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नवंबर, 2005 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

मानव संबंध

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रात को टीवी पर हम सब लोग एक इतालवी फिल्म देख रहे थे, "अब रोने के सिवाय क्या करें" (Non ci resta che piangere) जिसके प्रमुख कलाकार थे रोबेर्तो बेनिन्यी (Benigni) और मासिमो तरोईसी (Troisi). बेनिन्यी का नाम तो ओस्कर मिलने के बाद लोगों को कुछ मालूम है पर तरोईसी का नाम इटली के बाहर अधिकतर अनजाना है. तरोईसी का स्थान इतालवी सिनेमा में कुछ वैसा ही जैसे जेम्स डीन का अमरीकी सिनेमा. थोड़े से समय में जनप्रिय हो जाना और जवान उम्र में मृत्यु होना, इन दोनो बातें में इन दोनो अभिनेताओं का भाग्य एक जैसा था. तरोईसी की सबसे प्रसिद्ध, और मेरे विचार में सबसे सुंदर फिल्म थी "डाकिया" (Il postino). रात की फिल्म में बेनिन्यी बने थे एक स्कूल के अध्यापक और तरोईसी थे स्कूल के अदना कर्मचारी जो स्कूल का गेट का ध्यान रखता है, पानी पिलाता है, इत्यादि. और फिल्म में दोनो बहुत पक्के मित्र दिखाये गये है. फिल्म देखते हुए मन में एक बात आयी कि भारत में विभिन्न स्तरों पर काम करने वाले लोगों में इस तरह की बराबरी और मित्रता होना बहुत कठिन है. अगर बचपन में मित्रता रही भी हो तो बड़े होने पर, स्तर बदलने के साथ दो

सही भाषा

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हिंदी में कौन सा शब्द कैसे लिखें यह कौन निर्धारित करता है ? क्योंकि देश के विभिन्न भागों में हिंदी विभिन्न तरीके से बोली जाती है और हिंदी भाषा एक "फोनेटिक" भाषा है, जैसे बोली जायी वैसे ही लिखी जाये. न इसमें फ्राँसिसी और इतालवी भाषाओं जैसे कोई खामोश स्वर हैं, जो लिखे जायें पर बोले न जायें. न ही इसमें अंग्रेजी जैसे स्वर हैं जिन्हें एक शब्द में एक तरीके से बोला जाये और दूसरे शब्द में दूसरे तरीके से. पिछले सप्ताह जब अपने पिता की १९५६ में ज्ञानोदय में छपी कहानी को क्मप्यूटर पर लिख रहा था तो देखा कि हर जगह "पहले" को "पहिले" लिखा था तो अचानक मेरठ की याद आ गयी, जहाँ कई लोग "मत करो" को "मति करो" कहते थे. सोचा कि यह उसी कारण से है कि देश के विभिन्न भागों में एक शब्द को अलग अलग तरह से बोलते हैं. इसमें सही गलत की बात नहीं. हाँ इसमें मिलते जुलते स्वर अवश्य हैं जिनकी वजह से एक शब्द को आप विभिन्न तरीके से लिख सकते हैं जैसे "जायें" और "जाएँ", पर ऐसी स्थिति में इनमें शब्द को लिखने का एक प्रचलित तरीका हो सकता है जिसे हम सही मान सकते ह

बेचारे आलोचक

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किसी को बताना कि उसमें क्या कमी है, सबके बस की बात नहीं. खुले आम दो टूक बात करने के लिए पत्थर दिल चाहिये. मेरे पास कभी कभी वैज्ञानिक या चिकित्सा संबंधी पत्रिकाओं से रिव्यू करने के लिये लेख आते हैं. बहुत सी अंतर्राष्ट्रीय पत्रिकाओं में बिना इस तरह के "पीयर रिव्यू" के बिना कुछ नहीं छपता. अंत में लेखक को सारी आलोचनाँए भेज दी जाती हैं ताकि वे अपने लेखों को सुधार सकें, हालाँकि उन्हें यह नहीं बताया जाता कि किन व्यक्तियों ने ये आलोचनाँए दी हैं. इसी अनुभव के बल पर जानता हूँ कि आम व्यक्तियों के लिए किसी की आलोचना करना कितना कठिन है. आलोचना अगर आप लेखक की सहायता के लिए कर रहे हैं यानि आप चाहते हैं कि लेखक का लेखन सुधरे, तो उसे सृजनात्मक होना चाहिये. लेख के विभिन्न हिस्सों के बारे में, कहाँ क्या ठीक नहीं है या क्या कमजोर है, आदि बताना चाहिये और सुंदर, बोरिंग, बेकार जैसे शब्द नहीं इस्तेमाल करने चाहिये क्योंकि ये तो व्यक्तिगत अनुभूतियाँ हैं. पर ऐसा शायद वैज्ञानिक लेखों में करना आसान है और यह बात चिट्ठों पर लागू नहीं होती ! आलोचना करना अगर कठिन है तो अपनी आलोचना सुनना उससे भी अधिक कठिन. इस

