पिता जी कलकत्ता से हैं और माँ कानपुर से, मैं पढ़ा तो पटना में और मेरी पत्नी भवनेश्वर से हैं और हम दोनो बँगलौर में काम कर रहे हैं. जो ऐसा उत्तर देगा, उसके बच्चों से पूछिये कि बेटा कहाँ से हैं

उदास मन

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पिएत्रो और लूसिया हमारे पड़ोसी हैं. उनका बेटा करीब ही रहता है, बेटा और पोता अकसर दादा दादी के पास आते हैं. पति पत्नी दोनो को अच्छी पेंशन मिलती है और अपना घर है. मतलब कि कोई परेशानी नहीं है. पर पिएत्रो को उदासी यानि डिप्रेशन की बिमारी है. इन दिनो में, सितंबर के अंत और ओक्टूबर के प्रारम्भ में हर साल यह उदासी विषेश गहरी हो जाती है. पिएत्रो बातचीत करना बिल्कुल बंद कर देते हैं, अँधेरे कमरे में सारा दिन बैठे रहते हैं. बोलोनिया के दक्षिण में पहाड़ हैं, वहीं छोटा सा गाँव है मारजाबोतो, जहाँ पिएत्रो पैदा हुए थे. १९४३ में दूसरे महायुद्ध की लड़ाई मारजाबोतो में भी आ गयी थी. इटली के शासक मुसोलीनी ने जर्मनी के हिटलर से मिल कर यूरोप के अन्य देशों पर हमला बोला था. इटली में जर्मन सिपाही फैले हुए थे क्योंकि देश में मुसोलीनी के खिलाफ बगावत हो रही थी. इस बगावत का बड़ा केंद्र था बोलोनिया, जहाँ के बगावत करने वाले स्वत्रंता सिपाही, जर्मन सिपाहियों पर मौका मिलने पर हमला करते थे. मारजाबोतो में भी जरमन सिपाहियों का कब्ज़ा था. पिएत्रो तब पढ़ाई समाप्त कर नौकरी पर लगे थे. बगावत करने वालों में से कुछ लोगों को जानते थे, क

यह कहाँ आ गये हम

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"परिचय" में गुलज़ार जी ने गीत लिखा था, "मुसाफिर हूँ यारों, न घर है न ठिकाना". सुन कर मन में नयी जगहों की छवियाँ बन जाती थीं, अनजानी जगहें, अनजाने चेहरे. खुली आँखों से देखे सपने, दुनिया को देखने के. वैसी ही थी, हेमंत कुमार की फिल्म "राहगीर" जिसके मुख्य पात्र में, जाने पहचाने संसार से दूर भाग जाने की छटपटाहट थी. बहुत रुमानी लगता था वह जीवन जिसमें न रिश्तों के बंधन हों, न एक ही जगह पर रहने की बोरियत. तब उस नायक का फिल्म के अंत में, इस यायावरी और अपने जीवन के सूनेपन से थक कर हार मान जाना, धोखा लगता था. थके हारे नायक की भावनाओं का वर्णन इस गीत में हैः मितवा रे, भूल गये थे राहें क्यों मितवा एक मुसाफिर लाखों रास्ते, जाने कहाँ थी तेरी राहें एक से एक जुदा थी राहें, साथ थे सारे, संग न कोई धूप में देखी छाँव की चोंटे छाँव में देखे धूप के छाले होंठों पर ही रोक ली हमने एक हँसी में सारी आहें कभी कभी ऐसा ही लगता है, जब जीवन एक यात्रा से दूसरी यात्रा में खो जाने लगता है. कुछ साल पहले लगातार बहुत यात्राँए करनी पड़ी. एक रात को होटल में नींद खुली, पास मेज़ पर रखी बत्ती जलाई. क

ट्यूबालय

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इटली में "एरिया" शब्द का अर्थ है "का घर" और इसको मिला कर दुकानों से सम्बंधित शब्द बनते हैं जैसे पित्जेरिया (Pizzeria) यानि जहाँ पित्ज़ा (Pizza) मिलता है. ऐसा ही हमारा हिंदी का शब्द है "आलय", पर क्या आप ने कभी ट्यूबालय का नाम सुना है ? यानि ट्यूब जैसा घर ? यहाँ ट्यूब का अर्थ लंदन की मेट्रो है और इस बार मेट्रो से इतनी यात्रांए कीं, कि लगा मानो ट्यूब में ही घर बन गया हो. बार बार एक ही शहर जाने से सबसे बुरी बात यह होती है कि आप सोचें, यहाँ कितनी बार आ चुका हूँ, अब तो यह शहर वही जाना पहचाना है और आसपास जो हो रहा है उसे पर्यटक की उत्सुकता से न देखें. लंदन के बारे में मुझे ऐसा ही लगता था. हवाई अड्डे से बाहर निकलते ही, रेल में या ट्यूब में कोई किताब या पत्रिका खोल कर बैठ जाता, न खिड़की से बाहर देखता न ट्यूब में बैठे अन्य यात्रियों को. हालाँकि भीड़ के समय ट्यूब में लोग आप के शरीर के हर भाग को छूते हों और आप की साँसों से साँसे मिला रहे हों, ट्यूब शिष्टाचार कहता है कि आप किसी से न नजर मिलाईये न, किसी को घूरिये. यानि भीड़ में भी अकेले. *** हेमरस्मिथ के ट्यूब स्टेशन से नि