शुक्रवार, अप्रैल 04, 2014

यह जीवन किसका?

पाराम्परिक भारतीय सोच के अनुसार अक्सर बच्चों को क्या पढ़ना चाहिये और क्या काम करना चाहिये से ले कर किससे शादी करनी चाहिये, सब बातों के लिए माता पिता, भैया भाभी, दादा जी आदि की आज्ञा का पालन करना चाहिये. कुछ उससे मिलती जुलती सोच हमारे नेताओं और समाजसेवकों की है जो हर बात में नियम बनाते हैं कि कौन सी फ़िल्म को या किताब को बैन किया जाये, फैसबुक पर क्या लिखा जाये, साड़ी पहनी जाये, जीन्स पहनी जाये या स्कर्ट, बाल कितने लम्बे रखे जाये, आदि.

अपने बच्चों को अपने निर्णय अपने आप करने देने के विषय पर मुझे लेबानीज़ लेखक ख़लील गिब्रान की एक कविता बहुत अच्छी लगती है (अनुवाद मेरा ही है):
तुम्हारे बच्चे तुम्हारे बच्चे नहीं हैं
वह तो जीवन की अपनी आकाँक्षा के बेटे बेटियाँ हैं
वह तुम्हारे द्वारा आते हैं लेकिन तुमसे नहीं
वह तुम्हारे पास रहते हैं लेकिन तुम्हारे नहीं.
तुम उन्हें अपना प्यार दे सकते हो लेकिन अपनी सोच नहीं
क्योंकि उनकी अपनी सोच होती है
तुम उनके शरीरों को घर दे सकते हो, आत्माओं को नहीं
क्योंकि उनकी आत्माएँ आने वाले कल के घरों में रहती हैं
जहाँ तुम नहीं जा सकते, सपनों में भी नहीं.
तुम उनके जैसा बनने की कोशिश कर सकते हो,
पर उन्हें अपने जैसा नहीं बना सकते,
क्योंकि जिन्दगी पीछे नहीं जाती, न ही बीते कल से मिलती है.
तुम वह कमान हो जिससे तुम्हारे बच्चे
जीवित तीरों की तरह छूट कर निकलते हैं
तीर चलाने वाला निशाना साधता है एक असीमित राह पर
और अपनी शक्ति से तुम्हें जहाँ चाहे उधर मोड़ देता है
ताकि उसका तीर तेज़ी से दूर जाये.
स्वयं को उस तीरन्दाज़ की मर्ज़ी पर खुशी से मुड़ने दो,
क्योंकि वह उड़ने वाले तीर से प्यार करता है
और स्थिर कमान को भी चाहता है.
***
इसी तरह की सोच हमारे जीवन के हर पहलू में होती है. डाक्टर बनो तो कुछ आदत सी हो जाती है कि लोगों को सलाहें दो कि उन्हें क्या करना चाहिये, क्या खाना चाहिये, क्या नहीं करना चाहिये. लोगों को भी यह अपेक्षा सी होती है कि डाक्टर साहब या साहिबा उन्हें कुछ नसीहत देंगे. मेडिकल कोलिज में मोटी मोटी किताबें पढ़ कर इम्तहान पास करने से मन में अपने आप ही यह सोच आ जाती है कि हम सब कुछ जानते हैं और लोगों को हमारी बात सुननी व माननी चाहिये. डाक्टरी की पढ़ाई पूरी करने के बाद, मैं भी बहुत सालों तक यही सोचता था. फ़िर दो अनुभवों ने मुझे अपनी इस सोच पर विचार करने को बध्य किया. आप को उन्हीं अनुभवों के बारे में बताना चाहता हूँ.

