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अप्रैल, 2007 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

बहुत बड़ी है दुनिया

कुछ दिन दूर क्या हुए, हिंदी चिट्ठा जगत तो माने दिल्ली हो गया. हर साल जब दिल्ली लौट कर जाता हूँ तो सब बदला बदला लगता है. पुराने घर, वहाँ रहने वाले लोग, सब बदले लगते हैं. बहुत से लोग अपनी जगह पर नहीं मिलते. कहीं नये फ्लाईओवर, कहीं नये मेट्रो के स्टेशन तो कहीं सीधे साधे घर के बदले चार मंजिला कोठी. कुछ ऐसा ही लगा नारद पर. पहले तो लिखने वाले बहुत से नये लोग, जिनके नाम जाने पहचाने न थे. ऊपर से ऐसी बहसें कि लगा कि बस मार पिटायी की कसर रह गयी हो (शायद वह भी हो चुकी हो कहीं बस मेरी नजर में न आई हो?) सोचा कुछ नया पढ़ना चाहिये तो पहले देखा सुरेश जी का चिटठा जिसमें उनका कहना था कि अपराधियों को बहुत छूट मिली है, उनके लिए मानवअधिकारों की बात होती है जबकि निर्दोष दुनियाँ जो उनके अत्याचारों से दबी है उसके मानवअधिकारों की किसी को चिंता नहीं है. यानि पुलिस वाले अगर अपराधियों को पकड़ कर बिना मुदकमें के गोली मार दें या उनकी आँखों में गँगाजल डाल दें तो इसे स्वीकार कर लेना चाहिये, क्योंकि कभी कभी "गेहूँ के साथ घुन तो पिसता ही है". मैं ऐसे विचारों से सहमत नहीं हूँ क्योंकि मैं सोचता हूँ कि समाज को हर

ऊन से बुनी मूर्तियाँ

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स्पेन की दो वृतचित्र बनाने वाली निर्देशिकाओं लोला बारेरा और इनाकी पेनाफियल ने फिल्म बनायी है "के तियेन देबाहो देल सामब्रेरो" (Qué tienes debajo del sombrero), समब्रेरो यानि मेक्सिकन बड़ी टोपी और शीर्षक का अर्थ हुआ "तुम्हारी टोपी के नीचे क्या है". यह फ़िल्म है अमूर्त ब्रूट कला की प्रसिद्ध कलाकार जूडित्थ स्कोट के बारे में, जो अपनी बड़ी टोपियों और रंगबिरंगे मोतियों के हार पहनने की वजह से भी प्रसिद्ध थीं. ब्रूट कला यानि अनगढ़, बिना सीखी कला जो विकलाँग या मानसिक रोग वाले कलाकारों द्वारा बनायी जाती हैं. जूडित्थ गूँगी, बहरी थीं और डाऊन सिंड्रोम था, जिसकी वजह से उनका मानसिक विकास सीमित था. जूडुत्थ की कहानी अनौखी है. 1943 में अमरीका में सिनसिनाटी में जन्म हुआ, जुड़वा बहने थीं, जूडित्थ और जोयस. दोनो बहने एक जैसी थी बस एक अंतर था. जूडित्थ को डाऊन सिंड्रोम यानि मानसिक विकलाँगता थी और गूँगी बहरी थीं, जोयस बिल्कुल ठीक थी. छहः वर्ष की जूडित्थ को घर से निकाल कर बाहर मानसिक विकलाँगता के एक केंद्र में भेज दिया गया. घर में उसके बारे में बात करना बंद हो गया, मानो वह कभी थी ही नहीं पर जोयस