यात्रा और मंजिल

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कहते हैं कि जीवन एक यात्रा है और मृत्यु हम सब की मंजिल. इसलिए यात्रा में यात्रा का ही आनंद लेना चाहिये, मंजिल के बारे में नहीं सोचना चाहिये. मंजिल के बारे में सोचने लग जायें तो यात्रा का आनंद भी खो बैठते हैं. शायद यह बात जीवन यात्रा के लिए ही ठीक बैठती है, अन्य रोजमर्रा की सामान्य यात्राओं के लिए नहीं ? अपनी पहली हवाई यात्रा की हल्की सी याद है मुझे. दिल्ली से रोम की यात्रा थी वह, जापान एयरलाईनस् के जहाज पर. मेरी फुफेरी बहन के पति जापान एयरलाईनस् में काम करते थे, उन्होंने ही टिकट बनवाया था और पहले दर्जे की सीट पर बिठवा दिया था. तब से जाने कितनी यात्राएं होने के बाद, आज हवाई यात्रा में काम पर कहीं भी जाना पड़े तो कोई विशेष उत्साह महसूस नहीं होता. कितने घंटे कहाँ पर इंतजार करना पड़ेगा इसकी चिंता अधिक होती है. और जहाज के भीतर जा कर, सारा समय किताब पढ़ने या कुछ काम करने में निकल जाता है. जब कभी यात्रा अप्रयाशित रुप में अपने तैयार रास्ते से निकल कर कुछ नया कर देती है तब याद आती है यात्रा और मंजिल की बात. ऐसा ही कुछ हुआ कल सुबह, जेनेवा से वापस बोलोनिया के यात्रा में. परसों जेनेवा में बर्फ गिरी थ

बाग की नाली

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हमारे शहर के संस्कृति विभाग ने इश्तेहार छाप दिये कि शहर के इतिहास को जानने पहचानने के लिए "अपने शहर को जानिये" नाम से मुफ्त टूर का आयोजन किया है जिसमें गाईड का काम करेंगे विश्वविद्यालय के जाने माने इतिहासकार. इसके साथ साथ इश्तेहार पर शहर के विभिन्न भागों के टूरों की तारीखें थीं. सभी टूर शनिवार या रविवार को थे ताकि अधिक से अधिक लोग उसमें भाग ले सकें. भाग लेने के लिए आप के पास साइकल का होना जरुरी था. तुरंत मैं और मेरी पत्नी ने सोचा कि इनमें अवश्य भाग लेंगें. सुबह सुबह साइकल उठा कर पहुँच गये. हमारे गाईड जी आगे साइकल पर मेगाफोन ले कर चलते, उनके पीछे पीछे शहर का इतिहास जानने की इच्छुक भीड़. करीब ६० या ७० व्यक्ति. यातायात की रुकावटें न हों इसलिए यातायात पुलिस भी हमारे साथ साथ चलती. एक दिन ५०-५५ कि.मी. तक के सफर किये साइकल में, नदियों के पास पुरानी पगडँडियों पर, गिरे मकानों के खँडहरों के पास, शहर के आसपास की पहाड़ियों पर. इस तरह से घूमने से, आज मेरे विचार में हम लोगों को अपने शहर की इतनी बातें मालूम हैं जो कम ही लोगों को होंगी. एक सुबह मिलने की जगह जहाँ से टूर प्रारम्भ होना था हमारे घ

इस मोड़ से जाती थीं

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खेत तिलक नगर से उत्तम नगर के रास्ते पर शुरु हो जाते थे. उसके बाद आता नवादा. अम्मा और बापू नवादा में रहते थे. अम्मा के मिट्टी के घर पर मोर रहते थे. तीन मोर और बहुत सारी मोरनियाँ. अम्मा के यहाँ खाने में मिलती मोटी सी रोटी जिसके साथ वह मक्खन का बड़ा सा टुकड़ा रख देती. और पीने के लिए ठंडी छाछ जिसमें से उपलों की खुशबू आती थी. अम्मा का घर गाँव के बाहर किनारे पर था. उस बार होली देखने के लिए हम लोग गाँव के बीच में जो पानी की टँकी थी उसके पास एक घर में छत पर गये थे. रँगों और गुब्बारों से होली खेलने वाले हम, गाँव की मिट्टी और कीचड़ की होली को अचरज और हल्की सी झुरझुरी से देख रहे थे. पानी की टँकी के पास लड़के और पुरुष पानी की बाल्टियाँ ले कर औरतों के पीछे भाग रहे थे, जो कपड़ों को घुमा और लपेट कर उनके डँडे बना कर उनसे उन लड़कों और पुरुषों को मार रही थीं. जितनी बार नवादा के सामने से गुजरता होली का यह दृष्य मुझे याद आ जाता. नवादा से दो किलोमीटर आगे सड़क के किनारे नाना का फार्म था. हम लोग, मैं और मौसी, अक्सर फार्म से नवादा की दुकान तक कुछ भी खरीदना हो तो पैदल ही आते थे. अम्मा और बापू कहने को हमारे कोई नहीं थ