Doctor lives grafic by Sunil Deepak, 2014

***
पहला अनुभव हुआ सन् 1989 में मुझे मोरिशयस द्वीप में, जब वहाँ एक विकलाँग जन पुनरस्थापन यानि रिहेबिलेटेशन कार्यक्रम (Disability rehabilitation programme) का निरीक्षण करने गया. चँकि मोरिशियस में बहुत से लोग भारतीय मूल के हैं, तुरंत वहाँ मुझे अपनापन सा लगा. पोर्ट लुईस के अस्पताल में फिजिकल थैरपी विभाग के अध्यक्ष डा. झँडू ने मुझे घुमाने के सारे इन्तज़ाम किये थे. एक फिज़ियोथैरेपिस्ट मेरे साथ थे और हम लोग एक गाँव में गये थे. वहीं एक घर में हम लोग एक स्त्री से मिलने गये जिनकी उम्र करीब चालिस पैतालिस के आसपास थी. बहुत छोटी उम्र से ही उस स्त्री के रीढ़ की हड्डी के जोड़ों में बीमारी थी जिससे उसके जोड़ अकड़े अकड़े से थे. वह सीधा नहीं खड़ा हो पाती थी, घुटनों के बल पर चलती थी. वैसे तो मोरिशयस में करीब करीब हर कोई अंग्रेज़ी, फ्रैंच व क्रियोल भाषाएँ बोलता है लेकिन वह स्त्री केवल भोजपुरी भाषा बोलती थी.

मेरे साथ जो फिज़ियोथैरेपिस्ट थे उन्होंने बताया कि पुनरस्थापन कार्यक्रम ने उस स्त्री के लिए एक लकड़ी का स्टैंड बनाया था, जिसे पकड़ कर वह उसके ऊपर तक पहुँच कर वहाँ लटक सी जाती थी और फ़िर स्टैंड की सहायता से चल भी सकती थी. जब उस स्त्री ने मुझे उस स्टैंड पर चढ़ कर दिखाया कि यह कैसे होता था, तो मुझे लगा कि उन लोगों ने यह ठीक नहीं किया था. उस घर का फर्श कच्चा था, ऊबड़ खाबड़ सा. उस फर्श पर लकड़ी के स्टैंड को झटके दे दे कर चलना कठिन तो था ही, खतरनाक भी था. मेरे विचार में इस तरह का स्टैंड बनाने से बेहतर होता कि तीन या चार पहियों वाला कुछ नीचा तख्त जैसे स्टैंड होता जिस पर वह अधिक आसानी से बैठ पाती और जिसमें गिरने का खतरा भी नहीं होता.

मेरी बात को जब उस स्त्री को बताया गया तो वह गुस्सा हो गयी. मुझसे बोली कि "सारा जीवन घुटनों पर रैंगा है मैंने. लोगों को सिर उठा कर देखना पड़ता है, मानो कोई कुत्ता हूँ. इस स्टैंड की मदद से मैं भी इन्सानों की तरह सीधा खड़ा हो सकती हूँ, लोगों की आँखों में देख सकती हूँ. जीवन में पहली बार मुझे लगता है कि मैं भी इन्सान हूँ. मुझे यही स्टैंड ही चाहिये, मुझे छोटी पटरी नहीं चाहिये!"

मैं भौचक्का सा रह गया. उसकी बात मेरे दिल को लगी. सोचा कि लाभ नुक्सान देखने के भी बहुत तरीके हो सकते हैं. मेरे तकनीकी दृष्टि ने जो समझा था वह उसकी भावनात्मक दृष्टि से और उसके जीवन के अनुभव से, बिल्कुल भिन्न था. पर वह जीवन उसका था और उसे का यह अधिकार था कि वही यह निर्णय ले कि उसके लिए कौन सी दृष्टि बेहतर थी.

***
दूसरा अनुभव ब्राज़ील से एक शोध कार्यक्रम का है, जिसके लिए मैं एक विकलाँग युवती से साक्षात्कार कर रहा था. वह तीस बत्तीस साल की थी. दुबली पतली सी थी, और उसके चेहरे पर रेखाओं का महीन जाल सा बिछा था जो अक्सर उनके चेहरों पर दिखता है जिन्होंने बहुत यातना सही हो. हम लोग पुर्तगाली भाषा में बात कर रहे थे. उस युवती नें मुझे अपनी कहानी सुनायी.

वह पैदा हुई तो उसकी रीढ़ की हड्डी टेढ़ी थी, जिसे चिकित्सक "स्कोलिओसिस" कहते हैं. उसका परिवार एक छोटे से शहर के पास गाँव में रहता था जहाँ वे लोग खेती करते थे. छोटी सी थी जब उसे घर से बहुत दूर एक बड़े शहर में रीढ़ की हड्डी के ओपरेशन के लिए लाया गया. करीब पंद्रह वर्ष उसने अस्पतालों के चक्कर काटे, और उसके चार या पाँच ओपरेशन भी हुए.

