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राखी का वचन

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कल शाम को काम से घर लौटा तो अपनी दोनो बहनों की ईमेल देखी जिसमें राखी बाँधने की बात थी. एक भारत में रहती है, दूसरी अमरीका में. पहले कई सालों तक दोनो बहनें लिफ़ाफ़े में राखी भेजती थीं जो अक्सर त्योहार के कुछ दिनों बाद मिलती थीं और मैं अपनी पत्नी या बेटे से कहता था कि बाँध दो. अब कल्पना की राखी से ही काम चल जाता है. वह कहती हैं कि हम प्यार से भेज रहे हैं, और हम प्यार से कहते हैं कि मिल गयी तुम्हारी राखी. आज की दुनिया में वैसे ही इतना प्रदूषण हैं, इस तरह से राखी मनाना पर्यावरण के लिए भी अच्छा है. आज सुबह फेसबुक के द्वारा कुछ इतालवी "मित्रों" के संदेश भी मिले, पुरुषों के भी और स्त्रियों के भी, "हैप्पी रक्षाबँधन". यहाँ बहुत से मित्र भारत प्रेमी हैं, जो देखते रहते हैं कि भारत में क्या हो रहा है और होली, दीवाली तथा अन्य त्योहारों पर याद दिला देते हैं कि वे भी हैं, जो हमारे बारे में सोचते हैं. क्या इस तरह के संदेश मिलने को भी राखी बाँधना समझा जाये? तो अन्य पुरुषों से राखी मिलने को क्या समझा जाये? बचपन में सोचते थे कि राखी तो भाई बहन के पवित्र बँधन का त्योहार है. कुछ ब

अधिकारों का आरक्षण

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जब एक मानव अधिकार, किसी दूसरे के मानव अधिकार को प्रभावित करे, तो किस मानव अधिकार को महत्व और सरंक्षण मिलना चाहिये? श्री प्रकाश झा की नयी फ़िल्म "आरक्षण" पर हो रही बहसों के बारे में पढ़ कर मैं यही बात सोच रहा था. इस बहस में है एक ओर फ़िल्म बनाने वालों की कलात्मक अभिव्यक्ति का अधिकार, अपनी बात कहने का अधिकार, और दूसरी ओर है, दलित शोषित मानव वर्ग की चिन्ता कि सवर्णों की कलात्मक अभिव्यक्ति के नाम पर उन्हें फ़िर से नीचा दिखाने और संघर्षों से अर्ज़ित अधिकारों के विरुद्ध बात की जायेगी. कौन सा अधिकार सर्वोच्च माना जाया उसकी यह बहस नयी नहीं है और अन्य मानव गुट बहुत समय से इसका समाधान खोज रहे हैं. जैसे कि विकलाँग व्यक्तियों के अधिकारों तथा नारी अधिकारों की बात करने वाले गुटों की बहस. नारी अधिकारों में गर्भपात का अधिकार भी है, जिसे कुछ देशों में बहुत कठिनायी से जीता गया है. इस अधिकार का अर्थ है कि गर्भ के पहले 18 से 20 सप्ताह में, अगर नारी किसी वजह से उस गर्भ को नहीं चाहती तो वह गर्भपात करवा सकती है. बहुत से देशों में यह अधिकार नहीं है. कैथोलिक धर्म नेताओं ने इस अधिकार का ह

दुनिया का स्वाद

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एक ही वस्तु से विभिन्न लोगों के अनुभव भिन्न भिन्न होते हैं. जिस वस्तु से हमें आनन्द मिलता है, किसी अन्य को उसी से भय लग सकता है. किस वस्तु का कैसा अनुभव होगा, यह हमारी मनस्थति पर निर्भर करता है. मान लीजिये कि आप एक सड़क पर जा रहे हैं, सड़क के दोनो ओर बहुत से वृक्ष लगे हैं. शीतल हवा चल रही है, पक्षी चहचहा रहे हैं. उस सड़क से गुज़रते हुए आप को क्या अनुभव होगा यह इस बात पर निर्भर करता है कि आप की मनस्थिति कैसी होगी. अगर आप सैर को निकले हैं तो प्रसन्न हो कर शायद आप गीत गुनगुनाने लगें. अगर लम्बी यात्रा से चल कर आ रहे हैं, थके हुए हैं तो आप किसी बात पर ध्यान न दें, बस अपने टाँगों के दर्द और थकान के बारे में सोचें. अगर आप ने नया जूता पहना जो पाँव को काट रहा है तो आप का सारा ध्यान अपने पैरों की ओर हो सकता है. अगर आप को नया नया प्यार हुआ है और आप के आगे आप की प्रेयसी अपनी सहेलियों के साथ जा रही है, तो शायद आप यही सोच रहे हों कि कैसे उससे अकेले में बात कर सकें, उस सड़क का अन्य कुछ आप को नहीं दिखता. अगर किसी प्रियजन के शव के पीछे पीछे शमशान घाट जा रहे हों, तो हृदय दुख से भरा होगा. अगर किसी को मिल

चालिस साल बाद

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1965 में आयी थी राजेन्द्र कुमार, साधना, फिरोज़ खान और नाज़िमा की फ़िल्म " आरज़ू ", जिसके निर्देशक थे रामानन्द सागर . तब दिल्ली के इंडिया गेट पर अमर जीवन ज्योति का सैनिक स्मारक नहीं बना था और रानी विक्टोरिया की मूर्ति भी वहीं पर स्थापित थी. तब दिल्ली में कारें भी बहुत कम थीं, साइकल पर बाहर घूमने जाना न तो नीचा माना जाता था, और न ही उससे दिल्ली की सड़कों पर आप की जान को खतरा होता था. तब जँगली, कश्मीर की कली, जब प्यार किसी से होता है, जैसी फ़िल्मों में गाने कश्मीर में फ़िल्माये जाते थे, जहाँ हीरो हीरोइन का प्रेम मिलन दो फ़ूलों को एक दूसरे से टकरा कर दिखाते थे. उन दिनों में इंडियन एयरलाईंस की एयर होस्टेस हल्के नीले रंग के बोर्डर वाली साड़ी पहनती थीं और हवाई अड्डे खुले मैदान जैसे होते हैं बस उसकी बाऊँडरी के आसपास काँटों वाला तार लगा होता था. तब चित्रकार बड़े बड़े बोर्डों पर फ़िल्म के दृश्य बनाते थे. ऐसे ही किसी बोर्ड पर हमने भी "आरज़ू" फ़िल्म का दृश्य बना देखा था जिसमें राजेन्द्र कुमार जी पहाड़ पर बर्फ़ में स्कीइंग कर रहे थे, और जिसने हमारा मन मोह लिया था. खूब ज़िद की ह