मानव शरीरों से अमूर्त कला

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रात को रायटर के अंतर्जाल पृष्ठ पर समाचार देख रहा था कि नज़र नीचे 15 अप्रैल के एक समाचार पर गयी. १५० लोगों नें हौलैंड में प्रसिद्ध अमरीकी छायाचित्रकार स्पेंसर ट्यूनिक (Spencer Tunick) के अमूर्त कला तस्वीरों के लिए निर्वस्त्र हो कर तस्वीरें खिंचवायीं. समाचार के साथ दिखाया जाना वाले दृष्य भी अनौखे थे. एक तरह स्त्री पुरुष आराम से कपड़े उतार रहे थे, फ़िर वे सब लोग ट्यूलिप के फ़ूलों के आसपास तस्वीरें खिचवाने लगे. एक पवनचक्की के सामने, जमीन पर साथ साथ लेटे शरीरों से बने पवनचक्की के पँखों का दृष्य बहुत सुंदर लगा. बाद में गूगल से श्री ट्यूनिक के बारे में खौज की तो मालूम चला कि श्रीमान जी इस तरह के निर्वस्त्र अमूर्त कला तस्वीरों, यानि इतने शरीर साथ हो कि बजाय एक व्यक्ति की नग्नता देखने के सारे शरीर मिल कर अमूर्त कला बनायें, के लिए प्रसिद्ध हैं और इस तरह के प्रयोग न्यू योर्क के रेलवे स्टेशन, वेनेसूएला में काराकास शहर, इंग्लैंड में न्यू केस्ल के मिलेनियम ब्रिज और अन्य बहुत सी जगह पर कर चुके हैं. जो लोग इन तस्वीरों में भाग लेते हैं वह निशुल्क काम करते हैं, शुल्क के तौर पर बस उन्हें अपनी एक तस्वीर मि

ज्हाँग यू का बदला

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चीन के फ़िल्म जगत में कुमारी ज्हाँग यू (Zhang Yu) ने तूफ़ान मचा दिया. बात कुछ वैसी ही थी जैसी कुछ समय पहले भारत में स्ट्रिँगर आपरेशन में शक्ती कपूर जैसे "अभिनेताओं" के साथ हुई थी, जब महिला पत्रकार अभिनेत्री बनने की इच्छा रखने वाली युवती बन कर फ़िल्म जगत के जाने माने लोगों से मिलीं और छिप कर इस मिलन की वीडियो खींचे जिनसे स्पष्ट होता था कि अभिनेत्री बनाने का वायदा करके कुछ लोग युवतियों से उसकी कीमत माँगते थे. कुमारी यू चीन के मध्य भाग के राज्य हूबेई के गाँव से हैं और वह बेजिंग गायिका बनने की इच्छा से आयीं थीं. बहुत कोशिश करने पर भी उन्हें गायिका काम नहीं मिला पर फ़िल्मों में कुछ छोटे मोटे एस्ट्रा के भाग मिले. उन्होंने बहुत से फ़िल्म निर्माता, निर्देशकों आदि से मिलने की कोशिश की, जो शारीरिक सम्बंधों की कीमत माँगते और फ़िल्म में भाग देने का वायदा करते. 14 नवंबर 2006 को यू ने अपना चिट्ठे पर जाने माने चीनी फिल्म निर्माता निर्देशकों के वीडियो दिखाना प्रारम्भ किया और सारे देश में खलबली मचा दी. अब तक करीब बीस वीडियो दिखा चुकीं हैं और कहती हैं कि और भी हैं. भारत में हुए स्ट्रिँग आपरेशन

टेलीविजन की सीमाएँ

टेलीविज़न समाचारों में दिखाये गये दृष्य रौंगटे खड़े देने वाले थे. देख कर बहुत गुस्सा आया. क्या जरुरत थी वह दृष्य दिखाने की? सोचा कि उठ कर टीवी बंद कर दूँ पर इतनी भयानक लग रही वह बात कि न नज़र हटा पाया या सोफे़ से उठ पाया. बाद में यह सोच रहा था कि यह समाचार न भी बताते तो क्या हो जाता और अगर बताना ही था बिना दिखाये भी तो बताया जा सकता था? समाचार था 12 साल के अफ़गानी लड़के का जिसके हाथ में चाकू था, फ़िर दिखाया जीप में आ रहे व्यक्ति को जिस पर अमरीकी जासूस होने का आरोप था और जिसकी आँखें डरे हिरन की तरह इधर उधर झाँक रहीं थीं. कुछ व्यस्क लोगों ने जासूस को कस कर पकड़ लिया और फ़िर बारह वर्ष के लड़के ने जासूस को मृत्यदँड सुनाया और आगे बढ़ कर चाकू से उसकी गर्दन काट दी. बस अंत के कुछ क्षण टीवी वालों ने नहीं दिखाये. इतना धक्का लगा कि अब भी इस बात को सोच कर गुस्सा आ जाता है. बच्चे मासूम नहीं होते, सिखाया पढ़ाया जाये तो हत्यारे भी हो सकते हैं, यह नई बात नहीं है, मालूम है. दुनिया में अत्याचार करने वाले, क्रूरता दिखाने वाले, पत्थर दिल जल्लादों की कमी नहीं. अपने गुस्से की वजह के बारे में सोच रहा था कि क्यों म