वह बोली, "मेरा जीवन डाक्टरों ने छीन लिया. जब मुझे पहली बार अस्पताल ले कर गये तो ओर्थोपेडिक डाक्टर ने कहा कि ओपरेशन से मेरी विकलाँगता ठीक हो जायेगी. पर मेरे परिवार के पास इतने पैसे नहीं थे. फ़िर घर से दूर मेरे माता या पिता को मेरे साथ रहना पड़ता तो घर में काम कैसे होता? पर डाक्टर ने बहुत ज़ोर दिया, कि बच्ची ठीक हो सकती है और उसका ओपरेशन न करवाना उसका जीवन बरबाद करना है. अंत में मेरे पिता ने अपनी ज़मीन बेची दी, सारा परिवार यहीं पर शहर में रहने आ गया. पर उस डाक्टर ने सही नहीं कहा था. यह सच है कि ओपरेशनों की वजह से, अब मेरी रीढ़ की हड्डी कम टेढ़ी है. इससे मेरे दिल पर व फेफड़ों पर दबाव कम है, और मैं साँस बेहतर ले सकती हूँ. शायद मेरी उम्र भी कुछ बढ़ी है, नहीं तो शायद अब तक मर चुकी होती. पर इस सब के लिए मैंने व मेरे परिवार ने कितनी बड़ी कीमत चुकायी, उस डाक्टर ने इस कीमत के बारे में हमसे कुछ नहीं कहा था! जिस उम्र में मैं स्कूल जाती, पढ़ती, मित्र बनाती, खेलती, वह सारी उम्र मैंने अस्पतालों में काटी है. पंद्रह वर्ष मैंने अस्पताल के बिस्तर पर दर्द सहते हुए काटे हैं. हमने अपना गाँव, अपनी ज़मीन खो दी. मेरे भाई बहनों, माता पिता, सबने इसकी कीमत चुकायी है. कितने सालों तक माँ मेरे साथ अस्पताल में रही, मेरे भाई बहन बिना माँ के बड़े हुए हैं. डाक्टर ने हमें यह सब क्यों नहीं बताया था, क्यों नहीं हमें मौका दिया कि हम यह निर्णय लेते कि हम यह कीमत चुकाना चाहते हैं या नहीं? क्या फायदा है लम्बा जीवन होने का, अगर वह जीवन दर्द से भरा हो? क्या यह सचमुच जीवन है? क्या केवल साँस लेना और खाना खाना जीवन है? अगर घड़ी को पीछे ले जा सकते तो मैं अपना कोई ओपरेशन न करवाती. मैं स्कूल, मित्र, खेल को चुनती, अस्पतालों और ओपरेशनों को नहीं."

***
इन दोनो अनुभवों का मुझ पर गहरा प्रभाव पड़ा. बहुत सोचा है मैंने उनके बारे में. मैं अब मानता हूँ कि कुछ भी बात हो, जिसके जीवन के बारे में हो, उसे अपने जीवन के बारे में हर निर्णय में अपना फैसला लेने का अधिकार होना चाहिये. अक्सर हम सोचते हैं कि हम किसी की बीमारी या जीवन की समस्या के बारे में अधिक जानते हैं क्योंकि हम उस विषय में "विषेशज्ञ" हैं, लेकिन अधिक जानना हमें यह अधिकार नहीं देता कि हम उनके जीवन के निर्णय अपने हाथ में ले लें.

मेरे विचार में मेडिकल कालेज की पढ़ाई में "चिकित्सा व नैतिकता" के विषय पर भी विचार होना चाहिये. यानि हम सोचें कि जीवन किसका है, और इसके निर्णय किस तरह से लिये जाने चाहिये! अक्सर डाक्टरों की सोच भी "माई बाप" वाली होती है, जिसमें गरीब मरीज़ को कुछ समझाने की जगह कम होती है. सरकारी अस्पतालों में भीड़ भी इतनी होती है कि कुछ कहने समझाने का समय नहीं मिलता.

चिकित्सा की बात हो तो भाषा का प्रश्न भी उठता है. लोगों को अपने जीवन के निर्णय लेने का अधिकार होना चाहिये, पर हम लोग अपना सारा काम अंग्रेज़ी में करते हैं, दवा, चिकित्सा, ओपरेशन, सब बातें अंग्रेज़ी में ही लिखी जाती हैं. जिन्हें अंग्रेज़ी नहीं आती, वह उन कागज़ों से क्या समझते हैं? और अगर समझते नहीं तो कैसे निर्णय लेते हैं अपने जीवन के?

