फ़िल्म कहानी है तीन प्रमुख पात्रों की - मंसूर (शान), सरमद (फ्वद खान) और मरियम (इमान अली) की. मंसूर और सरमद दो भाई संगीत प्रेमी है जो लाहौर में रहते हैं. उनकी चचेरी बहन मरियम लंदन में रहती है.
सरमद एक मौलाना के सम्बंध में आते हैं और उनकी बातों से प्रभावित हो कर सोचने लगते हैं कि संगीत इस्लाम के विरुद्ध है तो संगीत छोड़ देते हैं, दाड़ी बढ़ा लेते हैं, पैंट कमीज छोड़ कर पाकिस्तानी वस्त्र पहनने लगते हैं, माँ से कहते हैं कि तुम परदा करो, आदि.
मरियम लंदन में एक ईसाई युवक से विवाह करना चाहती है पर उनके पिता के अनुसार मुसलमान युवती धर्म से बाहर विवाह नहीं कर सकती, तो वह उसे धोखे से पाकिस्तान लाते हैं और वहाँ जबरदस्ती उसका विवाह चचरे भाई सरमद से करा देते हैं, जो पत्नी को ले कर अफगानिस्तान के एक गाँव में रहते हैं ताकि मरियम भाग न सके.
मंसूर को अपने छोटे भाई सरमद का इस तरह रूढ़िवादी बन जाना समझ नहीं आता, वह उसके विचार बदलने की कोशिश करता है पर कुछ नहीं बदल पाता. उसे अमरीका में संगीत सीखने की छात्रवृति मिलती है, जहाँ उसकी मुलाकात अमरीकी संगीतकार जेनी से होती है जिनसे वह विवाह कर लेता है. फ़िर ग्यारह सितंबर 2001 को अमरीका में हुए बम विस्फोट से स्थिति बदल जाती है और मंसूर को आतंकवादी समझ कर कैद कर लिया जाता है और यातना दी जाती है.
अंत में मरियम अफगानिस्तान से निकलने में सफल होती है, सरमद समझ जाते हैं कि मौलाना द्वारा इस्लाम की बातें ठीक नहीं और अमरीकी कैद से छूटे, टूटे और हारे मंसूर वापस पाकिस्तान आ जाते हैं.
फ़िल्म एक तरफ़ दिखाती है कि रूढ़िवादी लोग किस तरह मुसलमान नवयुवकों को प्रभावित कर सकते हैं, दूसरी और आधुनिक सोच वाले मुसलमानों की कठिनाई भी दिखाती है कि पश्चिमी देशों में केवल मुसलमान होने की वजह से वे आतंकवादी के रूप में देखे जाते हैं. फ़िल्म का संगीत बढ़िया है, सब पात्रों का अभिनय भी अच्छा है.
पर साथ ही इस फ़िल्म की एक बात कुछ अजीब लगी कि उसकी हर बहस इसी बात पर थी कि कोई बात इस्लाम में कुरान शरीफ के अनुसार ठीक मानी जाती है या नहीं.
अंत में फ़िल्म दिखाती है कि कुरान शरीफ़ के अनुसार औरत का जबरदस्ती विवाह गलत बात है, इस्लाम संगीत के विरुद्ध नहीं, इत्यादि. कहीं यह बात नहीं होती कि मानवता के हिसाब से कोई बात ठीक है या नहीं? तो लगा कि अगर कुरान शरीफ़ में कोई इस तरह की बात हो जो मानवता कि दृष्टि से ठीक न हो तो क्या उसे सही माना जायेगा? जैसे कि मुसलमान युवती द्वारा धर्म से बाहर विवाह करने की बात है. फ़िल्म में यह कहा जाता है कि मिरयम मुसलमान थी ही नहीं, वह तो ईसाई समाज में ईसाई माँ के साथ, ईसाई ही बड़ी हुईं थीं, पर इस बात का उत्तर नहीं दिया जाता कि इस्लाम में क्या सिर्फ पुरुष को अधिकार है कि वह धर्म के बाहर विवाह करे?
मैं सोचता हूँ कि आज मानव अधिकार की दृष्टि से बात देखना आवश्यक है और अगर कोई धर्म मानव अधिकार की दृष्टि से किसी विषय में ठीक बात नहीं कहते तो उसमें धर्म सुधार की बात होनी चाहिये. हर धर्म में कट्टरपंथी और रुढ़िवादी हो सकते हैं जो धर्मग्रंथ में लिखे को पत्थर की लकीर माने पर हर धर्म में सुधारवादी भी होते हैं. लेकिन लगता है कि आज के वातावरण में आधुनिक दृष्टि वाले मुसलमानों के लिए अपनी बात कहना पहले के मुकाबले कठिन हो गया है.
ऐसे ही आधुनिक और निर्भीक मस्लिम विचारवादी है मिस्र के लोकप्रिय लेखक अला अल अस्वानी (Ala Al Aswany) अस्वानी जी मिस्र की राजधानी कैरो में दाँतों के डाक्टर हैं और लेखकी उनका शौक है. उनकी किताब "याकूबी भवन" को अरबी साहित्य की सबसे अधिक बिकने वाली किताब माना जाता है. वह दू टूक बात करने के लिए प्रसिद्ध हैं. कुछ दिन पहले अमरीकी अखबार न्यू योर्क टाईमस मेगज़ीन में पंकज मिश्रा द्वारा लिया उनका एक साक्षात्कार पढ़ा था.
अस्वानी कहते हैं कि मिस्र तथा अन्य प्राचीन सभ्याताओं जैसे बगदाद और दमास्कस में जन्मा इस्लाम सहनशीलता और विभिन्न विचारों को मानने वाला धर्म था, जबकि साऊदी अरब के रेगिस्तान में जन्मा इस्लाम इससे भिन्न था, उसमें कला के लिए भी समय नहीं था. दिक्कत यह है कि आज वही रेगिस्तानी कट्टर इस्लाम को ही असली इस्लाम माना जा रहा है. अस्वानी ने सलमान रश्दी के विरुद्ध दिये फतवे का भी खुला विरोध किया था. वह कहते है कि रश्दी ने कुछ भी लिखा हो, इस्लाम किसी को मारने का अधिकार नहीं देता. मेरे विचार में आज इस्लाम को और दुनिया को, अस्वानी जेसे लोगों की बहुत आवश्यकता है.