बैल्लरी जिले के हूवीना हड़ागली तालुक के गाँवों में घूम रहे थे. यह जगह हड़ागली यानि चमेली के फ़ूलों के उत्पादन के लिए प्रसिद्ध है. विकलाँग पुनर्निवास कार्यक्रम की जाँच के करने आया था और वहाँ वह मेरा अंतिम दिन था. अचानक सड़क के किनारे शीशे और मोतियों से जड़े हुए चमकते हुए रंगीन कपड़े पहने, औरतें देख कर उत्सुकता हुई कि कौन लोग हैं? पता चला कि यह राजस्थानी मूल के बनजारे हैं जिन्हें लम्बाड़ी या थाँडा के नाम से जाना जाता है और जो दक्षिण भारत के विभिन्न राज्यों में जगह जगह बसे हैं. गाँवों में विकलाँगों संबन्धी कार्यक्रम को देखने आया था इसलिए अपने साथियों से पूछा कि क्या इन लम्बाड़ी के गाँवों में भी कोई विकलाँग कार्यक्रम है और क्या हम लोग उसे देखने जा सकते हैं?
हालाँकि शाम होने को आयी थी और हमें लम्बी यात्रा करनी थी, फ़िर भी मेरे साथियों ने तुरंत मुझे एक लम्बाड़ी गाँव दिखाने के लिए हाँ कर दी. उन्होंने बताया कि इन गाँवों को थाँडा कहते है और यहाँ रहने वाले लम्बाड़ी अब धीरे धीरे कर्णाटकी संस्कृति में घुलने मिलने लगे हैं. बहुत से लम्बाड़ी लोग अब जगह जगह नहीं घूमते, बल्कि एक ही जगह पर रहने लगे हैं. यह लम्बाड़ी गाँव हूवीना हड़ागली शहर के दक्षिण में करीब पाँच किलोमीटर दूर है. लेकिन वहाँ जाने वाली सड़क की हालत बहुत खराब थी इसलिए खाली सड़क होते हुए भी पहुँचने में करीब बीस मिनट लगे.
सड़क छोड़ कर गाँव की तरफ कच्चे रास्ते पर मुड़े तो तुरंत गाय के साथ एक वृद्ध औरत पारम्परिक लम्बाड़ी पौशाक में दिखी. देखने में गाँव के घरों में कोई विषेश भिन्नता नहीं दिखी. गाँव के प्रारम्भ में ही एक गूँगी युवती का घर था जिसे विकलाँग कार्यक्रम वाले जानते थे. उससे बात करने लगे तो थोड़ी देर में आसपास बच्चे जमा हो गये. उस गाँव में बाहर के लोग कम ही आते हैं, शायद इसीलिए हर कोई मेरे कैमरे को देख कर अपनी फोटो खिंचवाना चाहता था. युवती से बात करके हम लोग एक अन्य घर में गये, जहाँ एक विकलाँग युवक रहता था. इस तरह मुझे गाँव को देखने का मौका मिला.
केवल प्रौढ़ या वृद्ध महिलाएँ ही पारम्परिक लम्बाड़ी पौशाक पहने थीं जबकि युवक, युवतियाँ और बच्चे सामान्य वस्त्र ही पहने थे. लम्बाड़ी पारम्परिक पौशाक का ही हिस्सा है, सिर के दोनो ओर बालों की एक चौड़ी लट पर बँधे चाँदी के बड़े बड़े झुमके, जिनसे कान ढके से रहते हैं. हाँलाकि कुछ लोग आपस में राजस्थानी से मिलती जुलती लम्बाड़ी भाषा भी बोल रहे थे, पर अधिकतर लोग कन्नण भाषा को भी बोल समझ सकते थे. मेरे साथियों ने बताया कि बच्चे चूँकि स्कूल में कन्नण ही सीखते हैं, इसलिए लम्बाड़ी भाषा का बोलना भी कम हो रहा है. गाँव में टेलीविज़न देखने के डिश ऐंटेना और कई लोगों के पास मोबाईल फ़ोन भी दिखे.
