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मई, 2006 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

सोचने का अधिकार

किसी ने कहा था, "मैं तुम्हारी बात से बिल्कुल भी सहमत नहीं पर तुम्हें अपनी बात कहने का पूरा अधिकार हो, इसके लिए जी जान से लड़ूँगा". मैं इस बात में पूरा विश्वास करता हूँ कि हम सब को अपनी बात कहने का अधिकार है, शर्त केवल इतनी है कि आप अपनी बातों से हिंसा को न भड़काईये. भिन्न सोचने और बोलने का अधिकार मानव अधिकारों का अभिन्न अंग है. इसी अधिकार का हिस्सा है कि आप अपनी बात किसी भी भाषा या माध्यम से कहिये, चाहे वह गीत हो या कला. इस अधिकार से कट्टरपंथियों को सहमती नहीं होती. तुमने यह कैसे लिखा या बनाया या सोचा, वे पूछते हैं, क्योंकि उनके हिसाब से उनका धर्म इसकी आज्ञा नहीं देता. मानव अधिकार उनकी नजर में धर्म से नीचे हैं. अपनी बात को तलवार और डँडे के साथ कहते हैं क्योंकि तुम्हें चुप कराने के लिए, तुम्हे साथ ही सजा देना भी जरुरी समझते हैं. गुजरात में आमीर खान के नर्मदा आंदोलन और मेधा पाटेकर का समर्थन करने के बाद भी कुछ ऐसा ही हुआ है. मेधा, आमीर या उस आंदोलन के अन्य लोग क्या कहते हैं उस पर बहस कर सकते हैं, उससे असहमत हो सकते हैं, पर किसी का मुँह बंद करने की और उसे डराने, धमकाने की कोशिश करन

बोलोनिया चिट्ठाकार मिलन

इटली में रहने वाले हिंदी में चिट्ठा लिखने वाले सभी लोग एक हिंदी चिट्ठाकार मिलन समारोह के लिए आज इक्ट्ठे हुए. यानि, हम तो यहाँ रहते ही हैं, कामेरीनो से मिश्र जी बोलोनिया आ गये तो सभी चिट्ठाकारों को साथ होने में क्या देर लगती. आये कुछ तरसा तरसा कर, इंतज़ार करा कर, पर आ कर थोड़ी देर में सब का मन जीत लिया. मेरी पत्नी बोली, कैसा चौड़ा माथा है, अवश्य बहुत बुद्धिमान है! मैंने सोचा कि यूँ ही साहब अपने आप को बहुत बहादुर समझते हैं, साथ में यह भी बता दिया कि हमारी श्रीमति जी क्या कहती हैं, कहीं खुशी से इतना न फ़ूल जायें कि कोई और तकलीफ हो जाये. खैर राम यानि आर.सी ने अपने ग्रामीण बचपन के खेलों के बारे में बहुत सी गुप्त जानकारी दी. फसलों, खेतों का उन्हें बहुत ज्ञान है. पर ऐसा नहीं कि हमने सब बातें केवल खेतों खलिहानों की ही की, कुछ हिंदी चिट्ठा जगत के बारे में भी विवेचना की, एक दूसरे के जानने वाले चिट्ठा लिखने वालों के बारे में अपने अनुभवों तथा विचारों का आदान प्रदान किया. राम ने चिट्ठे में स्लाईड कैसे लगायें, इस पर कुछ जानकारी दी. राम के बोलोनिया में बिताये कुछ घँटे इस स्लाईड शो में देखिये और इन तीन

फुरसत के दिन

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पिछले साल की कुछ छुट्टियाँ बचीं हुई थीं, उन्हें जून के अंत से पहले खत्म करना होता है वरना वह बेकार हो जाती हैं. इसलिए यह सप्ताह छुट्टी का है. कितने महीने हो गये, यहाँ से आओ, वहाँ जाओ, करते करते. इन फुरसत के दिनों का बेचैनी से इंतज़ार हो रहा था, और कल इस फुरसत का पहला दिन था. सुबह कुछ काम था और दोपहर को कुछ भारतीय मित्रों के साथ पिकनिक पर जाने का प्रोग्राम. बोलोनिया से कुछ दूर, इदिचे नदी के पास, दो छोटी सी झीलों के किनारे एक बाग है वहाँ पिकनिक का विचार था. उस जगह पर किसी समय बालू खोदने की खानें होतीं थीं, वही खुदे हुए खड्डे ही पानी से भर कर झीलें बन गये हैं जहाँ मछलियाँ पाली जाती हैं और मछलियाँ पकड़ने के शौकीन सारा दिन झील के किनारे बैठे रहते हैं. उनका नियम है कि आप कोई भी मछली पकड़िये उसे वापस पानी में छोड़ना होगा, मार नहीं सकते, यानि खेल केवल पकड़ने का है, मछली खाने का नहीं. पिकनिक में आग पर बारबेक्यू बनाने का विचार किया था साथियों ने पर उसमें कितना समय लगता है यह नहीं सोचा था किसी ने. खाना पकते पकते शाम के चार बज गये और भूख से सब बेहाल हो रहे थे. खैर दिन अच्छा बीता. ***** शाम को घर आ कर

