शुक्रवार, जून 20, 2025

राशन की चीनी

आज सुबह चाय बना रहा था तो अचानक मन में बचपन की एक याद कौंधी। 

यह बात १९६३-६४ की है। मैं और मेरी छोटी बहन, हम दोनों अपनी छोटी बुआ के पास मेरठ में गर्मियों की छुट्टियों पर गये थे। १०१ नम्बर का उनका घर साकेत में था। साथ में और सामने बहुत सी खुली जगह थी। बुआ के घर में पीछे पपीते का पेड़ लगा था और साथ वाले घर में अंगूर लगे थे। एक बार दोपहर में जब अन्य लोग सो रहे थे, पड़ोसी घर से अंगूर चुरा कर खाने की सजा भी मिली थी। बुआ के यहाँ अजीत नाम के गढ़वाली सज्जन रसोईये का काम करते थे।

तब मैं नौ-दस साल का था और सुबह दूध पीता था। दिल्ली में घर पर दूध में चीनी मिला कर पीते थे। उन दिनों में चीनी राशन से मिलती थी और शायद मेरठ में उसकी कमी चल रही थी, इसलिए वहाँ दूध फीका पीना पड़ता था। ऐसी आदत पड़ी थी कि बिना चीनी का दूध पीया ही नहीं जाता था, मतली आने लगती थी। तब अजीत कहता कि गुड़ का टुकड़ा मुँह में रख लो और साथ में दूध का घूँट पीयो, चीनी की कमी महसूस नहीं होगी।

पिछले दस-पंद्रह सालों से मैं दूध, चाय और कॉफी बिना चीनी के पीता हूँ। मसूढ़ों में तकलीफ रहती थी तब डैन्टिस्ट ने कहा कि शायद मेरे मसूढ़ों को चीनी और कॉफी का सम्मिश्रिण सूट नहीं करता, इसलिए मुझे कुछ दिन तक बिना चीनी की कॉफी पी कर देखना चाहिए। एक बार कॉफी से शुरु किया तो चाय और दूध में भी चीनी डालना छोड़ दिया।

तब से फीका पीने की ऐसी आदत पड़ी है कि अगर चाय में चीनी हो तो मुझसे पी नहीं जाती, मतली आने लगती है। भारत में छोटे-बड़े शहरों में घूमते हुए कई बार ऐसा होता है कि वह लोग चाय बना कर रख लेते हैं जिसमें चीनी मिली होती है और आप उनसे बिना चीनी की चाय माँगिये तो वह मना कर देते हैं। रेल में भी यही होता है।

कर्णटक में एक पशु मेले में चाय बेचने वाली - Image by Sunil Deepak

तब सोचता हूँ कि जीवन भी कितना विचित्र है। कभी चीनी न होने पर उसके लिए तरसते थे और आज चीनी होने पर तरसते हैं।

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साठ-सत्तर के दशक के बारे में सोचो तो मन में प्रश्न उठता है कि अगर गुड़ मिलने में कोई कठिनाई नहीं होती थी तो चीनी क्यों नहीं मिलती थी? गुड़ से चीनी बनाना ऐसा कठिन नहीं है। शायद तब बात गन्ने या गुड़ की कमी की नहीं थी बल्कि फैक्टरियों को चीनी बनाने के कोटा मिलना की थी, क्योंकि कोई फैक्टरी वाला, जितनी अनुमति मिली हो उससे अधिक चीनी का उत्पादन नहीं कर सकता था। अगर वह कोटे से अधिक उत्पादन करते थे तो सरकारी बाबू उन पर जुर्माना लगा देते थे।

यह कोटे वाली बात आज की पीढ़ी के लिए समझना आसान नहीं है। एक बार मैंने विक्स बनाने वाली कम्पनी के अधीक्षक का एक साक्षात्कार सुना था जिसमें उन्होंने बताया कि इंदिरा गाँधी की सरकार के समय में एक साल फ्लू का बुखार बहुत फ़ैला। इसलिए विक्स की माँग बहुत थी तो कम्पनी ने उत्पादन बढ़ा दिया। इस बात के कुछ महीने बाद उन्हें दिल्ली के एक अफसर ने बुलाया, वह अपने वकील के साथ गये। उन्हें कहा गया कि तुमने कोटे से अधिक विक्स बना कर अपराध किया है, उसका जुर्माना देना पड़ेगा।