एक नयी रामायण

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रामायण का भारतीय जीवन पर गहरा प्रभाव है. यह कहना कठिन है कि रामायण ने भारतीय परम्पराओं को बदल दिया या फिर तुलसीदास जी रामायण लिखते समय उस समय की प्रचलित भारतीय परम्पराओं से प्रभावित थे. जो भी हो, भारतीय समाज को कुछ परम्पराएँ बनाये रखने में रामायण की तरफ से सामाजिक तथा धार्मिक स्वीकृति मिल गयी. रामायण स्त्रियों और पुरुषों दोनो के लिए आचरण का मापदंड बनी. पर शायद पुरुष समाज पर उसका कम असर पड़ता है? जहाँ रामायण बड़े भाई और छोटे भाई के बीच प्यार और सम्मान की शिक्षा देती है, यह शिक्षा मुम्बई के सिनेमा में तो जगह पाती है पर समान्य जीवन में पैसे, जयदाद, शक्ति के लिए लड़ने वाले भाईयों की कमी नहीं. गरीब या कम पैसे वालों की ही बात हो यह भी नहीं, देश के सबसे बड़े ओद्योगिक अम्बानी परिवार के भाई जब आपस में लड़े तो हजारों बातें हुई पर किसी ने यह नहीं कहा कि वे दोनो रामायण की शिक्षा को भूल गये थे. पर रामायण का भारत की स्त्रियों और लड़कियों के जीवन पर क्या प्रभाव पड़ा? मेरे विचार में हिंदु धर्म की यह एक कमजोरी है कि हमारी किसी प्रमुख धार्मिक गाथा में हमारे देवी देवताओं की बेटियाँ नहीं होती. न रामायण में राम क

हम फिल्में क्यों देखते हैं (अनूगूँज)

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प्रश्न का उत्तर देने से पहले इस सवाल में दो बातों पर गौर करना ठीक होगा कि इसमें "हम" कौन हैं और दूसरा, कौन सी फिल्में क्यों देखते हैं. एक बार एक इतालियानो की पत्रिका में पढ़ा था कि सिर्फ तीन तरह के लोगों को अपने बारे में बात करते समय पुल्लिंग "हम" प्रयोग करने का अधिकार है. सम्राट शहनशाह, रोम के पोप और वे लोग जिनके पेट में कीड़े हों. चूँकि मैं इन तीनो में से किसी श्रेणीं में नहीं आता इसलिए यहाँ हम का अर्थ है परिवार, यानि हम लोग, मेरी पत्नी और पुत्र मिल कर क्यों फिल्म देखते हैं? दूसरी बात है कौन सी फिल्मों की बात हो रही है. स्पष्ट है कि हिंदी के चिट्ठे में बात इतालियानो या अंग्रेजी की फिल्मों की नहीं, हिंदी की फिल्मों की बात हो रही है. चूँकि श्रीमति और पुत्र की हिंदी कुछ कमजोर है, कुछ गिने चुने शब्द ही समझ पाते हैं, साथ में बैठ कर हिंदी फिल्म देखने का अर्थ है कि मेरी साथ साथ हिंदी से इतालियानों में अनुवाद की भागती हुई कमेंट्री चलती है. इस बात पर भारत में कुछ बार सिनेमा हाल में फिल्म देखते हुए हमारे अनुभव कुछ अच्छे नहीं थे क्योंकि आसपास बैठे लोग मेरी कमेंट्री की सुंदर

कमबख्त

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शब्द कहाँ से और कैसे बनते हैं? कमबख्त शब्द कहाँ से आया? कई दिनों से यह बात मेरे दिमाग में घूम रही है कमबख्त के बारे में. कमबख्त किसी की कोसने के लिए या किसी को हल्की सी गाली देने के लिए कहते हैं. शब्द का अर्थ समझने के लिए शब्द का संधी भेद करना आवश्यक है तो कमबख्त शब्द बना है कम और बख्त से. शायद इसका अर्थ हो "कम वक्त", जिसमें वक्त शब्द का पँजाबीकरण होते होते वह बख्त हो गया? पर किसी को यह कहना कि "तू कम+वक्त है" में गाली देने की क्या बात हुई? क्या भारत के ऋषी मुनियों ने आने वाले जीवन की भागा दौड़ी और उसमें फँसे प्राणियों की नियति जिनके पास जितना "समय बचाने" के उपकरण होंगे उतना ही समय कम होगा की भविष्यवाणी करते हुए कमबख्त शब्द का श्राप के रुप आविष्कार किया था? या फिर बख्त शब्द बतख शब्द से बना है? यह तो मानना पड़ेगा कि बख्त और बतख शब्दों में गम्भीर फर्क है पर ऐसी भूल गुस्से मे हो सकती है कि शब्द कुछ बिगड़ कर निकलें. सोचिये कि एक बार कहीं कोई बतख वाला था जिसके पास बहुत बतखें थीं और एक दिन गुस्से में उनके अब्बू ने उन्हे बद् दुआ दी कि तेरी बतखें कम हो जायें पर उनके

