शब्दों की शक्ति
जेनेवा में अखबार में एक लेख पढ़ा जिसमे हँगरी के सुप्रसिद्ध लेखक पेटर ऐस्तरहाज़ी (Péter Esterhàzy) ने अपने लेखन के बारे में एक साक्षात्कार में कहा, "अचानक मुझे समझ में आया कि मेरे मन में सच और कल्पना के बीच की सीमा रेखा स्पष्ट नहीं थी, शब्दों में कहा गया या सचमुच कुछ बात हुई मेरे लिए एक बराबर ही था. यानि मेरे लिए शब्दों की महत्वता उतनी ही थी जितनी जीवन में होने वाली बातों की... अपनी कल्पना से लिखी वह पहली कहानी मुझे अभी भी याद है, वह अनूठी शक्ति का अनुभव कि मैं सब कुछ कर सकता हूँ, चाहूँ तो किसी को मोटा या पतला, गंदा या पसीने से लथपथ, उसका वक्ष छोटा हो या बड़ा, सब कुछ मेरी इच्छा पर निर्भर है. पहली बार सृजन का आनंद मिला, भगवान को भी कुछ कुछ ऐसा ही लगता होगा." पेटर की बात कि वह कल्पना में सोची बात और जीवन में होने वाली बातों के बीच की सीमारेखा में अंतर नहीं समझ पाते, मुझ पर भी कुछ कुछ लागू होती है. शाम को बाग में घूमते समय, या रात को सोने से पहले किसी बात को सोचते हुए या सपने में हुई बात, कई बार मुझे लगता है कि वह सचमुच हुई थी. अक्सर पुरानी बातों के बारे में मैं यह नहीं बता पाता कि