***
चाहे बात हमारे बच्चों के जीवन की हो या अन्य, मेरे विचार में हम सबको अपने निर्णय स्वयं लेने का अधिकार है. मैं यह नहीं कहता कि यह माता पिता या घर के बुज़ुर्गों के लिए यह हमेशा आसान है, विषेशकर जब हमें लगे कि हमारे जीवन के अनुभवों से बच्चों को फायदा हो सकता है. पर बच्चों को अपने जीवन की गलतियाँ करने का भी अधिकार भी होना चाहिये, हमने भी अपने जीवन में कितनी गलतियों से सीखा है!

दूसरी बात है डाक्टर या शिक्षक जैसे ज़िम्मेदारी का काम जिसमें लोगों को अपने जीवन के निर्णय लेने के लिए तैयार करना व सहारा देना आवश्यक है. लोगों को गरीब या अनपढ़ कह कर, उनसे यह अधिकार छीनना भी गलत है. यह भी आसान नहीं है लेकिन मेरे अनुभवों ने सिखाया है कि यह भी उतना ही आवश्यक है.

आप बताईये कि आप इस विषय में क्या सोचते हैं? आप के व्यक्तिगत अनुभव क्या हैं?

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31 टिप्‍पणियां:

RAKESH KUMAR SRIVASTAVA 'RAHI' ने कहा…

बहुत सही लिखा है. बहुत सुंदर अनुभव हैं आपके और आपका आलेख भी.

Rohit Singh ने कहा…

जिदंगी देखने का दृषि्टकोण समय के साथ बदल जाता है। पुर्तगाली लड़की का अगर इलाज नहीॆ होता तो शायद वो ये इल्जाम लगा सकती थी कि परिवार ने अपनी खुशी देखी उसकी नहीं। समय के साथ किसी चीज पर राय बदलती है।

राजीव कुमार झा ने कहा…

बहुत सुंदर अनुभव.जिंदगी को जीने का नजरिया अपना अपना होता है.

सुशील कुमार जोशी ने कहा…

भारत के बदलते सिनारियो में बहुत कुछ बदला है अपने अपने अनुभव होते हैं पर ज्यादातर डाक्टर शिक्षक या और अपना रोल उस तरह से नहीं निभा पा रहे हैं जैसा आप की सोच से झलक रहा है मैं सही नहीं भी हो सकता हूँ पर मुझे लालच हर जगह हावी दिख रहा है ।

Sunil Deepak ने कहा…

धन्यवाद राकेश :)

Sunil Deepak ने कहा…

यह बात तुम्हारी ठीक है रोहितेश की समय के साथ देखने की दृष्टि बदल सकती है. लेकिन, अगर सब बातें समझा कर उस ब्राज़ीली युवती के परिवार ने सोच समझ कर निर्णय लिया होता तो वह कह सकते थे कि उन्होंने गलत निर्णय लिया. जबकि उस युवती का कहना था कि उनको गलत जानकारी दी गयी कि विकलाँगता बिल्कुल ठीक हो जायेगी, इत्यादि.

Sunil Deepak ने कहा…

धन्यवाद राजीव! :)
सराहना के लिये और चर्चा मंच में जगह देने के लिये भी.

Sunil Deepak ने कहा…

सुशील शायद पहले भी हम लालची ही थे लेकिन शायद तब शायद लालच को छुपाना थोड़ा अच्छी तरह से होता था! मुझे भी कई बार भारत जा कर यही लगता है कि लालच कितना बढ़ गया. पर यह बात नहीं कि दिल से काम करने वाले कोई नहीं, हैं पर अधिक नहीं! :)

premlata pandey ने कहा…

भावनात्मक रूप से तो बिलकुल सही है पर पहले उदाहरण में यदि वह स्त्री गिर कर और परेशान हो तो भी कहती कि डॉ को तो सही सलाह देनी चाहिए ,
दूसरी निराशा से भर गयी । हर कठोर निर्णय में खतरा तो बना रहता है। आवश्यक नहीं वह किसी की सलाह हो हम कभी-कभी स्वयं भी ऐसे निर्णय लेलेते हैं ।

