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फ़िर ले आया दिल .. यमुना किनारे

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उम्र के बीतने के साथ पुरानी भूली भटकी जगहों को देखने की चाह होने लगती है, विषेशकर उन जगहों की जहाँ पर बचपन की यादें जुड़ी हों. ऐसी ही एक जगह की याद मन में थी, दिल्ली में यमुना किनारे की. बात थी 1960 के आसपास की. मेरी बड़ी बुआ डा. सावित्री सिन्हा तब दिल्ली के इन्द्रप्रस्थ कोलिज में हिन्दी पढ़ाती थीं. उनका घर था इन्द्रप्रस्थ कोलिज के साथ से जाती छोटी सी सड़क पर जिसे तब मेटकाफ मार्ग कहते थे, जो अँग्रेज़ो के ज़माने के मेटकाफ साहब के घर की ओर जाती थी जिन्होंने महरौली के पास के प्राचीन भग्नावशेषों को खोजा था और जहाँ आज भी उनके नाम की एक छतरी बनी है. यमुना वहाँ से दूर नहीं थी, पाँच मिनट में पहुँच जाते थे. तब वहाँ घर नहीं थे, बस रेत ही रेत और कोई अकेला मन्दिर होता था. तभी वहाँ नया नया बौद्ध विहार बना था. वहीं रेत पर दिन में खेलने जाते थे या कभी शाम को परिवार वालों के साथ सैर होती थी. बीस साल बाद, 1978 के आसपास जब सफ़दरजंग अस्पाल में हाउज़ सर्जन का काम करता था तो अपने मित्रों के साथ बौद्ध विहार के करीब बने तिब्बती ढाबों में खाना खाने जाया करते थे. इस बार मन में आया कि उन जगहों को देखने

हिन्दी फ़िल्मों में मानसिक रोग और मानसिक विकलाँगता

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बीमारियाँ और विकलाँगताएँ मानव जीवन का अभिन्न अंग हैं. हिन्दी फ़िल्मों और बीमारियों का नाता बहुत पुराना है. बीमारी, कष्ट, मृत्यू इन सब बातों से फ़िल्मों की कहानियों को भावात्मक मोड़ मिल जाते हैं. बीमारी के विषय पर बनी फ़िल्मों के बारे में सोचें तो मन में " दिल एक मन्दिर ", " आनन्द ", " सफ़र ", " गुज़ारिश " और " कल हो न हो " जैसी न भूलने वाली फ़िल्में याद आ जाती हैं. दूसरी ओर, कुछ फ़िल्मों में शारीरिक विकलाँगताओं से जुड़ी कहानियों को मानव जीवन के संघर्ष से जोड़ कर सुरुचिपूवक ढंग से दिखाया गया है. 1960 के दशक की " जागृति " और " दोस्ती " से ले कर कुछ माह पहले आयी " बर्फी " तक आप को हिन्दी फ़िल्म जगत से इसके कितने ही उदाहरण मिल सकते हैं. लेकिन साथ ही, हिन्दी सिनेमा ने विकलाँगताओं को अक्सर हँसी मज़ाक का विषय भी बनाया है जैसे कि अभिनेता तुषार कपूर जो अजीब से गूँगे युवक का पात्र निभाने के लिए प्रसिद्ध हो गये हैं और कई फ़िल्मों में इस तरह के पात्र को निभा चुके हैं. एक ओर जहाँ कैंसर जैसी बीमारियों तथा शारीरिक व

फिल्मी जीवन

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कुछ दिन पहले इंटरनेट पर अँग्रेज़ी के अखबार हिन्दुस्तान टाईमस् पर सुप्रतीक चक्रवर्ती की लिखी नयी फ़िल्म "अजब ग़ज़ब लव"  की आलोचना पढ़ रहा था तो एक वाक्य पढ़ते पढ़ते रुक गया. उन्होंने लिखा था "अब तो बोलीवुड का समझ लेना चाहिये कि सचमुच के जीवन में शेव किये हुए बिना दाढ़ी वाले पर सिर पगड़ी पहनने वाले सिख नहीं होते". मन में आया कि अगर सचमुच के जीवन में इस तरह के सिख नहीं होते तो इन फ़िल्मों को देख कर होने लगेंगे. यानि कभी कभी मुझे लगता है कि इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि सचमुच के जीवन में कुछ होता है या नहीं, अगर फ़िल्मों में दिखने लगेगा, तो धीरे धीरे सचमुच के जीवन में भी होने लगता है. वैसे तो पिछले कई वर्षों में पत्रिकाओं में पढ़ा था कि पंजाब में बहुत से सिख नवयुवक सिर के बाल और दाढ़ी कटा रहे हैं. यह भी पढ़ा था कि कुछ सिख संस्थाओं ने सिर पर पगड़ी कैसे बाँधते हैं इसकी कक्षाएँ चलानी शुरु की हैं, क्योंकि बहुत से नवयुवक पगड़ी बाँधना ही नहीं जानते. इसके साथ यह भी सच है कि सिख धर्मियों में भी विभिन्न गुट हैं और उनमें से कुछ गुट जैसे कि नानकपंथी गुट, बाल और दाढ़ी नहीं बढ