शादी हो तो ऐसी

अखबार का पन्ना पलटा तो हैरान रह गया. पूरा पन्ना अभिशेख और एश्वर्या की शादी के बारे में था, बहुत सी तस्वीरें भी थीं और संगीत से ले कर शादी का सारा प्रोग्राम भी था. यहाँ के लोगों को समझाने के लिए हिंदू विवाह की विभिन्न रीतियों को विस्तार से समझाया गया था. भारतीय मीडिया तो शादी के बारे में पागल हो ही रहा था, यहाँ वालों को क्या हो गया? इतालवी समाचार पत्रों में भारत के किसी समाचार को इतनी जगह तो बड़ी दुर्घटना या दँगों के बाद भी नहीं मिलती जितनी इस विवाह को मिली है. भारत में पर्यटन के लिए आने वाले लोगों में बदलाव आ रहा है. विश्व स्वास्थ्य संस्थान के अनुसार भारत में सस्ती और बढ़िया सर्जरी करवाना, या बीमारियों का इलाज करवाने आदि के लिए आने वाले "पर्यटकों" की संख्या तेजी से बढ़ रही है. भारतीय दूतावास इस बारे में पर्यटकों को सलाह दने के लिए बहुत काम कर रहे हैं, क्योंकि मलेशिया, सिँगापुर, थाईलैंड जैसे देश हमसे बाजी न मार लें उसका भी तो सोचना है. यह बात और है कि हर वर्ष विश्व में आम बीमारियों से, जिनका आसानी से इलाज हो सकता है, मरने वाले पाँच वर्ष से कम आयु के एक करोड़ बच्चों मे से करीब 25 प

बसंती, तुम्हारा नाम क्या है?

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शोले का वह दृष्य दिखायें जिसमें अमिताभ बच्चन भैंस पर बैठ कर आते हैं और गलियारे में संध्यादीप जलाती विधवा जया भादुड़ी उन्हें देखती है? या फ़िर जब धर्मेंद्र दारू की बोतल ले कर पानी की टंकी पर चढ़ कर बंसती से प्रेम की और मौसी की बनाई रुकावटों की कहानी सुनाते हैं? नहीं, कुछ दम नहीं है शोले में इस दृष्टी से, किसी और फ़िल्म का सोचा जाये. क्यों न मणीरत्नम की "बम्बई" के माध्यम से हिंदू और मुस्लिम युगल के प्रेम की कठिनाईयों को दिखाया जाये? बहस इस बात पर हो रही है कि भारतीय एसोसियेशन के द्वारा आयोजित किये जाने वाले समारोह में कौन सी फ़िल्मों के दृष्यों को चुना जाये. सोचा कि गम्भीर बातों को भी कुछ हल्के तरीके से प्रस्तुत किया जा सकता है. "भारतीय नारी बोलीवुड के सिनेमा के माध्यम से", नाम दिया गया है इस समारोह को और हम खोज रहे हैं ऐसे दृष्य जिनसे भारत में स्त्री पुरुष के सम्बंधों के बारे में विभिन्न पहलुओं पर विचार किया जा सके. दृष्य छोटा सा होना चाहिये, और हर दृष्य के बाद उस पहलू पर बहस की जायेगी. मुझे प्रजातंत्र में विश्वास है, यानि कुछ भी करना हो तो सबकी राय ले कर करना ठीक लगता

