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मई, 2008 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

संगीत कक्ष

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कुछ दिन पहले नमिता देवीदयाल की किताब "द म्यूज़िक रूम" यानि "संगीत कक्ष" पढ़ी जो मुझे बहुत अच्छी लगी (The Music Room, Namita Devidayal, Random House India, 2007) . इस किताब को किसी श्रेणी में बाँधना आसान नहीं. यह नमिता जी की आत्मकथा भी है और उनकी संगीत शिक्षका धोँधुताई की जीवनकथा भी. बीच में धोँधुताई के गुरु, जयपुर घराने के सुप्रसिद्ध गायक अल्लादिया खान के परिवार की कहानी भी है और साथ ही इसमें हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के जानने समझने की बातें भी हैं. इन सब परिभाषाओं से लग सकता है कि किताब रुखी, पढ़ाकू लोगों के पढ़ने वाले ग्रँथों के किस्म की किताब हो, पर सच में यह किताब किसी उपन्यास से अधिक रोचक है. भारत में हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के जानने वाले बहुत अधिक नहीं हैं. भीमसेन जोशी, कुमार गँधर्व, विलायत खान और ज़ाकिर हुसैन जैसे लोगों के नाम और काम को जानने वाले अवश्य ही हिंदी फ़िल्मों मे गाने वालों या इंडियन आइडल जैसे कार्यक्रम जीतने वालों से बहुत कम ही होंगे. शास्त्रीय संगीत बलिदान और जीवन भर की उपासना माँगता है और बदले में संगीत साधना का सुख देता है, और आज की भौतिकवाद

अच्छे अभिनेता

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कुछ समय पहले आऊटलुक पत्रिका पर मुकुल केसुवन का लेख छपा था जिसमें उन्होंने हिंदी फ़िल्म अभिनेता धर्मेंद्र के बारे में लिखा था कि उन्होंने बिमल राय, हृषीकेश मुखर्जी जैसे निर्देशकों के साथ बहुत सी फ़िल्मों में बहुत अच्छा अभिनय किया था पर उन्हें कभी अच्छा अभिनेता नहीं माना गया न ही उन्हें कोई विषेश पुरस्कार मिले. इस का कारण उनके विचार में था कि धर्मेंद्र देखने में बहुत अच्छे थे जिसकी वजह से उन्हें सितारा माना गया और उनके किये गये अच्छे अभिनय को अनदेखा कर दिया गया. मैं इस बात से सहमत हूँ कि धर्मेंद्र के अभिनय को वह मान नहीं मिला जो उसे मिलना चाहिये था. अपनी प्रारम्भ की बहुत सी फिल्मों में उन्होंने गम्भीर, मृदुल, शर्मीला, आदर्शवादी नवयुवक का भाग बहुत खूबी से निभाया. सत्यकाम, बंदिनी, ममता, बहारें फ़िर भी आयेंगी, अनपढ़, नया ज़माना, अनुपमा, जैसी कितनी ही फ़िल्मों में उनकी जगह पर किसी दूसरे अभिनेता को सोचना कठिन है. पर गम्भीर फिल्मों के साथ साथ, शुरु से ही उन्हें व्यवसायिक सफलता भी मिली और फ़ूल और पत्थर, आये दिन बहार के, काजल, आँखें, नीला आकाश जैसी फिल्मों में उन्होंने बम्बईया हीरो के भाग भी बखू

यादें

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2002 में इंटरनेट पर पहली बार अपना एक पृष्ठ बनाया था, उसका नाम था "सृजन". उसे बनाने के लिए शुशा फोंट से कम्पयूटर पर हिंदी लिखना सीखा था. इस पृष्ठ के बनाने के पीछे माँ की चिंता थी. "तुम्हारे पापा ने जो लिखा है उसे सहेजना है, उसे छपवाना है" यह माँ के जीवन का ध्येय बन गया था. मेरे पिता ओमप्रकाश दीपक शायद पत्रकार, लेखक आदि से पहले समाजवादी चिंतक थे. 1975 में जब अचानक उनकी मृत्यु हुई तो वह 46 वर्ष के थे. माँ तब 44 साल की थी. मैं उस समय अपने पिता के लेखन के बारे में कुछ नहीं जानता था, कभी उनका लिखा कुछ नहीं पढ़ा था. डा. लोहिया, किशन पटनायक, रमा मित्रा, अशोक सेकसरिया जैसे समाजवादी लोग या रघुवीर सहाय, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना जैसे लेखक लोगों को उनके मित्रों या साथियों के रूप में जानता था, पर वह क्या सोचते हैं, क्या लिखते हैं, इसके बारे में कुछ नहीं जानता था, न ही उनसे कुछ बात होती थी. मेरी दुनिया, मेरे मित्र, मेरी दिलचस्पियाँ अलग थीं. 1972 से मेडिकल कालेज जाने के बाद से घर में कम ही रहता था, जब होता भी तो पापा क्या सोचते हैं, क्या लिखते हैं, इसके बारे में मन में कोई जिज्ञासा नह

नरगिसी आँखें, गुलाबी गाल

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इस साल इतनी फ़ूलों की तस्वीरें खींचीं जितनी पहले सारे जीवन में नहीं खींचीं थीं. इस साल एक फ़ूल पर ज़ूम करके फोकस करना और पीछे बैकग्राउँड को धुँधला करके फोटो खींचना पहली बार किया और यह तस्वीरें मुझे बहुत अच्छी लगती हैं इसलिए जब भी बाहर कोई फ़ूल देखता हूँ, तुरंत कैमरा बाहर निकल आता है. फ़ूलों की अधिक तस्वीरें खींचने की वजह से ही शायद बार बार मन में फ़ूलों से जुड़ी बातें आती हैं, जैसे कुछ दिन पहले मैंने " फ़ुल गेंदवा न मारो " शीर्षक का संदेश लिखा था. आज सुबह भी अपने कुत्ते के साथ सैर को निकला तो सुंदर टाईगर लिली के फ़ूलों को देख कर रुक गया. मेरे कुत्ते ब्राँदो को मेरा बार बार बिना वजह रुकना और तस्वीर खींचना अच्छा नहीं लगता, अधिकतर जब कैमरा क्लिक करने लगता हूँ तो झटका लगा कर हिला देता है, या फ़िर कभी फ़ूल के पीछे से आ कर तस्वीर बिगाड़ देता है. बहुत गुस्सा आये तो अँगद जी बन कर पाँव जमा देता है और आगे चलने का नाम नहीं लेता. खैर टाईगर लिली की तस्वीर खींच रहा था तो मन में फ़ूलो से दी जाने वाली उपमाओं की बात आयी. गुलाबी गालों की उपमा शायद सबसे अधिक प्रचलित है. हिंदी, अँग्रेजी, इतालवी, फ