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फ़रवरी, 2008 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

नये बाँध, पुरानी गलतियाँ

कल २७ फरवरी के अँग्रेज़ी समाचार पत्र फाँनेंशियल टाईमस् में समाचार था चीन में बनने वाले दुनिया के सबसे बड़े बाँध के बारे में जिसका शीर्षक था "नया बाँध फ़िर से नादान गलतियाँ कर रहा है" (New dam repeats stupid mistakes). अगर यह समाचार कोई पत्रिका वाला छापे तो सोचा जाता है कि अवश्य ही कम्यूनिस्ट होंगे या पुरातनपंथी जो विकास नहीं चाहते और हर आधुनिक तरक्की के पीछे उसकी अच्छाईयाँ छोड़ कर उनकी कमियों को खोजते हैं और फ़िर उन कमियों को बढ़ा चढ़ा कर ढिँढ़ोरा पीटते हैं. पर जब वह समाचार व्यवसायिक अखबार में छपे जो हमेशा उदारवाद और उपभोक्तावाद की तरफ़दारी करता हो तो उसका क्या अर्थ निकाला जायेगा? समाचार में बताया गया है कि 1950 के पास बने सनमेक्सिया बाँध के अनुभव से कुछ नहीं सीका गया. जब सनमेक्सिया बाँध बन रहा था तो कहते थे कि उससे देश कि एक तिहाई बिजली की माँग पूरी होगी, असलियत में उसका दसवाँ हिस्सा बिजली में नहीं दे पाया और पानी में बह कर आने वाले मिट्टी से धीरे धीरे बंद सा हो गया. हज़ारों लोग जिनके घर पानी में डूबे, जो धरती और वनस्पति पानी में डूबी, सब व्यर्थ और अब वे विस्थापित लोग धीरे धीरे म

मधु किश्वर

मधु किश्वर का आऊटलुक में छपा लेख पढ़ कर दिल दहल गया. मानुषी जैसी पत्रिका निकालने वाली मधु जी का नाम जाना पहचाना है. अपने लेख में उन्होंने दिल्ली में कुछ जगह पर सड़कों पर सामान बेचने वालों के जीवन में सुधार लाने के लिए किये एक नये प्रयोग के बारे में लिखा है जिसका विरोध करने वाले कुछ स्थानीय गुँडों ने स्थानीय पुलिस वालों के साथ मिल कर उन पर तथा मानुषी के अन्य कार्यकर्ताओं पर हमले किये हैं. लेख पढ़ कर विश्वास नहीं होता कि हाईकोर्ट, गर्वनर, और यहाँ तक कि प्रधानमंत्री भी उन लोगों की रक्षा करने में असमर्थ हैं और इस प्रयोग के सामने आयीं रुकावटों को नहीं हटा पा रहे. देश में कानून का नहीं स्थानीय गुँडों का राज चलता है यह तो तस्लीमा नसरीन, जोधा अकबर, मुम्बई में राज ठाकरे काँड जैसे हादसों से पहले ही स्पष्ट था. थोड़े से लोग चाहें तो मनमानी कर सकते हैं, पर सोचता था कि यह सब इसी लिए हो सकता है क्योंकि राजनीति में गुँडागर्दी का सामना करने का साहस नहीं क्योंकि वह वोट की तिकड़म का गुलाम है पर जान कर, चाह कर भी प्रधानमंत्री और गवर्नर कुछ नहीं कर पाते, इससे अधिक निराशा की बात क्या हो सकती है! भारत दुनिया का