जल्दी जल्दी करके गाँव से वापस चलने लगे तो डूबते सूरज की रोशनी में गाँवों की पीछे एक पहाड़ी पर, ऊर्जा उत्पादन के लिए लगी हवाई पनचक्कियों पर नज़र पड़ी. सदियों से अपनी भाषा, पौशाक और संस्कृति को अलग बचा कर, संभाल कर रखने वाली जनजातियाँ आज तकनीकी और आर्थिक विकास के सामने धीरे धीरे अपनी भिन्नता खो कर सामान्य जीवन में समन्वित हो रही हैं. अन्य कुछ दशकों में शायद इन लम्बाड़ी गाँवों का यह बचा खुचा पारम्परिक रूप भी खो जायेगा.
उत्तरी कर्णाटक के इस लम्बाड़ी गाँव की इस छोटी सी यात्रा की कुछ तस्वीरें प्रस्तुत हैं.
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हालाँकि शाम होने को आयी थी और हमें लम्बी यात्रा करनी थी, फ़िर भी मेरे साथियों ने तुरंत मुझे एक लम्बाड़ी गाँव दिखाने के लिए हाँ कर दी. उन्होंने बताया कि इन गाँवों को थाँडा कहते है और यहाँ रहने वाले लम्बाड़ी अब धीरे धीरे कर्णाटकी संस्कृति में घुलने मिलने लगे हैं. बहुत से लम्बाड़ी लोग अब जगह जगह नहीं घूमते, बल्कि एक ही जगह पर रहने लगे हैं. यह लम्बाड़ी गाँव हूवीना हड़ागली शहर के दक्षिण में करीब पाँच किलोमीटर दूर है. लेकिन वहाँ जाने वाली सड़क की हालत बहुत खराब थी इसलिए खाली सड़क होते हुए भी पहुँचने में करीब बीस मिनट लगे.
सड़क छोड़ कर गाँव की तरफ कच्चे रास्ते पर मुड़े तो तुरंत गाय के साथ एक वृद्ध औरत पारम्परिक लम्बाड़ी पौशाक में दिखी. देखने में गाँव के घरों में कोई विषेश भिन्नता नहीं दिखी. गाँव के प्रारम्भ में ही एक गूँगी युवती का घर था जिसे विकलाँग कार्यक्रम वाले जानते थे. उससे बात करने लगे तो थोड़ी देर में आसपास बच्चे जमा हो गये. उस गाँव में बाहर के लोग कम ही आते हैं, शायद इसीलिए हर कोई मेरे कैमरे को देख कर अपनी फोटो खिंचवाना चाहता था. युवती से बात करके हम लोग एक अन्य घर में गये, जहाँ एक विकलाँग युवक रहता था. इस तरह मुझे गाँव को देखने का मौका मिला.
केवल प्रौढ़ या वृद्ध महिलाएँ ही पारम्परिक लम्बाड़ी पौशाक पहने थीं जबकि युवक, युवतियाँ और बच्चे सामान्य वस्त्र ही पहने थे. लम्बाड़ी पारम्परिक पौशाक का ही हिस्सा है, सिर के दोनो ओर बालों की एक चौड़ी लट पर बँधे चाँदी के बड़े बड़े झुमके, जिनसे कान ढके से रहते हैं. हाँलाकि कुछ लोग आपस में राजस्थानी से मिलती जुलती लम्बाड़ी भाषा भी बोल रहे थे, पर अधिकतर लोग कन्नण भाषा को भी बोल समझ सकते थे. मेरे साथियों ने बताया कि बच्चे चूँकि स्कूल में कन्नण ही सीखते हैं, इसलिए लम्बाड़ी भाषा का बोलना भी कम हो रहा है. गाँव में टेलीविज़न देखने के डिश ऐंटेना और कई लोगों के पास मोबाईल फ़ोन भी दिखे.
जल्दी जल्दी करके गाँव से वापस चलने लगे तो डूबते सूरज की रोशनी में गाँवों की पीछे एक पहाड़ी पर, ऊर्जा उत्पादन के लिए लगी हवाई पनचक्कियों पर नज़र पड़ी. सदियों से अपनी भाषा, पौशाक और संस्कृति को अलग बचा कर, संभाल कर रखने वाली जनजातियाँ आज तकनीकी और आर्थिक विकास के सामने धीरे धीरे अपनी भिन्नता खो कर सामान्य जीवन में समन्वित हो रही हैं. अन्य कुछ दशकों में शायद इन लम्बाड़ी गाँवों का यह बचा खुचा पारम्परिक रूप भी खो जायेगा.
उत्तरी कर्णाटक के इस लम्बाड़ी गाँव की इस छोटी सी यात्रा की कुछ तस्वीरें प्रस्तुत हैं.
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