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दिसंबर, 2006 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

बम और जहाज़

जितनी बार टेलीविजन पर या अखबारों में लंदन में हुए रुसी जासूस के खून की बात पढ़ता हूँ, थोड़ी सी खीझ आती है. हमारे कैंची या क्रीम और शेम्पू ले जाने पर पिछले सालों से हवाई जहाज़ों पर सुरक्षा जाँच के बहाने इतने चक्कर होते हैं और दूसरी ओर ब्रिटिश एयरवेस के कुछ जहाज़ों में रेडियोएक्टिविटी (radioactivity) पायी गयी है, जिसका असर करीब 36 हजार यात्रियों पर पड़ सकता है, यह पढ़ कर सोचता हूँ कि क्या सुरक्षा जाँच करने करवाने का क्या फ़ायदा! यह बात भी नहीं कि हर हवाई अड्डे के सुरक्षा जाँच नियम एक जैसे हों, और उसी हवाई अड्डे से अमरीका या इँग्लैंड जाने वाले जहाज़ के यात्रियों की जाँच एक तरीके से होती है और अन्य जगह जाने वाले यात्रयों की जाँच दूसरे तरीके से. तो क्या ले जा सकते हें या क्या नहीं, यह मालूम नहीं चलता. अँग्रेजी पत्रिका इकोनोमिस्ट (Economist) में एक अन्य समाचार पढ़ा था. हवाई जहाज में मोबाईल टेलीफ़ोन के प्रयोग न कर पाने का. हमेशा कहते हैं कि अगर आप जहाज में टेलीफोन का प्रयोग करें तो जहाज के इलेक्ट्रोनिक उपकरणों में खराबी आ सकती है. यह सुन कर मन में डर सा आ जाता है और अगर कोई जहाज़ में मोबोईल का उपय

दिसम्बरी खिचड़ी

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दिसम्बर आता है और क्रिसमस की तैयारी शुरु हो जाती है. घर में "क्रिसमस ट्री" बनाने की बातें होने लगती हैं, कहाँ रखा जायेगा, कितना बड़ा हो, सचमुच का पेड़ लेना चाहिये या नकली, कैसे सजाया जाये, इत्यादि. इस साल घर में पहली बार पुत्रवधु भी है तो सब कुछ अधिक धूमधाम से हो रहा है. सालों की नींद से पुत्र जागा है और इस बार अपनी नववधु को सिखाने और दिखाने के चक्कर में बढ़ बढ़ कर सब काम कर रहा है. वरना पत्नी मेरे पीछे पड़ी रहती, "लाल और नीले रंग की सजावट तो पिछले साल की थी, इस साल कौन से रंग की करें?" इस बार पुत्र और पुत्रवधु का निर्णय है कि क्रिसमस के लिए जो छोटा सा चीड़ का पेड़ खरीदा गया है उसे श्वेत, चाँदी और नीले रंग से सजाया जाये. पेड़ सजाना तो फ़िर भी आसान है, असली सिरदर्द तो भेंट खरीदने की बहस से होती है. "किसको क्या दिया जाये? अरे फ़िर से जुराबें, याद नहीं कि पिछले साल भी तो जुराबें ही दी थीं? नहीं दस्ताने नहीं, दो साल पहले दस्ताने ही दिये थे! टोपी नहीं, वह बहुत व्यक्तिगत चीज़ है और अपनी पसंद की ही लेनी चाहिए. तुम्हारा बस चले तो सबको किताबें ही दे दो, नहीं नहीं किताबें नहीं!