बचपन के सपने

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कल बेंगलोर में रहने वाले कल्याण वर्मा का फोटोब्लाग देखा, तो उनके जँगली जानवरों एवं प्रकृति की तस्वीरें बहुत अच्छी लगीं. तस्वीरें देख कर उनके बारे में जानने के लिए पढ़ा. जनवरी २००५ में उन्होंने डाट काम की अपनी नौकरी से इस्तीफा दे कर प्रकृति के फोटोग्राफर बनने का निश्चय किया था. दिसंबर में उन्हें सबसे अच्छे प्रकृति के फोटोग्राफर का सम्मान मिला और उनकी तस्वीरों की तीन चार पुस्तकें छपने वाली हैं. पढ़ कर लगा कि ऐसा ही होना चाहिये कि वह काम करना चाहिये जिसमें मन हो. मुझे लगता है कि भारत में हमारे परिवार पक्की नौकरी, पैसे या इज़्ज़त जैसी बातों की ओर अधिक ध्यान देते हैं और "क्या करना अच्छा लगता है ?" की बात कम होती है. घर में कह कर देखिये कि आप चित्रकार बनना चाहते हैं या साहित्य के क्षेत्र में कुछ करना चाहते हैं तो अक्सर तूफ़ान खड़ा हो जाता है. शायद इसलिए कि हममें से बहुत से लोग सुबह ९ बजे से शाम ५ तक ऐसी नौकरी में समय बिताते हैं जो हमने अपने अपनी मर्जी से नहीं चुनी, जहाँ कुँठा से भरा सारा दिन गुज़ारना मुश्किल होता है और सोचते हें कि हमारे बच्चों को कुछ ऐसा करवाऐँगे जिसमें पैसा और इज़्ज

भूख

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आजकल हर रोज़ अरुण की एक डाक्यूमेंट्री फिल्म देख रहा हूँ. अगले साल बोलोनिया के फिल्म स्कूल के साथ उसकी फिल्म का छोटा सा फेस्टिवल करने की बात हो रही है. उसके लिए चार या पाँच फिल्में चुननी हैं फिर उनके इतालवी भाषा में सबटाईटल्स बनाने पड़ेंगे. आज देखा उसकी फिल्म १९९२ में बनी "राहत की आस में" (Waiting for a repreive) को. फिल्म मध्यप्रदेश के सतरा और रीवा जिलों में होने वाली बिमारी लैथरिसम के बारे में है. इस बीमारी का कारण है केसरी दाल जो इन जिलों में बोयी जाती है क्योंकि रूखी बँजर जमीन पर भी, थोड़े से पानी के साथ इसकी फसल उग जाती है. जहाँ अक्सर आकाल या सूखा पड़ता हो, वहाँ ऐसी फसल के बल पर ही गरीब लोग जी पाते हैं. अगर खाने में केसरी दाल की मात्रा बढ़ जाये तो खानेवालों की टाँगें अकड़ जाती हैं, धीरे धीरे बीमारी से प्रभावित लोग सीधे खड़े नहीं हो पाते और बिना डँडे के सहारे के चल नहीं सकते. और बढ़ जाये तो व्यक्ति सिर्फ घिसट घिसट कर चल सकता है. बीमारी से बचने के तरीके हैं कि इस दाल को कम खाया जाये और अगर खानी ही पड़े तो उसे गर्म पानी में डुबो कर रखें ताकि उसका जहर निकल जाये. पर भूख से मारे लोगों

काने काका

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दवा लेने के लिए हाथ बढ़ाया था, वहीं रुक गया. प्रतिदिन शाम को खाने के साथ रक्तचाप की दवा की आधी गोली लेनी होती है, कुछ साल हो गये, इस दवा को लेते पर दवा के नाम के अर्थ के बारे में पहले नहीं सोचा था. दवा का नाम है "अंतकाल". सोचिये कि आप केमिस्ट की दुकान पर जाते हैं और माँगते हैं, "भाई एक पत्ता अंतकाल का दे दो". यह कैसा बेतुका नाम हुआ, सोचा. यह तो अच्छा है कि मैं वहमी या अंधविश्वासी नहीं, वरना तो इसे ऊपरवाले की चेतावनी देने का तरीका सोचता. इस दवा का काम है रक्त में केल्शियम के अणुओं का विरोध करे और उस तरह से "एन्टी केल्शियम" का सोच कर नाम अँग्रेजी में "एन्टकेल" ठीक ही बनता है, फर्क आता है इतालवी भाषा के उच्चारण से, जो उसे "अंतकाल " बना देता है. बस यहाँ से सोचना शुरु हुआ तो सोचने लगा और कौन से शब्द हैं जिनका इतालवी में कुछ अर्थ बनता है और हिंदी में कुछ और. इस शब्दयात्रा का प्रारम्भ करते हैं, मेरे बचपन के प्रिय मित्र राहुल से, जिसका घर का नाम था काका. और लोगों के लिए चाहे वो राहुल हो या कुछ और, मेरे लिए तो वह काका था. इटली में आ कर जब भी मै