इनसे मिलो

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एक मीटिंग के लिए दिल्ली आया था, और उसके बाद कुछ दिन की छुट्टी ले कर रुक गया था. सभी पुराने मित्रों को टेलीफोन किया, जो करीब रहते थे उनसे मिलने भी गया. एक मित्र के यहाँ से पार्टी का न्यौता मिला. उसके विवाह की वर्षगाँठ थी. बचपन से साथ बड़े हुए थे हम, इसलिए उसे मना करने का तो सवाल ही नहीं हो सकता था. वहाँ बहुत से अन्य जानने वालों से मिलने का मौका मिला. किसी से बात कर रहा था कि मेरा मित्र आ कर मुझे खींच कर ले गया, बोला तुझे किसी से मिलवाना है. एक युवती से मिलवाया. मैंने नमस्ते की, हालचाल पूछा, पूछा उनके पति देव कैसे हैं, कहाँ हैं, आदि सब बातें जो सभी किसी थोड़ी सी जान पहचान वाले से मिलने पर करते हैं. रात को जब सब लोग चलने लगे तो मैंने भी मित्र से कहा कि मुझे भी चलना चाहिये. "अरे रुक तो सही, बता क्या कहा? कैसे लगा उससे मिलना?" मित्र ने उत्सुकता से पूछा. "किससे मिलना कैसा लगा?"मैंने पूछा. "अबे बन मत, इतनी देर तक घुल मिल कर बातें कर रहा था! क्या कहा उसको?" तब समझ में आया कि वह उस युवती की बात कर रहा था, बोला, "तू भी यार, कम से कम किसी से मिलवाने से पहले बता तो

कितनी दूर आ गये

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कल चिट्ठा पोस्ट करने लगा तो देखा कि वह १११ चिट्ठा था. देख कर अचरज भी हुआ, खुशी भी. सिर्फ छः महीने पहले भी ऐसा सोचना कि मैं यह कर सकता हूँ, नामुमकिन था. जब भी यात्रा पर न हूँ तो हर रोज कुछ न कुछ अवश्य लिखूँगा, ऐसा सोचा था. पर शुरु शुरु में एक एक शब्द लिखने में इतनी देर लगती थी कि व्यस्त जिंदगी में इतना समय एक "शौक" के लिए निकालना आसान नहीं लगता था. यह सोचता था कि क्या लिखूँगा? और हिंदी तो भूलने सी लगी थी, सोचता अंग्रेजी या इतालवी में था फिर उसके अर्थ हिंदी में सोचता और अक्सर, हिंदी में अर्थ याद ही नहीं आते थे. आज कीबोर्ड पर हिंदी लिखने में काफी तेजी आ गयी है. आज भी कभी कभी कोई शब्द ढ़ूँढ़ने के लिए शब्दावली निकाल कर देखनी पड़ती है, पर हिंदी लिखते समय हिंदी में ही सोचता हूँ. और लिखने के विषय के लिए कोई न कोई विचार हर रोज सुबह आ ही जाता है. ऐसा कब तक चलेगा, मालूम नहीं. हो सकता है कि एक दिन क्मप्यूटर की सफेद स्क्रीन के सामने बैठा रह जाऊँ और कुछ समझ न आये कि क्या लिखूँ. पर आज तो यही सोच कर खुशी हो रही है कि इतने दूर आ गये हम. आप सब पढ़ने वालों को और आवश्यकता पड़ने पर सहायता करने वालों क

धीरे जलना

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क्या अर्थ है पहेली के इस गाने का, "धीरे जलना, धीरे जलना, जिंदगी की लौ पे जले हम"? जीवन की आग में हमें धीरे धीरे जला कर पकाईये? पुराने तरीके से बिरयानी बनाने का ऐसे एक नुस्खे के बारे में कभी पढ़ा था कि हाँडी आग से बहुत ऊँची रख कर, चावल में थोड़ा सा पानी डालना चाहिये और उसे कड़छी से हिलाते रहिये, जब पानी सूखने लगे तो, थोड़ा सा और डाल दीजिये. कई घंटों में जाकर बिरयानी पकेगी. अगर पत्नी को सलाह देनी होती है कि कोई चीज़ कैसे पकानी चाहिये, तो मेरी सलाह हमेशा धीरे धीरे पकाने वाले नुस्खों की होती है. इससे खाने में विषेश स्वाद आ जाता है, मैं कहता हूँ. पर उसे यह धीरे पकने वाले नुस्खों को तेजी से बनाने में मजा आता है. पहले पहले तो बहुत शौक से मुझे बतलाती थी कि कैसे उसने एक घंटे में बनने वाली चीज दस मिनट में बनायी. "बैंगन का भुरता बनाया है, एक नये तरीके से", उसने प्रसन्न हो कर बताया था, "पहले कच्चे बैंगन को मिक्सी में डाल कर अच्छी तरह से महीन पीस लिया फिर तेज आग पर भून लिया, बन गया भुरता!" "देखें भला कैसा बना है", हमने चखा और नाक सिकौड़ दी, "प्रिये, तुम्हें य

लेखक और आदमी

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मुनीष के चिट्ठे कविता सागर पर सर्वेश्वरदयाल सक्सेना की एक सुंदर कविता पढ़ी. मुनीष जी को धन्यवाद. सर्वेश्वर जी दिल्ली में राजेन्द्र नगर में हमारे घर के पास ही रहते थे और पिता के मित्र भी थे इसलिए अक्सर देखता था. वे तब साप्ताहिक पत्रिका "दिनमान" में काम करते थे. तब मैं नहीं जानता था कि वे क्या लिखते थे या कैसा लिखते थे. लेखक, कवि, चित्रकार, कलाकार और समाजवादी कार्यकर्ता और नेता, यह सब बचपन के जीवन का भाग थे और सभी बच्चों की तरह मैं उनका कोई महत्व नहीं समझता था. दिल्ली में क्नाट प्लेस में आज जहाँ पालिका बाजार है, वहाँ कभी एमपोरियम और एक काफी हाऊस हुआ करता था. वही काफी हाऊस अड्डा था सब लोगों के मिलने का. कभी कभी पिता के साथ वहाँ गया था, पर उनकी कलाकारों की बातों में कोई दिलचस्पी नहीं होती थी, हर समय खाने और खेलने की ही सूझती थी. चौदह या पंद्रह साल का था जब तीन लेखकों से परिचय हुआ सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, रघुवीर यादव और मोहन राकेश. उनमें से उस समय, केवल मोहन राकेश जी को लेखक की तरह जानता था. नया राजेंद्र नगर में पम्पोश की तरफ जाती सड़क पर, बाग के सामने वे तीसरी मंजिल पर बरसाती में र

