अंतिम श्रद्धाँजलि - राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त
टिप्पणीः यह आलेख स्व. डा. सावित्री सिन्हा के आलेख संग्रह " तुला और तारे ", (नेशनल पब्लिशिंग हाउस दिल्ली, 1966) से है. दद्दा ( राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ) का देहांत 12 दिसंबर 1964 में हुआ. *** उस दिन दद्दा की विदा के बाद हम सबका मन भारी हो रहा था. स्टेशन के वेटिंग रूम में थोड़ी देर के लिए उनके गले में जलन सी होने लगी थी, इसलिए हमारी चिन्ता और भी बढ़ गयी थी. रात में दो तीन बार आँखें खुल गयीं. सुबह तड़के ही मुझसे रहा न गया और झाँसी के लिए ट्रंककाल बुक करवायी, न जाने मन में कैसी कैसी दुश्चिताएँ उठती रहीं, परन्तु टेलीफोन एक्सचेंज की कृपा से काल झाँसी नहीं, राँची की मिली, वह भी ग्यारह बजे दिन को. मेरे क्लास का समय हो रहा था इसलिए विवश हो कर उसे कैंसल करवाना पड़ा. पत्र लिखने की सोच रही थी कि ज्वरग्रस्त हो गयी और फ़िर उसी ज्वर में खबर मिली कि दद्दा नहीं रहे. जीवन की कुछ अमूल्य निधियों में मेरे लिए सबसे गौरवपूर्ण निधि दद्दा का अकारण स्नेह था. कहाँ मैं, एक अकिंचन, महत्वहीन तुच्छ व्यक्ति, और कहाँ भारत के महान राष्ट्रकवि के वात्सल्य का अगाध समुद्र. आज लग रहा है जैसे मेरी अपात्रता औ