धर्म एवं आस्था

कुछ दिन पहले पुरी में जगन्नाथ मंदिर जाने का मौका मिला था, पर वहाँ का भीतरी कमरा जहाँ भगवान जगन्नाथ की प्रतिमा है वह उस समय बंद था, क्योंकि "यह प्रभु के विश्राम का समय था". पुजारी जी बोले कि अगर मैं समुचित दान राशि दे सकूँ तो विषेश दर्शन हो सकता है. यानि पैसा दीजिये तो प्रभु का विश्राम भंग किया जा सकता है. भुवनेश्वर के प्राचीन और भव्य लिंगराज मंदिर में, पहले दो पुजारियों में आपस में झड़प देखी कि कौन मुझे जजमान बनाये. भीतर पुजारियों ने सौ रुपये के दान की छोटेपन पर ग्यारह सौ रुपये की माँग को ले कर जो भोंपू बजाया तो सब प्रार्थना और श्रद्धा भूल गया. मंदिर में फोटो खींचना मना है पर विदेशी, अहिंदू पर्यटकों के लिए अलग से छज्जा बनाया गया है जहाँ से तस्वीर खींच सकते हैं, क्योंकि उन्हें मंदिर में घुसना वर्जित है. उस छज्जे पर खड़ा हो कर धर्म और आस्था की बात को सोच रहा था कि क्यों हर धर्म में रूढ़िवाद का ही राज होता है? भगवान की पवित्रता बड़ी है या विदेशी अहिंदू पर्यटकों की अपवित्रता, तो क्यों नहीं अहिंदू पर्यटक मंदिर में घुस कर पवित्र हो जाते? कोई भगवान अपने ही बनाये मानवों से अपवित्र हो सकत

खोयी यादें (भारत यात्रा डायरी, अंतिम)

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इस बार दिल्ली में मेट्रो से द्वारका मोड़ तक की यात्रा की. कितनी यादें जुड़ीं थी उस रास्ते से. पहली बार कब गया था उस तरफ़, यह याद नहीं. वह यात्रा मौसियों के साथ होती थी. "ज़मीन पर जाना है", सोच कर ही दिनों पहले तैयारी शुरु हो जाती थी. पाकिस्तान में छूटी ज़मीन जयदाद के बदले में नाना को मुवाअजे में वे खेत मिले थे जिन्हें हम "ज़मीन" के नाम से जानते थे. नाना ने उन्हें दीवनपुर का नाम दिया था. फिल्मिस्तान के पास शीदीपुरा से तिलक नगर आने में ही दो बसे बदलनीं पड़ती थीं. फ़िर तिलकनगर से 14 नम्बर की नजफ़गढ़ जाने वाली बस से ककरौला मोड़ उतरते थे. नानी की रसोई में गोबर के उपले जलते थे. उपले बनाने के लिए सिर पर तसली ले कर गोबर उठाने जाना मुझे बहुत अच्छा लगता था. गरम, मुलायम गोबर जीता जागता जंतु सा लगता था. नानी की बनायी हर चिज़ में उसी की गंध होती थी, उबले दूध में भी. रसोई के पीछे छोटा कूँआ था जहाँ बरतन धोते और पीने का पानी लेते. कुछ दूर, पेड़ों के झुँड के बीच में एक और बड़ा कूँआ था जहाँ छोटा सा टैंक भी था. मोटर चलाने से पानी की मोटी धारा जब टैंक में आती तो गरम दोपहर में उसके नीचे नहाने

भगवान की खोज (भारत यात्रा डायरी 3)

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खुजराहो और कोणार्क की काम शास्त्र के सिद्धातों को सहज रुप में, बिना किसी पर्दों और शर्म के, प्रस्तुत करने वाली मूर्तियों के बारे में बहुत सुना था पर पहले देखने का मौका कभी नहीं मिला. इधर उधर कुछ तस्वीरें देखीं थीं इसलिए उन्हें देखने की उत्सुक्ता भी थी मन में. कोणार्क की मूर्तियों में कामशास्त्र के सभी आसन दिखने को मिलते हैं. मूर्तियों के आकार से अपेक्षाकृत बहुत बड़े बने हुए पुरुष अंग स्पष्ट ही अपना ध्येय सामने रख देते हैं, जीवन को खुल कर आनंद से जीने का ध्येय. कामक्रीणा में रत मूर्तियाँ अलग से किसी कोने में नहीं बनी, बल्कि भगवान, देवी देवताओं की अन्य मूर्तियों के बीच ही मिली जुली हैं. उनमें आत्माओं या मन के मिलन की बात नहीं, उनका ध्येय तो शारीरिक आनंद है जो कि भारतीय दर्शन के मूलभूत विचार कि जग माया है और इंद्रियाँ मानव को मायाजाल में फँसातीं हैं से विपरीत लगता है. शायद इन मूर्तियों की प्रेरणा धर्म के तांत्रिक मार्ग से आती है क्योंकि सुना है कि तांत्रिक मार्ग में ही यौन सम्पर्कों को भी ईश्वर तक पहुँचने का माध्यम माना जाता है. मंदिर के आसपास घूमते गावों के, शहरों के स्त्री पुरुषों के दल