इतालवी नाम पुराण

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मेरी अस्सिटेंट का नाम है "फ़ैलीचिता" जिसका इतालवी में अर्थ है "खुशी" पर कभी कभी उसका हिंदी अर्थ सोच कर अजीब सा लगता है. हमारे दफ्तर में तीन अन्य नाम हैं जिनके हिंदी अर्थ कुछ और ही होंगेः "मारा" यानि समुद्री, "मारियो" जो संत का नाम है और "पिया" यानि भक्त. मैं कभी कभी मारा को कहता, "मारा तुझे किसने मारा?" और हँसता पर वह समझ नहीं पाती कि मैंने क्या कहा. इटली में अधिकतर नाम किसी संत के नाम पर रखे जाते हैं. यहाँ के कैलेण्डर में साल का हर दिन एक संत के नाम से जुड़ा होता है. जैसे ११ नवंबर था संत मार्तीनो, १२ नवंबर था संत रेनातो, आज १३ नवंबर है संत और कल १४ नवंबर होगा संत अगोस्तीना. अधिकतर लोगों को बच्चों के नाम चुनने के लिए "नामों की किताब" की आवश्यकता नहीं पड़ती, बस कैलेण्डर देख कर जितने संतो के नाम हैं उनमे से एक चुन लेते हैं. इन नामों के अर्थ नहीं होते. अगर लड़का हो तो नाम अधिकतर "ओ" पर स्माप्त होगा और लड़की हो तो नाम अधिकतर "आ" पर स्माप्त होते हैं. जिस दिन आप के नाम वाले संत का दिन हो, वह आप का ओनोमास्ति

शरीर की लज्जा

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मैं अपने डेनिश मित्र ओटो के साथ मिस्र में अलेक्सांद्रिया में था. दिन भर काम के बाद समुद्र के किनारे घूम रहे थे और वह एक व्यक्तिगत अनुभव बता रहा था. बोला, "तब मैं कोपेनहेगन में अपने पिता वाले घर में रहता था. एक रात को मैं देर से घर वापस आया, साथ में मेरी एक सहेली थी. रात को उसे बाथरुम जाना पड़ा और वह निर्वस्त्र ही चली गयी. संजोग से मेरे पिता भी उसी समय बाथरुम से वापस आ रहे थे और उन्होंने भी कुछ कपड़े नहीं पहने थे. जब उन्होंने मेरी सहेली को देखा तो दोनो एक क्षण के लिए घबरा गये, फिर मेरे पिता ने कहा, "शुभ रात्री मैडम" और अपने कमरे में चले गये." सुन कर मैं बहुत हँसा पर अंदर ही अंदर सोच रहा था, हमारे यहाँ तो ससुर और जेठ के सामने घूँघट और भी लम्बा कर देते हैं, क्या ऐसा कभी हमारे यहाँ भी हो सकता है? अतुल के प्रश्न कि क्या मैंने कल की झील वाली तस्वीर छुप कर खींची थी पढ़ कर मुझे यह बात याद आ गयी. नहीं तस्वीर छुप कर खींचने की जरुरत नहीं है, समुद्र तट पर या झील के पास, गरमियों में सभी ऐसे ही कपड़े पहनते हैं, मैं भी पहने था जब तस्वीर खींची थी. शायद यूरोप कुछ बातों में अमरीका

आँखों की दहशत

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ऋषिकेष मुखर्जी की फिल्म 'सत्यकाम' मुझे बहुत अच्छी लगी थी. सत्य का पालन करने वाले, इमानदार सत्यकाम, जिसके आदर्शों पर सारी दुनिया हँसती है, का भाग निभाया था धर्मेंद्र ने, जो इस फिल्म के निर्माता भी थे. हालाँकि धर्मेंद्र को "कुत्ते कमीने, मैं तेरा खून पी जाऊँगा" जैसे डायलोग वाली फिल्मों में अधिक सफलता मिली, फिर भी अपने फिल्मी जीवन में उन्होंने कई संवेदनशील फिल्म निर्देशकों के साथ काम किया. अनुपमा, खामोशी, चुपके चुपके, बंदिनी जैसी उनकी फिल्में मुझे बहुत अच्छी लगीं. बात "सत्यकाम" से शुरु की थी. इस फिल्म के अंत में एक दृष्य है. सत्यकाम बीमार है, अस्पताल में भरती है. उसे खाँसी आती है और रुमाल पर खाँसी के साथ खून के छींटे आ जाते हैं. ऊपर नजर उठाता है तो देखता है कि उसकी पत्नी (शर्मीला टैगोर) है जिसने उस रुमाल के खून को देख लिया है. उस दृष्टि में उसकी आँखों में शर्म, मजबूरी भी है और करीब आयी मौत की दहशत भी. ऐसा ही दृष्य गुलजार की फिल्म "परिचय" में भी था, जिसमें "बीते न बितायी रैना" वाले गाने में बेटी (जया भादुड़ी) पिता (संजीव कुमार) के रुमाल पर गिर

