"यहाँ मेरे मित्र का घर था. यहाँ रसोई थी उनकी. कितनी बार बचपन में यहाँ बैठ कर मीठी चैरी खाते थे. .. इस जगह "कपरारा दी सोपरा" नाम था इस गाँव का, 29 सितंबर था उस दिन जब चालिस लोगों को मारा. उस घर में सब लाशें इक्ट्ठी थीं, बच्चे, बूढ़े, औरतें, सबको अंदर बंद करके अंदर बम फैंके थे, जो बाहर निकलने की कोशिश करता उसे मशीनगन से भून देते. ... यहाँ फादर फेरनान्दो की लाश मिली थी, गिरजाघर में ... इधर पड़ी थी लुईजी की लाश, साथ में उसकी बहन थी. कहता था भूख लगी है कुछ खाने का ले कर आऊँगा. हम सब लोग नौ दिनों से तहखाने में छुपे बैठे थे. ... बम से उड़ा दिया उन्होंने गिरजाघर के दरवाज़े को. साठ लोग थे भीतर छुपे हुए सबको बाहर निकाला गया. डान उबाल्दो मारकियोनी पादरी थी, रोकने लगे तो उन्हें सबसे पहले यहीं मारा. बाकी सब लोगों को वहाँ कब्रिस्तान में ले गये. बच्चे, बूढ़े, औरतें, सभी को. दीवार ऊँची थी, कहीं भागने की जगह नहीं थी. मशीनगन चलाई, सभी यही मिले. औरतें और बूढ़े, बच्चों को बचाते हुए, पर किसी को नहीं बचा पाये... ऊपर से फूस डाल कर आग लगा दी..."
बोलते बोलते पिएत्रो की आवाज़ भर्रा जाती. उन मरने वालों में उसकी चौदह साल छोटी बहन थी, गर्भवती भाभी थी और पिता थे. "बोली थी मैं भी साथ जँगल में चलूँगी तो मैंने रोक दिया. सोचा कि भाभी को ज़रूरत पड़ सकती है. फ़िर सोचा बेचारी बच्ची है, बच्ची को कुछ नहीं करेंगे...". भाभी के नौ महीने होने को थे, भागमभाग में खतरा था. पिएत्रो के आँसू नहीं रुकते थे.
पिछले साल पिएत्रो गुज़र गये. आज उन्हीं को याद करने हम लोग मारज़ाबोत्तो गये थे. यहाँ पर 1944 में द्वितीय महायुद्ध में सितंबर के अंत में और अक्टूबर के प्रारम्भ में जर्मन सिपाहियों ने 771 लोगों को मारा था, अधिकतर बच्चे, बूढ़े और औरतें. जर्मन लड़ाई हारने लगे थे. वहाँ के बहुत से नवयुवक मुसोलीनी और फासिसम के विरुद्ध युद्ध में कूद पड़े थे, पहाड़ों में छुप छुप कर ज़र्मन सिपाहियों पर हमला करते थे और जर्मन सिपाही बदला लेना चाहते थे, किसी पर अपना गुस्सा निकालना चाहते थे.
मारज़ाबोत्तो छोटा सा गाँव सा है, हालाँकि आसपास के पहाड़ों पर बिखरे गाँवों के मुकाबले में उसे शहर कहा जाता है. शहर के प्रारम्भ में ही उन 771 मुर्दों की कब्रों के लिए सकरारियो यानि पूजा स्थल बना है. सँगमरमर की दीवारें हैं कब्रिस्तान की जिस पर हर मरने वाले का नाम और उम्र लिखी है. अदा 3 साल, रेबेक्का 26 साल, ज्योवानी चौदह साल, मारिया 74 साल ... उनमें से 315 औरतें और 189 बच्चे 12 साल से छोटे. यहीं पर आ कर पिएत्रो छोटी बहन के पत्थर पर हाथ रख कर बैठा रहता था. उसका बड़ा भाई जिसकी पत्नी अनजन्मे बच्चे के साथ मरी थी, कई साल पहले गुज़र चुका था. "मेरी ही गलती से वह मरी, मैं उसे अपने साथ आने देता तो बच जाती", बार बार यही कहता.
काज़ालिया गाँव के कब्रिस्तान की दीवार पर जहाँ 195 लोग मारे गये थे जिनमें से 50 बच्चे थे, बाहर लिखा है, "हिटलर ने कहा कि हमें शाँत हो कर क्रूरता दिखानी होगी, बिना हिचकिचाये, वैज्ञानिक तरीके से, बढ़िया तकनीक से यह काम करना है हमें."
जाने क्यों मेरे मन वो लोग आते हैं जिनकी मौत का कोई ज़िम्मेदार नहीं, जिनको मारने वाले खुले आम घूम रहे हैं. 1984 में दिल्ली में मरने वाले, 2002 में गुजरात में मरने वाले, 2007 में नंदीग्राम में मरने वाले. कुछ भी बात हो अपने हिंदुस्तान में सौ-दौ सौ लोग मरना मारना तो साधारण बात है. क्या नाम थे, किसने मारा, क्यों मारा, कोई बात नहीं करता. न ज़िंदा लोगों की कोई कीमत और न मरने वालों की. फ़ालतू की बातों में समय बरबाद नहीं करते. उन माओं, पिताओं, बहनो, भाभियों को कोई याद करता. उनके नाम कहीं नहीं लिखे, कानून के लिए तो शायद वह मरे ही नहीं. सोचता हूँ कि अपने जीवन की हमने इतनी सस्ती कीमत कैसे लगायी?
भारत से आने वाले समाचारों से इन दिनों बहुत निराशा हो रही है. मुंबई में गुँडागर्दी करने वाले बिहारियों पर हमला करते हैं, देश चूँ नहीं करता. मुट्ठी भर कट्टरपंथी मुसलमान दँगा करते हैं, खुले आम टेलिविज़न पर तस्लीमा को मारने की धमकी देते हैं, सरकार तस्लीमा पर शाँती भंग करने का आरोप लगाती है और खूलेआम कत्ल की धमकी देने वाले खुले घूमते हैं. हिंदू गुँडे धमकी देते हैं विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम से रामनुजम की रामायण के बारे में लिखी किताब हटायी जाये. इस गुँडाराज में कोई न्याय नहीं, कोई आदर्श नहीं, सबके मुँह पर ताले लगे हैं.
जीवतों की कोई पूछ नहीं, मुर्दों की चीखों को कौन सुने?