माघ पूजा (भारत यात्रा डायरी 2)

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भुवनेश्वर से सुबह पाँच बजने से पहले ही निकल पड़े थे और छहः बजने से पहले कोणार्क पहुँच गये थे. आकाश बादलों से ढ़का था पर अँधेरे की कालिमा धीरे धीरे मध्यम पड़ रही थी. साथ में डा. मणि और डा. पति थे. बोले कि चलो पहले चाय पीते हैं. चाय के ढ़ाबे समुद्र तट की ओर थे, वहाँ पहुँचे तो समुद्र तट पर बैठी भीड़ को देखा. तट के साथ साथ राख जैसे समुद्र को ताकते बैठी थी उनकी कतार जैसे पानी पर तैरती धुँध में कुछ खोज रही हो. कौन हैं वे लोग? मैंने डा. पति से पूछा तो उन्होंने बताया कि माघ के महीने में उगते सूर्य की पूजा करने वहाँ के आसपास के लोग हर सुबह वहाँ आते हैं और सूरज के निकलने की प्रतीक्षा कर रहे थे. सर्द सुबह में ठिठुरते हुए लोग रेत पर उकड़ु बैठे थे. बायीं तरफ़ एक छोटा सा मंदिर दिख रहा था, पूजा करने वालों की एक लम्बी कतार उस ओर जा रही थी. समुद्र तट पर एक ऊँट वाला और एक घोड़े वाला पर्टकों के आने के इंतज़ार में थे. पास ही गाँव की वृद्ध और प्रौढ़ औरतों का एक झुँड छोटा सा घेरा बना कर रेत पर बैठा था. घेरे के बीच में रेत में ही छोटा सा खड्डा बना कर उसके भीतर एक दिया जलाया था. धीमे स्वर में वह अपनी प्रार्थनाएँ बुदब

चारमीनार की छाया में

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कल रात को तीन सप्ताह की भारत यात्रा के बाद वापस बोलोनिया लौट आया. प्रस्तुत हैं इस यात्रा की डायरी के कुछ पन्ने. *** हैदराबाद की हाईटेक सिटी में ठहरे थे. हाईटेक सिटी यानि वही जाना पहचाना भारतीय मेले जैसा जीवन जिसमें धूल मिट्टी, पान तम्बाकू, गाय भौंपू, साग सब्जी फिल्मी गाने, गप्पबाजी गालियाँ, सब वही हैं जो पुराने शहर में हैं पर इस तेज बहती जीवन धारा के बीच बीच में साईबर टावर जैसे द्वीप बने हैं जहाँ गेट पर पहरेदार खड़े हैं, साफ़ सुथरी चौड़ीं सड़कें, हरियाली, वातानाकूलित भवन, वाईफाई, स्टील और शीशे. लाल्टू कहते हैं कि एक अन्य अंतर है नये हाईटेक शहर में और पुराने शहर में जो बहुत महत्वपूर्ण है, यानि हर वस्तु पाँच गुना महँगी मिलती है. कुष्ठ रोग पर विश्व कोनफ्रैंस नये अंतर्राष्ट्रीय केंद्र में हो रही है जहाँ पहुँचना आसान नहीं. कोनफ्रैंस में सारा दिन इधर उधर भागते, सुनते, बहस करते निकल जाता है. बीच बीच में कोई बोलने वाला बोर करता है तो थोड़ी देर सोने का मौका भी मिलता है. सारा दिन नींद आती है पर रात में बिस्तर में लेटते ही गुम हो जाती है, सुबह सुबह जब आँख लगती है तो उठने का समय हो जाता है. रात भर समा