धूप और छाँव

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एक बार कहीं पढ़ा था कि चित्रकला विधि में सन १३०० और १४०० के आसपास पहली बार मानव शरीर के प्राकृतिक भावों का चित्रण होने लगा. इसकी शुरुआत इटली के कुछ चित्रकारों ने की. उससे पहले चित्रकारों का उद्देश्य था कि केवल सुंदर भावों वाले शरीर ही बनायें. माइकल एंजलो के कई चित्र हैं जिनमें झर्रियों वाले बूढ़े, टेड़े मेड़े शरीर वाले या बिना दाँत वाले, आम लोगों का चित्रण है. क्या यह बात भारत पर भी लागू होती है? मुझे केवल इतना मालूम है कि मध्ययुगीन भारत में मुगल, काँगड़ा आदि चित्रकला की शैलियाँ थी, जिनमें मानव शरीर विषेश नियमबद्ध तरीके से दिखाये जाते थे, जिससे उनके प्राकृतिक रुप या भाव के बारे में कहना कठिन है. पर अगर पुरानी मूर्तियों के बारे में सोचूं या अजंता की गुफाओं में बने चित्रों के बारे में सोचूं तो कह नहीं सकता कि भारत में असुंदर या बैडोल व्यक्ति या भावों का चित्रण पुराने जमाने में कभी नहीं हुआ. इटली के मध्ययुगीन चित्रकारों में से माइकल एंजलो और लियोनारदो दा विंची के नाम तो जग प्रसिद्ध हैं. पर उस युग के मेरे सबसे प्रिय कलाकार हैं कारावाज्जो (Caravaggio). उनका असली नाम था माइकल एंजलो मेरीसी, वह १५७

कथानक में लेखक

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आजकल मैं "बंगला की श्रेष्ठ कहानियाँ" पढ़ रहा हूँ और कल रात को प्रेमेन्द्र मित्र की एक कहानी "महानगर" पढ़ रहा था. कहानी का मुख्य पात्र है रतन, एक बच्चा जो पिता के साथ नाव में कलकत्ता आया है और पिता की नजर बचा कर अपनी बहन चपला को ढ़ूँढ़ने निकल पड़ता है. बहन शादी के बाद पति के घर गयी, जहाँ से कोई उसे उठा कर ले गया था और जब वापस मिली तो उसे पति और पिता के घरों में जगह नहीं मिली. रतन को सिर्फ उस जगह का नाम मालूम है जहाँ उसकी दीदी रहती है इसलिए ढ़ूँढ़ना आसान नहीं है पर आखिर वह उसे खोज ही लेता है. रतन बहुत छोटा है नहीं समझ पाता कि उसकी दीदी क्या करती है पर इतना समझ जाता है कि उसे घर वापस नहीं आने दिया जायेगा. अंत में रतन, पिता के पास वापस जाने से पहले दीदी को कहता है कि जब वह बड़ा हो जायेगा तो दीदी को अपने साथ ले जायेगा. इस कहानी के पहले दो पृष्ठ, यानि कहानी का करीब २० प्रतिशत भाग, महानगरों की विषमतओं के बारे में दार्शनिक विवेचना है, कैसे बड़ा शहर कटु और मधुर दोनों रसों का समन्वय है पर क्यों गरीबों के हिस्से में कटु अनुभव ही अधिक मिलते हैं. इसी से सोच रहा था कि शायद आजकल के लेखक कथ

वह यात्रा

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जब जीवन यात्राओं से भरा हो तो, किस यात्रा में क्या हुआ, किस शहर में कौन सी चीज देखी, कहाँ किससे मिला, आदि बातें याद रखना आसान नहीं. पर फिर भी कुछ यात्राएं ऐसी होती हैं जो साल बीतने के बाद भी पूरी याद रहती हैं. किमबाऊ की यात्रा ऐसी ही थी. किमबाऊ एक छोटी सी तहसील है, दक्षिण पश्चिमी कोंगो में, अंगोला की सीमा के करीब. देश की राजधानी किनशासा से ३८० किलोमीटर दूर. कोंगो की सड़कों को सड़क नहीं बड़े या छोटे खड्डों की अंतहीन कतार है, जहाँ गाड़ी अधिकतर सड़क के बाहर या उसके किनारे पर अधिक चलती है. फिर भी, १९९० में जब यह यात्रा मैंने पहली बार की थी, सड़क की स्थिति आज के मुकाबले अधिक अच्छी थी. तब इस यात्रा में करीब १४ या १६ घंटे लगते थे. आज इसके लिए कम से कम दो दिन चाहिये, और अगर रास्ते में सिपाहियों के चंगुल से बच के बिना कुछ खोये निकल आते हैं तो मंदिर में जाकर प्रसाद चढ़ाना चाहिये. आज अगर यह यात्रा आप करें तो बहुत रोमांचक लगेगी, यानि कि डर से आप की जान सूखी रहेगी पर मैं बात बताना चाहता हूँ १९९० की जब खड्डों के इलावा, सड़क पर डरने डराने वाली कोई चीज नहीं थी. हम लोग किमबाऊ एक अस्पताल देखने गये थे. बेल्जियन

सब जानते हैं हम?