प्रेरणा गीत

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मेरे एक मित्र ने मुझे एक इतालवी डाक्टर लाउरा बेरतेले की एक किताब पढ़ने को दी. लाउरा उत्तरी इटली में मिलान के पास काम करती हैं और जहाँ उनका फिसियोथेरेपी का केंद्र है. इस किताब में लाउरा बात करतीं हैं संगीत के प्रयोग की, शरीर की कठिनाईयों का उपचार करने के लिए. उनके अनुसार बहुत से लोगों को जो वाचन सम्बंधी कठिनाईयाँ तथा विकलाँगता होती हैं उनका उपचार सँगीत से हो सकता है. उपचार सँगीत में उन्हें ऊँचे स्वर अधिक उपयोगी लगते हैं और वह मोज़ार्त का सिम्फोनिक सँगीत और गिरजाघर में गाने जाने वाले ग्रगोरियन सँगीत का अपने केंद्र में बहुत प्रयोग करती हैं. इसी किताब में वह कुछ भारतीय सँगीतकारों की भी बात करतीं हैं. लाउरा का कहना है कि हमारे कानों के भीतर स्वर और शरीर तालमेल का अंग (कोकलिया) साथ साथ बने हैं. शरीर के बहुत से हिस्सों में ठीक से काम न कर पाने की वजह इन्हीं दोनो अंगों के तालमेल के बिगड़ना है. इसलिए उनके इलाज में कानों की ध्वनि का विभिन्न स्वर स्तरों का मापकरण और उसके हिसाब से सँगीत उपचार का विषेश रुप है. बाद में लाउरा से बात करने का मौका भी मिला, तो इस बातों पर अन्य कुछ जानकारी भी उसने दी. ****

बेला महका रे महका

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शाम को काम के बाद घर आ रहा था. आजकल पत्नी घर पर नहीं है, इसलिए घर पर खाने का मुझे ही सोचना पड़ता है. बेटा है घर पर, लेकिन उससे कुछ काम की उम्मीद करना बेकार है. कुछ काम कहो तो हज़ार नखरे हैं साहब के, पर यह भी है कि रसोई में कुछ करने के लिए कहो तो इतने बर्तन गंदे करता है कि बाद में मुझे ही साफ़ करने में परेशानी होती है. पत्नी जी उत्तरी इटली में वेनिस से करीब सौ कि.मी. आगे समुद्र तट पर जो हमारी साली साहिबा का घर है वहाँ सफाई करने गयी है. साली साहिबा का घर हम सब परिवार वालों का घर है और गर्मियों में बारी बारी से सब लोग वहाँ छुट्टियाँ मनाने जाते हैं. चूँकि सारा साल वह घर बंद रहता है बस गर्मियों मे तीन महीनों के लिए खुलता है इसलिए गर्मियाँ शुरु होने से पहले वहाँ जा कर सब सफाई करके उसे तैयार किया जाता है. सफ़ाई करने के बहाने, दोनो बहनें, मेरी पत्नी और साली जी, मिल कर खूब गप्प लगातीं हैं. खैर बात हो रही थी घर में अकेले रहने की और घर के काम की. सुबह से बारिश आ रही थी. जब काम से निकला तो कुछ थम गयी लगती थी. सोचा कि घर जाने से पहले सुपर मार्किट जा कर कुछ सामान खरीदा जाये क्योकि फ्रिज में खाने के स

प्राचीन सभ्यता के बदलते हुए रँग

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मिस्र की यात्रा डायरी के कुछ अँश प्रस्तुत है. अगर पूरी डायरी पढ़ना चाहते हैं तो मेरे वेब पृष्ठ कल्पना पर पढ़ सकते हैं . *** * अधिकतर औरतें पूरे हाथों और नीचे तक पैर ढ़कने वाली पोशाकें पहनती हैं और सिर पर स्कार्फ बँधा रहता है. उनके साथ के पुरुष तो सब आधी बाँहों वाली कमीजें पहने थे. हालाँकि चेहरा ढ़कने वाला बुरका पहनने वाली औरतें अधिक नहीं दिखीं पर इस तरह से शरीर को छुपाने वाली औरतों को देख कर मन में कुछ घबराहट सी होती है. शायद कुवैत और दुबाई जैसी जगह रहने वालों को इसकी आदत सी हो जाती होगी. बचपन में कई साल तक पुरानी दिल्ली की ईदगाह के सामने रहते थे जहाँ बुरके वाली औरतों को देखना आम था और उनमें से कई को जानता था. तब परदे के पीछे शरीर छुपाना अजीब नहीं लगता था और मेरे महबूब, चौदह्वीं का चाँद और पाकीजा जैसी फिल्में रोमांटक लगती थीं पर इतने साल इटली में रहने से शरीर को खुला देखना स्वाभाविक लगने लगा है और बुरका पहने या शरीर ढ़की औरतें अज़ीब सी लगती हैं. **** कुछ समय पहले सुना था कि उसकी शादी होने वाली है, पूछा तो बोली कि उसने वह रिश्ता तोड़ दिया. बोली कि इस्लाम औरतों को यह हक देता है कि अगर वह न करद