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अप्रैल, 2006 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

पैर तुम्हारे, आलूबुखारे

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चीनी, मंदारिन भाषा में शायद यही नाम है मेरा, "पैर तुम्हारे आलूबुखारे". चित्रमय भाषाओं, यानि वह भाषाएँ जिनकी लिपी चित्रों पर आधारित हैं, में दिक्कत तब आती है जब आप को कुछ ऐसा लिखना पड़े जिसका शब्द आप की भाषा में न हो. हिंदी जैसी भाषा जो चित्रों यानि शब्दों पर नहीं बल्कि अक्षरों से लिखी जाती है, उनके कोई भी नया शब्द हो उसे लिखने में कोई मुश्किल नहीं होती. चित्रों पर आधारित भाषाओं में अक्षर नहीं होते, शब्द होते हैं. जब कोई नया शब्द आये तो आप को सबसे पहले उससे मिलते जुलते ध्वनी वाले शब्द खोजने पड़ते हैं जिनको मिला कर आप वह नया शब्द बना सकते हैं. मेरे नाम को ही लीजिए, सुनील. मंदारिन में लिखने के लिए मैं इससे मिलते जुलते शब्द खोजने लगा तो मुझे मिलेः 1. "ज़ू" यानि पैर - शब्दचित्र को ध्यान से देखिए, थोड़ी सी कल्पना से देखें तो इसमें आप को आदमी का सिर, हाथ और नीचे, लम्बा पैर दिखाई देगा. 2. "नि" यानि तुम, तुम्हारे - इसके शब्दचित्र में एक व्यक्ति खड़ा है तराजू के सामने जिस पर बैठा है एक और व्यक्ति 3. "लि" यानि आलूबुखारे का पेड़ + यह शब्दचित्र दो निशानों को मिला

पीली पीली सरसों

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पीली पीली सरसों के खेत तो शायद मैंने केवल यश चोपड़ा की फिल्मों में देखे हैं पर फ़ूलों से भरे बाग को देख कर अपने आप ही होठों पर गीत आ गया, "पीली पीली सरसों फ़ूली, पीली उड़ी पतंग, पीली पीली उड़ी चुनरिया, पीली पगड़ी के संग". मनोज कुमार से, उनकी फिल्मों से और इस गीत से, मुझे बचपन से चिड़ सी थी, इसलिए यह समझना थोड़ा कठिन है कि जिस बात से चिड़ थी, वही क्यों अब चालीस साल के बाद इस तरह खुशी के साथ ऐसे याद आ रही थी ? खैर आसपास कोई नहीं था, सिर्फ अपना कुकुर मित्र ब्रान्दो था, जिसने मेरी आवाज़ सुन कर चौंक कर मेरी ओर देखा. पर उसे भी मालूम है मेरी यह पुराने हिंदी फिल्मों के गाने की बीमारी. कुछ भी मौका हो, कोई न कोई गीत ध्यान में आ ही जाता है. आखिरकार बसंत आ ही गया. केलेंडर के हिसाब से बसंत 1 मार्च को आता है (इतालवी केलेंडर में दिसंबर से फरवरी तक शीत ऋतु होती है, मार्च से मई तक बसंत, जून से अगस्त तक ग्रीष्म और सितंबर से नवंबर तक पतझड़ ऋतु) पर 21 अप्रैल को जब ओस्तूनी जाने के लिए बोलोनिया से चला था तो ठँड थी और बाग में फ़ूल नहीं दिख रहे थे. बीच में कुछ दिन कुछ गरमी सी आयी थी तो तुरंत चैरी की पेड़ पर

भगवान कहाँ हैं ?