Sunil Deepak ने कहा…

बिल्कुल सही कहा आप ने प्रेमलता जी. डाक्टर का काम का हर पहलू को ठीक से समझाना, किससे क्या लाभ होगा और क्या नुक्सान सब कुछ बताना. बाद में हर व्यक्ति अपनी समझ से निर्णय ले कि वह क्या चाहता है. चिकित्सक के रूप में हमें स्वीकार करना चाहिये कि कभी कभी व्यक्ति अपनी मर्ज़ी से ऐसे निर्णय भी लेते हैं जिनसे हम सहमत न हों. जैसे कि कई बार कैसर के मरीज़ कीमोथैरपी न करने या रेडियोथैरपी न करने का निर्णय लेते हैं. पर कई बार, अगर हमें ओपरेशन करने से आर्थिक फ़ायदा हो तो शायद हमसे निश्पक्ष सलाह नहीं दे जाती. भारत में कई जगहों पर बच्चा पैदा करने के लिये इतने सिज़ेरियन ओपरेशन करते हैं, या बिना समझाये औरतों की बच्चेदानी को निकाल देते हैं, तो डाक्टर की नीयत पर संशा होना स्वाभाविक है.

रवि रतलामी ने कहा…

आपने सही कहा है - जाने-अनजाने हम अपने विचारों को दूसरों पर थोपने की कोशिशें करते ही रहते हैं.

आपकी एक और बात -
"...मेरे विचार में मेडिकल कालेज की पढ़ाई में "चिकित्सा व नैतिकता" के विषय पर भी विचार होना चाहिये. यानि हम सोचें कि जीवन किसका है, और इसके निर्णय किस तरह से लिये जाने चाहिये! अक्सर डाक्टरों की सोच भी "माई बाप" वाली होती है, जिसमें गरीब मरीज़ को कुछ समझाने की जगह कम होती है. सरकारी अस्पतालों में भीड़ भी इतनी होती है कि कुछ कहने समझाने का समय नहीं मिलता...."
के बारे में तो यह कहूंगा कि भारत में चिकित्सा जगत में नैतिकता की बात करना बेमानी है. इसका एक उदाहरण मप्र (अन्य प्रदेशों में भी होंगे) में चिकित्सा शिक्षा प्रवेश घोटाला है जहाँ पिछले कुछ वर्षों के अधिकांशतः चिकित्सा शिक्षा में प्रवेश लाखों रुपये ले-देकर हुए हैं जिसका भंडाफ़ोड़ होने पर दर्जनों पिता-पुत्र/पुत्री दोनों ही अभियुक्त बनाए गए हैं.

Sunil Deepak ने कहा…

धन्यवाद रवि.

चिकित्सक बनने को अगर अमीर बनने के रास्ते कि तरह देखा जायेगा तो लोग उसमें पैसा लगायेंगे, और दूसरी ओर होनहार नवजवान जिनमें समाजसेवा का भाव है, मेडिकल कालिज में दाखिला नहीं पा सकेंगे. पर शायद यह बदलाव, यह पैसे को सर्वोच्च सोचना, पूरे समाज के बदलाव की ओर इशारा करता है.

Yashwant R. B. Mathur ने कहा…

अगर चिकित्सा को समाज सेवा की भावना से किया जाए तो नैतिकता के साथ ही मरीज से भावनात्मक संबंध भी बन सकेगा पर अगर व्यवसाय समझ कर करेंगे तो भावनाओं की अपेक्षा ही बेमानी होगी।

अभी महीना भर पहले अखबारों में लखनऊ के मेडिकल कॉलेज मे एक गंभीर बीमारी से ठीक हुए बच्चे की मुसकुराती तस्वीर छपी थी। यह वहाँ के डॉक्टरों द्वारा चिकित्सा के साथ ही उस बच्चे को दिया गया स्नेह ही था कि वह बच्चा उन डॉक्टरों को छोड़ कर अपने घर जाने को तैयार ही नहीं था।

आपका यह आलेख इस विषय पर गंभीर चिंतन प्रस्तुत करता है।


सादर

Sunil Deepak ने कहा…

पैसे के सामने भावनाओं के कैसे याद रखें और उनका सम्मान करें, यह दुविधा केबल चिकित्सकों की नहीं लेकिन शायद अगर चिकित्सक पैसे को अधिक महत्व दें तो समाज को अधिक नकसान होता है!

Sunil Deepak ने कहा…

धन्यवाद यश :)

Sunil Deepak ने कहा…

धन्यवाद रूपचन्द्र जी :)

merikhabrein ने कहा…

बहुत सही लिखा है. बहुत सुंदर अनुभव हैं .