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अनुनाद जी ने लिखा है, "क्या इसका कोई आंकडा है कि समान भार लादे हुए दोपहिया रिक्शा और तीनपहिया रिक्शा में किसको चलाने मे अधिक बल/शक्ति/उर्जा की आवश्यकता होती है". सच कहूँ तो लिखते समय आंकड़ों के बारे में नहीं सोचा था पर शायद अनुनाद जी ठीक कहते हैं, केवल भावनात्मक वेग में समाज नहीं बदला जा सकता. मुझे बैल जैसे हल में जुते, नंगे पाँव भागते, रिक्शा खींचते उन इंसानों का सोच कर तर्क नहीं याद रहा. पर नंगे पांव भागने से साईकल चलाना अधिक आसान होता है यही सोच कर दो पहियों को तीन पहिये वाले रिक्शों में बदलने की सलाह दे रहा था. सब मानव भावनाओं को तर्क पर ठीक से तोलना कठिन होता है. इसका पाठ मुझे पढ़ाया था मोरिशियस की एक विकलांग युवती ने. भारतीय मूल की थी वह और भोजपुरी बोलती थी. बचपन से बीमारी ने उसके हाथ पाँव के जोड़ों को जकड़ लिया था, सीधा नहीं खड़ा हो पाती थी, हाथों और घुटनों पर चलती थी. उसके पिता और ग्राम के स्वास्थ्य सेवक ने मिल कर उसके लिए लकड़ी का एक स्टूल सा बनाया था, जिसको उन्होंने मुझे बड़े गर्व से दिखाया. मेरे सामने, उस युवती ने बड़ी कठिनाई से उस स्टूल को पकड़ कर पहले खड़े हो कर दिखाया, फि

मानव मान

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माता पिता अपने बच्चे का मल मूत्र साफ करते हैं, मल मूत्र से गंदे वस्त्र धोते हैं, इसमे उनका मान नहीं जाता. डाक्टर या नर्स आपरेश्न हुए मरीज का मल मूत्र साफ करते हैं, छूते हैं या उसकी जांच करते हैं, इसमे उनका भी मान नहीं जाता. फिर घर में पाखाना साफ करने वाले को ही क्यों समाज में सबसे नीचा देखा जाता है? शायद इस लिए कि यही उसकी पहचान बन जाती है या फिर इस लिए कि बात सिर्फ सफाई की नहीं, उस मल मूत्र को सिर पर टोकरी में उठा कर ले जाने की भी है? क्या हमारे शहरों में ऐसा आज भी कोई करने को बाध्य है? ऐसी ही कुछ बात है रिक्शे में बैठ कर जाने की. तीन पहिये वाले रिक्शे से कम बुरा लगता है पर कलकत्ते के दो पहियों वाले रिक्शे जिसे भागता हुआ आदमी खींचे, उस पर बैठना मुझे मानव मान के विरुद्ध लगता है. आज जब साईकल का आविश्कार हुए दो सौ साल हो गये, क्यों बनाते हैं हम यह दो पहियों वाले रिक्शे? क्या बात केवल बनाने के खर्च की है? शायद यही बात आयी थी कलकत्ता के मुख्यमंत्री बुद्धदेब भट्टाचार्य के मन में तभी उन्होंने आदेश दिया है कि यह रिक्शे कलकत्ते की सड़कों से हटा दिये जायें. इस बात पर जर्मन पत्रकार क्रिस्टोफ हाइन

कब के बिछुड़े

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आज सुबह ईमेल में फ्राँस से मैरी क्रिस्टीन का एक संदेश पाया. उसका भाई जाक्क २१ साल के बाद अपने पिता से मिलने आया. मैरी क्रिस्टीन मेरी पत्र मित्र (pen friend) है, १९६८ से, और अब मित्र से अधिक बहन जैसी है. जब उसने बताया था कि उसका भाई छोटी सी बात पर माँ से झगड़ा करके नाराज हो कर घर छोड़ कर चला गया है, तो थोड़ा दुख हुआ था पर यह नहीं सोचा था कि कोई अपने परिवार को छोड़ कर बिल्कुल भूल सकता है. समय के साथ हमारा चिट्ठी लिखना कुछ कम हो गया पर फिर भी बीच बीच में हमारी बात होती रहती. "जाक्क?" हर बार मैं पूछता. "उसने शादी करली, हमारे घर से किसी को नहीं बुलाया." "माँ की तबियत बहुत खराब है, उसे लिखा है पर उसने कुछ जवाब नहीं दिया." "पापा का ओपरेश्न हुआ है पर जाक्क नहीं आया." ऐसे २१ साल बीत गये. इस बीच, मैरी क्रिस्टीन और छोटे भाई जां मैरी के विवाह हुए, तलाक हुए, दूसरे विवाह हुए, बड़ी बहन की दुर्घटना में टांग चली गयी, मां की मृत्यु हुई, पर जाक्क नहीं आया, न टेलीफोन किया, न चिट्ठी लिखी. इतना गुस्सा कोई कैसे कर सकता है अपने मां बाप, भाई बहनों से, मेरी समझ से बाहर है. और