आज का हिन्दुस्तान में बहुत सी बातें बदली हैं, अब फैक्टरियों को कोटे से अधिक बनाने का जुर्माना नहीं लगता, क्योकि अब कोटे नहीं होते। लेकिन कई क्षेत्रों में कुछ सरकारी बाबूओं की सोच में बहुत बदलाव नहीं हुआ है। उनका ध्येय जनसेवा नहीं, जब तक आप उनके हाथ गर्म नहीं करें तब तक उनका काम आप के काम में अड़चने डालना है।

आप की क्या राय है, हिन्दुस्तान में क्या बदलना चाहिए जो अभी भी नहीं बदला?

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12 टिप्‍पणियां:

Anita ने कहा…

रोचक आलेख, हिंदुस्तान में सबसे पहले तो जनता को स्वच्छता का पाठ सीखना चाहिए, सरकार द्वारा करोड़ों रुपये स्वच्छता अभियान पर खर्च करने के बाद भी भारत के शहरों में कूड़े के ढेर लगे मिल जाते हैं

Sunil Deepak ने कहा…

अनीता जी, दूर विदेश में रहने से स्मृति की छवियाँ गुलाबी चश्में से दिखाई देती हैं, उनमें न गर्मी होती है, न मक्खी-मच्छर, न गन्दगी। पर दुर्भाग्य से भारत के जीवन की यह भी एक सच्चाई है।

Priyahindivibe | Priyanka Pal ने कहा…

सच प्रशासन में बढ़ती इस तरह की अनीतियाँ और जनता का मूक ही इस सारी असमानताओं व फैलते भ्रष्टतंत्र का कारण है ।

Sunil Deepak ने कहा…

प्रियंका जी, जनता मूक अवश्य रहती है, लेकिन उसे मतदान से बोलना आता भी है। एक अन्य कठिनाई यह भी है कि अच्छे नेता और प्रशासक आसानी से नहीं मिलते

How do we know ने कहा…

एक किताब है - विदेशी यात्रियों की नज़र में भारत। मेगआस्थेनेस से ले कर इब्न बतूता तक के संस्मरणों को संक्षेप में प्रस्तुत करती है। उसकी एक पंक्ति मुझे विशेष रूप से कचोट गई - भारतीय दुनिया के सबसे अधिक ज्ञानी लोग हैं। परंतु इन्हें अपने ज्ञान पर इतना अभिमान है कि इन से बात करने का मन नहीं करता। - ये है आपके प्रश्न का उत्तर।

कविता रावत ने कहा…

बचपन की यादें ताजी कर दी आपने,,,राशन की चीनी मिलती भी कितनी थी एक सदस्य को 200 ग्राम बाद में आधा किलो ,,,सच चीनी का चस्का ऐसा था कि चाय में चीनी नहीं तो थोड़ी सी हाथ में लेकर एक घूंट चाय और दूसरे हाथ में रखी चीनी जीभ में लेते,,,और जो आपने गढ़वाली अजीत की बात कही गुड़ वाली तो हम तो आज भी चाय के साथ गुड़ ऐसे ही एक बार चाय एक बार गुड़ लेकर पीते हैं,, उसे कुटका लगाना कहते है हम,,

Sunil Deepak ने कहा…

कई बार मैं भी कुछ ऐसी ही बात सोचता था, कि भारत में जितने ज्ञानी मिलेंगे शायद पूरी दुनिया में नहीं होंगे, तो उनके बावजूद हमारा देश इतना पिछड़ा हुआ क्यों है? पिछले कुछ दशकों में भारत ने इतना विकास कर लिया है, इसलिए अब यह प्रश्न उतना लागू नहीं होता, लेकिन शायद, अगर बाबूओं की पावर और बेकार की रुकावटें हटाई जायें तो शायद तरक्की की गति और तेज हो जाये।

Sunil Deepak ने कहा…

🙏🙏🙏

Pammi singh'tripti' ने कहा…

आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" बुधवार 25 जून 2025को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

Sunil Deepak ने कहा…

तृप्ति जी, पाँच लिंको का आनन्द में मुझे जगह देने के सम्मान के लिए दिल से धन्यवाद

Onkar ने कहा…

बहुत सुंदर

Sunil Deepak ने कहा…

🙏🙏🙏

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