इसी सोच की वजह से विकसित देशों में पटरी ऐसी बनाईये कि व्हील चेयर वाला व्यक्ति उसका इस्तमाल कर सके, सीढ़ियों के साथ लिफ्ट या रेम्प बनवाईये, मार्गदरशक बोर्ड ब्रेल में भी लिखिये, दूरदर्शन समाचार इशारों की भाषा में भी दिखाईये, जैसी बातें होनी लगीं.
जाँपिएरो की बात से मैं एक अन्य वर्ग की बात सोच रहा था जो शोषित है और जिसके मानव अधिकारों को सदियों से कुचला जाता है, दलित वर्ग. क्या हिंदी चिट्ठा जगत में दलित लेखक हैं और वह इस बारे में क्या सोचते हैं ?
ब्राज़ील और कीनिया जैसे देशों में गरीब इलाकों और झोपड़पट्टी में जाना बहुत कठिन है, वहाँ अगर आप अच्छे वस्त्र पहने हों तो आप को लूट लेने वाले बहुत मिल जायेंगे. कहते हैं कि वहाँ के गरीब वर्ग में सामाजिक विषमताओं के प्रति बहुत क्रोध है. जब गरीब, शोषित लोगों की हिंसा की बात होती है तो अक्सर मेरे मित्र मुझसे पूछते हैं कि तुम्हारे भारत में ऐसा क्यों नहीं होता ? क्यों वहाँ किसी गरीब कालोनी में तुम पर हमला नहीं करते, क्यों उनमें गुस्सा नहीं है? क्या कारण हैं इसके ?
मेरे कुछ विदेशी मित्रों का कहना है कि यह हिंदू धर्म की सोच की वजह से है, कि लोग कहते हैं, "किस्मत की बात है, पिछले जीवन में कोई पाप किया था उसकी सजा है". कुछ का कहना है कि अत्याचार से लड़ना चाहिये और अगर कोई धर्म तुम्हें अत्याचार से लड़ने के बजाय उसे स्वीकार करना सिखाता है और उसे तुम्हारी अपनी ही गलती बताता है तो वह धर्म गलत है.
मैं यह बात नहीं मानता. गरीब कालोनी में गुजरने वाले लोगों पर हमला कर या उन्हें लूटने से समाजिक विषमताँए नहीं बदलतीं. शायद हमें धर्म और प्रजातंत्र गरीब मन में यह आशा देता है कि मेहनत करके, कोशिश करके हम भी अपना जीवन बदल सकते हैं, जबकि हिंसा कुछ नहीं बदलती.
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कल की अतुल की टिप्पणी:
"पर मुद्दा यह है कि यह प्रसार होगा कैसे? गर इंटरनेट पर तीन सौ से बढ़कर तीन लाख
ब्लाग हो जायें उससे? कल कुछ हिंदी समाचार चैनल देख रहा था। एक छोटी सी घटना की
रिपोर्ट देने में कुल चार वाक्य बारह बार घुमाये गये, हर वाक्य के अस्सी प्रतिशत
शब्द अँग्रेजी के थे। यही हाल अभिनेताओं का है। बात सिर्फ इतनी नही कि ये लोग हिंदी
बोलने में शर्माते हैं, इन्हें ढँग से आती ही नही। "
पर सोच कर बताईये, क्या किया जा सकता है जिससे देश में अधिक चेतना आये कि अँग्रेज़ी जानने के साथ साथ हम अपनी भाषा पर गर्व कर सकें, उसे अच्छा समझना, बोलना बढ़ सके ?