गर्म चाय और ताजा अखबार

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सुबह सुबह गर्म चाय का प्याला और सुबह का ताजा अखबार, अभी भी सोच कर मजा आ जाता है. बिस्तर में लेट या बैठ कर, प्याले को सम्भालने की कोशिश करते हुए अखबार पढ़ना तो अब केवल भारत यात्रा में ही होता है. शुरु से रोज अखबार पढ़ने की आदत थी. पर अब सब कुछ बदल गया है. बहुत सालों से अखबार कम ही पढ़ता हूँ. इतना कुछ हो पढ़ने के लिए कि आप जितनी भी कोशिश कीजिये, उसे कभी नहीं पढ़ पायेंगे, इस बात ने शायद मेरी पढ़ने की इच्छा को दबा दिया है ? सबसे पहला धक्का मुझे इटली की अखबारों से लगा. रोज़ ५० या ६० पन्नों की अखबार को शुरु से आखिर तक पढ़ने के लिए कम से कम दो घंटे चाहिये. कई बार कोशिश की पर पूरी अखबार तो बहुत कम बार पढ़ पाया और अखबारें पढ़े जाने के इंतजार में मेरी मेज पर ढ़ेर सी इक्ट्ठी होती जातीं. अंत में निराश हो कर अखबार खरीदना ही बंद कर दिया. अब तो बस इंटरनेट पर मुख्य समाचार पढ़ता हूँ और अखबार तभी खरीदी जाती है जब कोई विषेश बात हो, वो भी केवल रविवार को. दूसरा धक्का लगा इस बात से कि यहां अखबार आप के घर पर ला कर छोड़ने वाला कोई नहीं है. जब नहा धो कर काम के लिए निकलये तो रास्ते में अखबार भी खरीद लीजिये, पर उसे पढ़ें कब

कबूतरों की उड़ान

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रस्किन बोंड के उपन्यास "कबूतरों की उड़ान" (Flight of pigeons) पर शशि कपूर ने फिल्म बनायी थी "जनून". फिल्म में स्वयं शशि कपूर बने थे लखनऊ के खानदानी रईस जिसे कबूतरबाजी का शौक था. कबूतर पालने वाले गुरु रखना, दबड़े में कबूतर पालना, और शाम को छत पर अन्य रईसों के साथ कबूतर उड़ाने की हौड़ लगाना, बस यही शौक थे उनके. फिल्म का वह दृष्य जिसमें अंग्रेजों से हारा, गुस्से से भरा रईस का भाई (नसीरुद्दीन शाह), अपनी तलबार से कबूतरों के दबड़े तहस नहस कर देता है, बहुत अच्छा लगा था. एक अन्य फिल्म थी खानदानी रईसों की, "साहिब बीबी और गुलाम". बिमल मित्र के उपन्यास पर बनी इस फिल्म में उन्नीसवीं शताब्दी के कलकत्ता के जीवन का वर्णन है. इस फिल्म के रईस भी अपनी कबूतरबाजी को बहुत गम्भीरता से लेते हैं. कबूतर उड़ाने की प्रतियोगिता में हारना या जीतना, उनके खानदान की इज्जत की बात है. मेरे बचपन में, कुछ साल हम लोग पुरानी दिल्ली में ईदगाह के पास कब्रीस्तान के सामने बनी एक पुरानी हवेली में रहे. वहां एक छत से दूसरी छत पर जाना बहुत आसान था, और हम बच्चे मुहल्ले के विभिन्न घरों की छतों पर निडर घूमते थ

भीड़ में अकेले

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प्रत्यक्षा जी की कविता और उससे जुड़ी हुई टिप्पड़ियों को पढ़ा तो अन्य लोगों के साथ रह कर भी कैसे अकेले रह जाते हैं, इसके बारे में सोच रहा था. भीड़ में हमेशा अकेलापन लगे, यह बात नहीं. कभी कभी आस पास बैठे लोगों में किसी को न पहचानते हुए भी, महसूस होता है मानों हममें से हर एक किसी सागर की लहर है, जो एक दूसरे से अदृष्य धागे से बंधी हो, और साथ साथ उठ गिर रही हो. किसी अच्छे संगीत या नृत्य के कार्यक्रम में ऐसा लगा मुझे. ऐसे में कई बार जब कोई विषेश कला का प्रदर्शन हो तो स्वयं ही आँखे साथ में बैठे हुए लोगों से मिल कर, मुस्कान के साथ एक अपनापन बना देती हैं. दूसरी ओर अपने जीवन साथी के साथ एक घर में, एक कमरे में रह कर, साथ खा, पी और सो कर भी दो लोग अकेले हो सकते हैं. इस अकेलेपन को फारमूला बातों से भर देते हैं वह, खुद को और औरों को यह दिखाने के लिए कि वे दोनो अकेले नहीं, साथ साथ हैं. आज खाने में क्या बनेगा ? मुन्नु पढ़ता नहीं है. बिजली का बिल भरना है. ऐसी बातें सूनापन भरने का धोखा दे सकतीं हैं. पर दोनों अपने मन में सचमुच क्या क्या सोच रहें हैं, न एक दूसरे से कह पाते हैं न सुन पाते हैं. प्रेम के धरातल पर