दिल के घाव

हमारा घर, हमारी कार, हमारा टेलीविजन, हमारी पत्नी, हमारे बच्चे, जैसे कितनी चीज़ें होती हैं जिन्हें हम अपने जीवन का अभिन्न अंग मानते हैं, कभी जीवन उनके बिना भी हो सकता है, यह सोचा नहीं जाता. "सब माया है, मोह छोड़ दो" जैसी बातें सुन कर भी मन में आता है जब तक जीवन है तब तक मोह माया भी है, जब जीवन ही नहीं रहेगा तो अपने मोह माया छूट जायेंगे. लेकिन अगर जीवन तो रहे पर उसमें से वह सब कुछ खो जाये जिसके सहारे पर हमारे जीवन की नींव टिकी थी, तो? शरणार्थी हो जाना ऐसी ही घटना है. नाना नानी जब तक जिंदा रहे, उनके लिए पाकिस्तान में भारत विभाजन के समय छूटे घर को खोने का घाव कभी भर नहीं पाया. संयुक्त राष्ट्र संघ के शरणार्थी उच्च कमिशन (यूएनएचसीआर - UNHCR) के साथ मुझे कीनिया, युगाँडा, नेपाल आदि देशों में शरणार्थी केम्प देखने का मौका मिला था. एक बार कश्मीर से आये शरणार्थियों से भी मिला था. जब तक टेलीविजन में दूर से देखो तो लगता है कि फ़िल्म देखी हो, वह सचमुच के लोग नहीं हों, पर करीब से देखने पर यह नहीं सोच सकते. हमारे जैसे ही लोग हैं जो सब कुछ खो चुके हैं, अगर उनके साथ हुआ है तो कल अपने साथ भी हो स

आँसुओं में लिखा नाम

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मिस्र के पिरामिडों को देख कर करीब दो हज़ार साल पहले के एक रोमन बादशाह, जिसका नाम था काइयो चेस्तियो (Caio Cestio), उसको रोम में पिरामिड बनवाने की सूझी. सदिया बीतीं और रोम से दक्षिण की ओर जाने वाली सड़क विया ओस्तिएन्से (Via Ostiense) पर बना यह पिरामिड समय के धुँधले में खो गया. जिस रास्ते पर राजसी रथ चलते थे, वहाँ घास उग आयी और ग्वाले वहाँ जानवर चराने लगे. फ़िर करीब दो सौ साल पहले, इसी पिरामिड के साथ साथ एक नया प्रोटेस्टैंट ईसाईयों का कब्रिस्तान बनाया गया जहाँ गैरकेथोलिक ईसाईयों को दफ़न किया जाता था. इटली में रोम में वेटीकेन में केथोलिक धर्म का विश्व केन्द्र बन गया था. उस समय गैरकेथोलिक ईसाईयों के प्रति वेटीकेन का रुख बहुत कड़ा था, उन्हें धर्मभ्रष्ठ मानते थे. इसलिए उस कब्रिस्तान में शरीर केवल रात के अँधेरे में दफ़न किये जा सकते थे. कब्रिस्तान की कोई दीवार नहीं थी और लोग जब मन में आता वहाँ आ कर कब्रों पर तोड़फोड़ करते. किसी भी कब्र पर यह लिखना भी मना था कि "मृतक की आत्मा को भगवान शाँती दें", क्योंकि केथोलिक न होने की वजह से वेटीकेन में कहते थे कि उन्हें भगवान से कुछ भी नहीं मिल सक

एक नयी बीमारी

इस बार बात यौन विषय से सम्बंधित है इसलिए सोच समझ कर ही पढ़ियेगा. जब भी किसी नयी बीमारी की बात सुनने को मिलती है तो मन में पहला विचार आता है कि दवा बनाने वाली कम्पनियों ने पैसे कमाने के लिए कुछ और नया सोचा होगा! नई दवाओं की खोज में बहुत से आदर्शवादी वैज्ञानिक सारा जीवन लगा देते हैं पर वह मुश्किल से करोड़पति बनते हैं, पैसे कमाती हैं दवा बनाने वाली अंतर्राष्ट्रीय कम्पनियाँ. अगर आप को शेयर बाज़ार की जानकारी हो तो अवश्य जानते होंगे कि हथियार बेचने वाली कम्पनियों की तरह, दवाईयाँ बेचने वाली कम्पनियों के शेयर खूब फायदा देते हैं. जब यह मालूम पड़े कि नयी बीमारी यौन विषय से सम्बंधित है तो शक और भी बढ़ जाते हैं. जिस बीमारी का इलाज करने के लिए वियाग्रा की गोली बनाई गयी, वह बीमारी हमारे जमाने में चिकित्सा शात्र की पढ़ाई में होती ही नहीं थी. दवा बेचने वालों का पहला काम होता है कि पहले आप को यकीन कराया जाये कि आप को कुछ बीमारी है, उसके बाद उस बीमारी का उपचार भी बाज़ार में मिल जायेगा. वियाग्रा की बिक्री इतनी हुई कि बनाने वाली कम्पनियों ने करोड़ों बटोरे. पिछले वर्ष सुना था कि वे कम्पनियाँ परेशान हैं कि वियाग्