भारत में हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के जानने वाले बहुत अधिक नहीं हैं. भीमसेन जोशी, कुमार गँधर्व, विलायत खान और ज़ाकिर हुसैन जैसे लोगों के नाम और काम को जानने वाले अवश्य ही हिंदी फ़िल्मों मे गाने वालों या इंडियन आइडल जैसे कार्यक्रम जीतने वालों से बहुत कम ही होंगे. शास्त्रीय संगीत बलिदान और जीवन भर की उपासना माँगता है और बदले में संगीत साधना का सुख देता है, और आज की भौतिकवादी दुनिया में जहाँ आप के पास कितना कुछ है कि बात सबसे अधिक महत्वपूर्ण है वहाँ इस तरह के त्याग के जीवन की आशा करना कठिन हो गया है. यह भी कठिनाई है कि इस त्यागपूर्ण जीवन के बावजूद बहुत थोड़े से शास्त्रीय संगीत के कलाकार प्रसिद्धि पाते हैं और अधिकतर लोग गुमनाम ही रह जाते हैं.
नमिता जी की किताब की नायिका धोँधुताई भी कुछ ऐसी ही है, जो बम्बई के लालबत्ती वाले इलाके में एक कमरे में बूढ़ी माँ के साथ पेयिंग गेस्ट की तरह रहती है और जीवन यापन के लिए लोगों को शास्त्रीय संगीत सिखाती है. आठ साल की नमिता जब पहली बार अपनी संगीत शिक्षका को मिलती है तो वह नहीं समझती कि छोटे से कमरे में, गरीबी में रहने वाली बूढ़ी होती इस महिला के कँठ में सरस्वती का वास है और यह साधारण महिला अकेली वारिस है जयपुर घराने की गायकी के ज्ञान की. धोँधुताई को अपनी छोटी सी विद्यार्थी नमिता में उस प्रतिभा का एहसास होता है जिसके बल पर वह अपने ज्ञान को बाँट सकने और भविष्य के लिए छोड़ने का सपना देख सकती है.
कितनी ही पाराम्परिक कलाओं के ज्ञान को ले कर जीने वाले आज इसी दुविधा से गुज़रते हैं कि कैसे अपने ज्ञान की धरौहर को भविष्य के लिए छोड़ सकें? तुरंत नौकरी, पक्की कमाई, अच्छा जीवन बिताना जैसी अपेक्षाएँ आज सबको हैं और पारिम्परिक कलाओं को जानने वालों के बच्चे उन कलाओं को नहीं सीखना चाहते, न ही उन्हें उस तरह के नवजवान मिलते हैं जो कला को जीवन सम्पर्ण करके गुरु शिष्य की पुरानी परम्परा को चलाना चाहते हों. नमिता जी की किताब इसी कठिनाई को व्यक्त करती है जब प्रतिभा और गुरु के प्रति स्नेह और आदर होते हुए भी नमिता स्वयं अमरीका जाने का फैसला करती है और धीरे धीरे अपने सीखे शास्त्रीय संगीत के ज्ञान को भूलने लगती है.
कुछ दिन पहले रेल से जेनेवा (Geneva) जाना था. हमारे यहाँ से जेनेवा जाने में करीब सात घँटे लगते हैं. गाड़ी में बैठा तो साथ में दो युवक साथ की सीट पर थे जो आपस में लगातार बात कर रहे थे. नमिता जी कि किताब निकाल कर पढ़ना शुरु किया तो उन युवकों के ज़ोर ज़ोर से बात करने पर कुछ खीज आ रही थी, पढ़ने से ध्यान उचट जाता था. लेकिन थोड़ी देर में किताब में ऐसा खोया कि सब कुछ भूल गया. जेनेवा का रेल स्टेशन आने से पाँच मिनट पहले किताब पूरी पढ़ कर बंद की, रास्ता कैसे बीता कुछ याद नहीं था.
शास्त्रीय संगीत से मेरी पहचान कुछ अपने छोटे फ़ूफा से हुई थी और कुछ घर के पड़ोस में रहने वाली डाक्टर आँटी से. पहले लगता था कि शास्त्रीय संगीत में एकरसता की नीरसता है, लगता था कि बस बिना शब्दों के "आ आ" करते रहते हैं. पहली बार जब प्रभा अत्रे को "तन मन धन तोपे वारुँ" गाते सुना तो मंत्रमुग्ध हो गया और "आ आ" की सुंदरता समझ में आई. फ़िर धीरे धीरे भीमसेन जोशी, पंडित जसराज, कुमार गंधर्व जैसे गायकों के रिकार्ड सुने. तीनों गायकों को जानकीदेवी कालेज में गाते हुए भी सुना. फ़िर दिल्ली में रफी मार्ग पर मावलंकर हाल के बाग में रात रात भर होने वाले तानसेन फेस्टिवल में विलायत खान, बिरजु महाराज, गोपीकृष्ण, सितारा देवी, किशोरी आमोनकर जैसे शास्त्रीय नृत्यकारों और कलाकारों को देखा और सुना.
पर इस सब के बाद भी जानकारी विषेश नहीं थी. विभिन्न राग क्या होते हैं, घराना क्या होता है, तबले की विभिन्न तालों का अर्थ क्या होता है, तानपूरा किस लिए प्रयोग करते हैं, तबले की ताल और गायकी में क्या सम्बंध है, इस सब के बारे में मुझे कुछ मालूम नहीं था. संगीत की कोई शिक्षा नहीं पायी थी, बस ध्यान से शास्त्रीय संगीत सुनना अच्छा लगता था, उसे समझने की कभी कोशिश नहीं की.
कई बार सोचता हूँ कि हमारे भारतीय सोचने के तरीके में एक जटिलता है जबकि पश्चिमी सोचने का तरीका तर्क की बात करके उस जटिलता को कम कर देता है. तर्क से बात समझ में आसान में आ सकती है पर बिना तर्क की जटिल सोच, दूसरी तरह की समझ देती है, जो उतनी ही महत्वपूर्ण है. नमिता जी की किताब पढ़ कर कई बार इस बात पर सोचने लगता. धर्म की बात की जाये तो मुसलमान और हिंदू गायकों और संगीतकारों का शास्त्रीय संगीत, हिंदू मंदिरों और हिंदू भक्तिसंगीत से जुड़ा है जिसको समझने के लिए धर्म के बारे में पश्चिमी सोच के बटवारें न्याय नहीं कर पाते. कोल्हापुर के मंदिर के अंतर्कक्ष में जहाँ सभी हिंदू भी नहीं जा सकते थे वहाँ अल्लादिया खान साहब भगवान की स्तुति में भजन सुना सकते थे, इस बात को धर्म के तर्क से समझाना असम्भव है. मुझे यह भी लगता है कि इस जटिलता की धरौहर को बहुत से आम भारतीय समझते हैं पर धीरे धीरे कट्टरवादिता के दबाव में यह समझ लुप्त हो रही है और इसे समझना और सम्भालना बहुत आवश्यक है.
नमिता जी कि किताब में अच्छी कहानी के साथ साथ, इस संगीत के बारे में कुछ अन्य ज्ञान भी बना है. लगता है कि अगली बार शास्त्रीय संगीत सुनुँगा तो शायद उसका आनंद अधिक ले सकूँगा. मन में धोँधुताई और केसरबाई की आवाज़ सुनने की इच्छा भी बहुत है पर इंटरनेट पर वह खोजने से भी नहीं मिली. एक किताब से इतना सब कुछ पाना दुर्लभ बात है और इसके लिए नमिता देवीदयाल को धन्यवाद.