Sunil Deepak ने कहा…

धन्यवाद रामकृष्ण जी

Onkar ने कहा…

आपके अनुभव आँखें खोलनेवाले हैं

Sunil Deepak ने कहा…

मेरे अनुभवों ने मेरी सोच को बदला! आपको उनमें नयी सोच मिले यह तो खुशी की बात है. धन्यवाद ओंकार :)

Vaanbhatt ने कहा…

आपका लेख एक आई ओपेनर की तरह लगा...अन्य जीवों की तरह हम क्यों दूसरों को उनकी इच्छा से जीने नहीं देते...

Sunil Deepak ने कहा…

वाणभट्ट जी, बहुत धन्यवाद. अगर मेरे लिखने से आप को सोचना पड़ा और आप ने कुछ भिन्न सोचा, तो मेरा लिखना सार्थक हुआ.

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

जब पहली बार यह कविता पढ़ी थी, बड़ा प्रभावित हुआ था। सब कुछ मुक्त सा करती हुयी यह कविता।

Sunil Deepak ने कहा…

मुझे लगता है कि जब बच्चे बड़े होने लगें तो माता पिता को इसे कुछ कुछ महीनों में बार बार पढ़ना चाहिये! :)

धन्यवाद प्रवीण

i b arora ने कहा…

आपके विचार बहुत ही सुंदर हैं काश सब ऐसे ही सूच पाते
आई बी अरोड़ा

i b arora ने कहा…

आपके विचार बहुत ही सुंदर हैं,काश सब ऐसे सोच पाते

Sunil Deepak ने कहा…

अरोड़ा जी, आप को बहुत धन्यवाद. मुझे आप की कवितायेँ बहुत अच्छी लगती हैं इस लिए अच्छा लगा की आप ने मेरे लिखे को सराहा

कविता रावत ने कहा…

कविता बहुत बढ़िया लगी साथ ही आपका अनुभव प्रेरक है ... सार्थक प्रस्तुति हेतु आभार

Sunil Deepak ने कहा…

आलेख पढने के लिए धन्यवाद कविता

Harihar (विकेश कुमार बडोला) ने कहा…

सुनील जी प्रणाम। आपके ब्‍लॉग पर निरन्‍तर उपस्थित नहीं होने के लिए क्षमा याचना करता हूं। आपने अपने व्‍यक्तिगत चिकित्‍सकीय अनुभव से चिकित्‍सा जगत को एक नैतिक संबल प्रदान किया है। मेरे विचार में डॉक्‍टरी व वकीली दो ऐसे पेशे हैं, जिनकी आय दूसरे लोगों की समस्‍याओं और दुखों का इलाज करने के बाद होती है। क्‍या इन पेशों की आय को इस आधार पर निर्धारित नहीं किया जाना चाहिए कि जो वकील या डॉक्‍टर जितनी जनसेवा करेगा, उसकी अाय व प्रोन्‍नति भी उसी गति से बढ़ेगी। चिकित्‍सा का महंगा होना और आम आदमी की उस तक पहुंच नहीं हो पाना बहुत उदास करता है।

Sunil Deepak ने कहा…

विकास, मेरे विचार में अगर देश में नागरिकों के लिए चिकित्सा उनकी पहुँच से बाहर हो, उनकी गरीबी का कारण बने या वह नाइलाज रहें तो इसमें सबसे बड़ा दोष देश की सरकार का है जिसका कर्तव्य है कि नागरिकों को अच्छी चिकित्सा सेवा मिले. दुर्भाग्यवश भारत सरकार का राष्ट्रीय बजट में नागरिकों के लिए स्वस्थ्य व्यय दुनिया में सबसे कम स्तर वाले देशों में आता है. इससे नागरिकों के पास अन्य चारा नहीं सिवाय इसके कि निजि चिकित्सा सेवाओं का उपयोग करें. इस वातावरण में निजि चिकित्सा सेवा अक्सर केवल बिज़नस बन कर रह गया है जिसका पहला ध्येय पैसा कमाना है. बहुत से डाक्टर इस विषय में कहते हैं कि उनके भी बच्चे व परिवार हैं, वह भी उसी समाज में रहते हैं, अगर समाज पैसा कमाने को सबसे अधिक महत्व देता है, तो डाक्टर इससे कैसे अलग रहें!

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