आज यहाँ इटली में गणतंत्र दिवस की छुट्टी है. करीब दो महीने हो गये घर पर आराम किये हुए, इसलिए आज सारा दिन आराम फरमाया गया. सुबह फ़िल्म देखी, "सलाम नमस्ते" जो मुझे विषेश अच्छी नहीं लगी, विषेशकर अंत का भाग बेकार लगा. दोपहर को इतने दिनों से न पढ़े हुए चिट्ठे पढ़े. फ़िर पंकज की पाठशाला में फोटोशाप के पाठ पढ़े. बढ़िया समझाया है, मुझ जैसे तकनीकी बुद्धू को भी समझ आ गया. पहले फोटोशोप फार डम्मिस जैसी किताबें खरीद कर भी नहीं पढ़ पाता था, समझ ही नहीं आती थीं. अब लगता है कि अगर पंकज इसी तरह से पाठ पढ़ाता रहा तो कुछ न कुछ तो समझ आ ही जायेगा. इसी खुशी में पंकज के "तरकश " को भी देखा और विभिन्न चिट्ठों को पढ़ा, जिसमें अनुगूँज कि पिछली धर्म पर हुई बहस भी थी. इस तरह घूमते फिरते, सोचा कि इस विषय पर कुछ लिखना चाहिये हालाँकि अनुगूँज का समय तो अब समाप्त हो गया है. मैं स्वयं को हिंदू मानता हूँ और यह भी कि हिंदू धर्म में अन्य सभी धर्मों से अधिक सुविधा है कि आप भगवान और धर्म की हर बात को खुल कर सोच सकें, उसकी आलोचना कर सकें, उस पर बहस कर सकें. यह बात मुझे बहुत अच्छी लगती है. मेरे विचार में इसकी वजह

भाषा, संस्कृति और मर्यादा की सीमाएँ

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रमण ने मेरे कल के लिखे "आपबीती कहने का साहस" पर टिप्पणी में लिखा है, "जहाँ तक आपबीती सुना पाने का प्रश्न है, क्या आप को यह नहीं लगता कि पश्चिमी समाज की सदस्या होने के नाते मरीआँजेला के लिए यह सब उतना मुश्किल नहीं होगा जितना भारतीय या अन्य कई समुदायों के सदस्यों के लिए होगा। कृपया राष्ट्रीयता और विभिन्न सामाजिक या आर्थिक बन्धनों का इस पहलू पर क्या असर होता है, इस बारे में अपना अनुभव बताएँ।" बहुत हद तक यह बात सही है कि भाषा समाजिक व्यवहार की मर्यादा के दायरे में बंद होती है और अगर सामाजिक व्यवहार किसी विषय पर खुल कर बात करना या बातचीत में कई विषेश शब्दों का प्रयोग करना गलत नहीं मानता तो उस विषय पर बात करना आसान होता है. पहली बात है किन शब्दों में यह बात करें. इतालवी भाषा में बहुत सारे वे शब्द जो हिंदी में गाली कहे जायेंगे, बातचीत में आम बोले जाते हैं, दोनो, पुरुषों और महिलाओं द्वारा. हिंदी में पुरुष ऐसे शब्द आपस में मित्रों के बीच तो बोल सकते हैं पर घर में या महिलाओं के सामने उस भाषा में बोलना अशिष्टा समझी जाती है. जनता के सामने भाषण देते समय इतालवी में भी उन शब्दों क