गुमनाम कलाकार

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कल की अखबार में पढ़ा कि प्रसिद्ध अमरीकी वायलिन बजाने वाले कलाकार श्री जोशुआ बेल अपने लाखों रुपयों की कीमत वाले स्त्रादिवारी वायलिन के साथ वाशिंगटन शहर के एक मेट्रो स्टेशन पर 45 मिनट तक वायलिन बजाते रहे पर उन्हें किसी ने नहीं पहचाना. अपनी कंसर्ट में हज़ारों डालर पाने वाले जोशुआ ने बाद में उन्होंने सामने रखे वायलिन केस में यात्रियों द्वारा डाले सिक्के गिने तो पाया कि कुल 32 डालर की आमदनी हुई थी. मुझे सड़क पर अपनी कला दिखाने वाले लोग बहुत प्रिय हैं और इस बारे में पहले भी कुछ लिख चुका हूँ. विषेशकर लंदन के मेट्रो में संगीत सुनाने वाले कई गुमनाम कलाकार मुझे बहुत भाते हैं. सात आठ साल पहले की बात है, एक बार पिकाडेल्ली सर्कस के स्टेशन पर जहाँ सीढ़ियाँ कई तलों तक गहरी धरती की सतह से नीचे जाती हैं, वहाँ उतरते समय एक कलाकार को इलेक्ट्रिक बासुँरी पर रेवल का बोलेरो ( Bolero, Ravel ) सुनाते सुना था जो इतना अच्छा लगा जितना कभी रिकार्ड या सीडी पर सुन कर नहीं लगा. स्टेशन की गहराई की वजह से शायद ध्वनि में अनौखी गूँज आ गयी थी जिसने दिल को छू लिया था. रेलगाड़ी या मेट्रो में जब कोई इस तरह का गुमनाम सड़क का कलाक

भारतीय सीख

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रोम से एक पुस्तक प्रकाशक ने सम्पर्क किया और पूछा कि क्या मैं एक पुस्तक की समीक्षा करना चाहूँगा? बोला कि वह मेरा इतालवी चिट्ठा पढ़ता है जो उसे अच्छा लगता है और चूँकि यह किताब एक भारतीय लेखक की है, वह चाहता है कि मैं इसके बारे में अपनी राय दूँ. अच्छा, कौन है लेखक? मैंने उत्सुक्ता से पूछा, क्योंकि इटली में रहने वाला कोई भारतीय लेखक भी है यह मुझे मालूम नहीं था. पता चला कि कोई ज़हूर अहमद ज़रगार नाम के लेखक हैं जो कि कश्मीर से हैं और पश्चिमी उत्तरी इटली में सवोना नाम के शहर में रहते हैं जिन्होंने भारतीय कहानियों पर किताब लिखी है. जब किताब मिली तो देख कर कुछ आश्चर्य हुआ, उस पर शिव, पार्वती और गणेश की तस्वीर थी. जब नाम सुना था और यह जाना था कि ज़हूर कश्मीर से हें तो मन में छवि सी बन गयी थी कि अवश्य भारत विरोधी, कट्टर किस्म के व्यक्ति होंगे. किताब पढ़नी शुरु की तो बहुत अच्छी लगी. अहमद, किताब का हीरो लखनई रेलवे स्टेशन पर फ़ल बेचता है और माँ की चुनी लड़की से विवाह के सपने भी, पर अचानक एक दिन स्टेश्न पर उसकी मुलाकात एक व्यास गिरी नाम के साधू से होती है और वह सब कुछ छोड़ कर यात्रा पर निकल पड़ता है. अलग

मूल्यों की टक्कर

कोर्स में हम अठारह लोग थे. बहुत समय के बाद मुझे विद्यार्थी बनने का मौका मिला था वरना तो हमेशा मुझे कोर्सों में पढ़ाने की ज़िम्मेदारी ही मिलती है. हमारे कोर्स की शिक्षिका थीं मिलान के एक कोओपरेटिव की अध्यक्ष, श्रीमति फ्लोरियाना और कोर्स का विषय था गुट में अन्य लोगों के साथ मिल कर काम करने की कठिनाईयाँ. बात आई सिमुलेशन की यानि यथार्थ में होने वाली किसी घटना की नकल की जाये जिससे हमें अपने आप को और अपने व्यवहार को समझने का मौका मिले. मिल कर यह निर्णय किया हमने कि घटना हमारे काम से अधिक मिलती जुलती नहीं होनी चाहिये बल्कि कालपनिक जगत से होनी चाहिये जिससे हम साथ काम करने वालों को यह न लगे कि हमारे विरुद्ध कुछ कहा जा रहा है. घटना थी कि हम सब लोग मिल कर एक जहाज़ में यात्रा कर रहे हैं. एक दिन अचानक तेज तूफान आता है जिसमें जहाज़ को कुछ नुक्सान होता है, जहाज़ का रेडियो भी खराब हो जाता है जिससे बाहरी जगत से हमारा सम्पर्क टूट जाता है और हम समझ नहीं पाते कि हम कहाँ पर हैं. खैर तूफान के बाद रात को हम सब लोग जान बचने की खुशी कर रहे होते हैं कि अचानक दूसरा तूफान आ जाता है, जो पहले तूफान से अधिक तेज है और