आप बीती कहने का साहस

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गाड़ी छोटी सी संकरी गली में फँस गयी थी, और समझ नहीं आ रहा कि क्या करें. हम लोग ओस्तूनी शहर में थे. दक्षिण पूर्वी इटली का यह शहर बहुत सुंदर है और उसके सफ़ेद रंग के घरों की वजह से उसे "श्वेत शहर" भी कहते हैं. मैं और मरीआँजेला वहाँ के चिकत्सकों की एसोसियेशन के निमंत्रण पर आये थे. शाम को चिकत्सक एसोसियेशन के सभापति ने हमें भोजन का निमंत्रण दिया था पर दिक्कत यह थी कि मरीआँजेला की बिजली वाली व्हील चेयर बंद करके किसी कार की डिक्की में नहीं आती और मरीआँजेला की टाँगों में लकवा है जिसकी वजह से उसे किसी कार में बिठाना कठिन है. इसलिए वह हर जगह अपनी बड़ी गाड़ी में जाती है जिसमें विषेश मशीन लगी है और वह व्हील चेयर समेत ही चढ़ जाती है. हम लोग होटल से तो सभीपति जी की गाड़ी के पीछे ही निकले थे पर थोड़ी दूर के बाद भीड़ में गड़बड़ हो गयी. मरीआँजेला किसी और गाड़ी के पीछे चल पड़ी जो कि वनवे (सिर्फ एक दिशा में यातायात वाली) वाली एक छोटी सी गली में घुस गयी. कुछ अंदर जा कर मालूम चला कि हम लोग गलत गाड़ी के पीछे गलत जगह आ गये थे तब तक बहुत देर हो गयी थी. आगे जा कर गली इतनी तंग थी कि मरीआँजेला की बड़ी गाड़ी न आगे जा

नेपाल जल रहा है

मोज़ाम्बीक में था तो भी नेपाल के समाचार मिल रहे थे. हर रोज़ पुलिस लोगों पर गोली चला रही, लाठियाँ बरसा रही है. आग लगी है नेपाल में और मन में बार बार वहाँ के स्थिति के बारे में चिंता होती है. पंद्रह साल पहले जब बर्लिन की दीवार गिरी थी तब एक के बाद एक, पुलिस, मिलेट्री और बंदूकों से रक्षित तानाशाहों को अचानक समझ आया था कि जिन किलों में बंद करके खुद को सुरक्षित महसूस करते थे वे बालू के किले थे जो जनरोष के सामने आसानी से ठह गये थे. वैसा ही लगता है नेपाल के बारे में भी. जिस तरह से डाक्टर, वकील, छात्र, पर्यटन कार्य वाले, आम व्यक्ति, सब लोग मिल कर नेपाल के राजा से प्रजातंत्र लाने के लिए मांग कर रहे हैं, उसके सामने पुलिस का दमन अधिक नहीं चल सकता. मेरे विचार में पुलिस और मिलेट्री वाले भी जनता के साथ हो जायेंगे क्योंकि अगर सारा नेपाल मिल कर एक आवाज़ से बदलाव माँग रहा है तो वे इससे बाहर नहीं रह सकते. यह ताश के पत्तों का किला गिरेगा तो सही, पर गिरने से पहले कितनों की जानें लेगा ?

मोज़ाम्बीक यात्रा

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इस यात्रा की डायरी पूरी पढ़ना चाहें या फ़िर इस यात्रा की अन्य तस्वीरें देखना चाहें तो उसे कल्पना पर पढ़ सकते हैं , आज प्रस्तुत हैं इसी डायरी का एक पृष्ठ. "सुबह यहाँ शहर की छोटी जेल देखने गया. शहर के बीचों बीच बहुत सुंदर जगह पर बनी है. सामने मिलेटरी की अकेडमी का भव्य भवन है. जेल के सामने से निकलिये तो भी वह दिखाई नहीं देती. नीची टूटी फूटी इमारत है. सलेटी रंग के पत्थर की दीवार पुराना खँडहर सी लगती है. अंदर घुसे तो एक टीन की छत वाली खोली में हमें बिठा दिया गया. खोली में एक युवक बैठा टाईपराईटर पर कुछ टिपटिप करता लिख रहा था. उसके सामने मेज़ पर अपने हाथों में सिर छुपा करके एक और युवक बैठा था जिसके हाथ में कँपन हो रहा था. सोचा कि शायद वह युवक बेचारा अभी नया नया जेल में लाया गया है और उसी के कागज़ तैयार हो रहे हैं. जेल का भवन बहुत नीचा सा एक मंजिला है. भीतर से लोगों के बात करने और चिल्लाने की आवाज़ें आ रहीं थी. बीच बीच में तेज गँध का झौंका भी आ जाता, हालाँकि जुकाम से मेरी नाक आजकल बंद है इसलिए गँध कम सूँघ पाता हूँ. तभी मेरे करीब खड़े एक सिपाही ने अपनी बंदूक की सफाई करना और उसमें गोलियाँ भरना

इल्या के सपने

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लगता है कि मानो चिट्ठा लिखे बरसों हो गये हों. अब तो यह मोज़म्बीक यात्रा करीब करीब समाप्त ही हो गयी है पर आज जहाँ ठहरा हूँ वहाँ इंटरनेट की सुविधा है और आज सुबह समय भी है, इसलिए सोचा कि आज अपनी इस यात्रा के बारे में ही कुछ लिखा जाये. बहुत घूमने का मौका मिला और एक द्वीप में जाने का मौका भी मिला जिसका नाम है "इल्या दे मोज़ाम्बीक". इल्या याने द्वीप. मोजाम्बीक के पूर्वी तट से कुछ दूर, छोटा सा द्वीप है जहाँ पोर्तगीस लोगों का पहला शहर बना था और जहाँ उन्होंने इस देश की पहली राजधानी बनाई थी. अफ्रीकी गुलामों के व्यापार में इल्या ने प्रमुख भाग निभाया था. इल्या दो मोजाम्बीक का द्वीप धरती से एक लम्बे पुल से जुड़ा है. सागर, नाव, मछुआरे, समुद्रतट पर घूमते पर्यटक देख कर छुट्टियों और मजे करने का विचार मन में आता है हालाँकि हम लोग यहाँ काम से आये हैं. द्वीप पुराने रंग बिरंगे घरों से भरा है जिनमे से बहुत सारे आज खँडहर जैसे हो रहे हैं, जिनकी भव्य दीवारों के बीच घासफूस उगी है या फिर पेड़ उग आये हैं. मछुआरों के घर फूस की झोपड़ियाँ हैं. द्वीप के उत्तरी कोने पर पोर्तगीस का पुराना किला है जहाँ गवर्नर रह

मेरा कुछ सामान

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गुलज़ार का गीत है "मेरा कुछ सामान तुम्हारे पास पड़ा है", जिसे आजकल अक्सर गुनगुनाने का दिल करता है. ऐसा पहले भी कई बार होता है, विषेशकर जिन दिनों में बहुत सी यात्राएँ करनी पड़ें. आजकल मेरा यात्रा का मौसम है, एक सूटकेस से निकाल कर गन्दे कपड़े निकालो और दूसरा सूटकेस उठाओ और फ़िर से निकल पड़ो. जब लोग मेरी यात्राओं का सुन कर कहते हैं कि "वाह, कितने मज़े हैं आप के!", तो मुझे झूठी हँसी के साथ, हाँ कह कर सिर हिलाने का अच्छा अभ्यास है. जीवन के हर हिस्से में जैसे अलग अलग "मैं" रहते हैं, काम पर एक मैं, इतालवी मित्रों के साथ एक और मैं और भारतीय मित्रों के साथ एक अन्य मैं. आप तौर पर यह सब भिन्न मैं, भिन्न हो कर भी एक दूसरे से बिल्कुल कटे हुए नहीं, कहीं न कहीं कोई सिरा मिलता है उनका. पर शहर से बाहर अनजान लोगों के बीच में यात्रा हो तो वहाँ जाने वाला मैं, बाकी सभी मैं से बिल्कुल कटा हुआ होता है. शायद इसीलिए वहाँ छोड़ी हुई यादें ज्यादा भारी लगती हैं ? जीवन जीने के हिस्से, मैं के टुकड़े जो यहाँ वहाँ छूट जाते हैं. शायद जो बचपन में कुछ कुछ सालों के बाद घर और शहर बदलने के लिए मज़बूर