बोलोनिया शहर संग्रहालयों का शहर है. गाइड पुस्तिका के हिसाब से शहर में सौ से भी अधिक संग्रहालय हैं. इन्हीं में से एक है दीवारदरियों (Tapestry) का संग्रहालय. दीवारदरियाँ यानि दीवार पर सजावट के लिए टाँगने वाले कपड़े जिनके चित्र जुलाहा करघे पर कपड़ा बुनते हुए, उस पर बुन देता है.
बहुत दिनों से मन में इस संग्रहालय को देखने की इच्छा थी. कल रविवार को सुबह देखा कि मौसम बढ़िया था, हल्की हल्की ठंडक थी हवा में. पत्नि को भी अपनी सहेली के यहाँ जाना था जहाँ जाने का मेरा बिल्कुल भी मन नहीं था, तो सोचा क्यों न आज सुबह साइकल पर सैर को निकलूँ और उस संग्रहालय को देख कर आऊँ.
यह संग्रहालय हमारे घर से करीब आठ या नौ किलोमीटर दूर, शहर के दक्षिण में जहाँ पहाड़ शुरु होते हैं, उनके आरम्भिक भाग में अठाहरवीं शताब्दी के एक प्राचीन भवन में बना है. इस प्राचीन भवन का नाम है "विल्ला स्पादा" (Villa Spada) जो कि रोम के स्पादा परिवार का घर था. सोचा कि पहाड़ी के ऊपर से शहर का विहंगम दृश्य भी अच्छा दिखेगा. यह सब सोच कर सुबह नौ बजे घर से निकला और करीब आधे घँटे में वहाँ पहुँच गया.
संग्रहालय के आसपास प्राचीन घर का जो बाग था उसे अब जनसाधारण के लिए खोल दिया गया है. बाग में अंदर घुसते ही सामने एक मध्ययुगीन बुर्ज बना है, जबकि बायीं ओर एक पहाड़ी के निचले हिस्से पर विल्ला स्पादा का भवन है. संग्रहालय में देश विदेश से करघे पर बुने कपड़ों के नमूने हैं. इन कपड़ों के नमूनों में से कुछ बहुत पुराने हैं, यहाँ तक कि दो हज़ार साल से भी अधिक पुराने, यानि उस समय के कपड़े जब भारत में सम्राट अशोक तथा गौतम बुद्ध थे. कपड़ों के अतिरिक्त संग्रहालय में प्राचीन चरखे और कपड़ा बुनने वाले करघे भी हैं जैसे कि एक सात सौ साल पुराना करघा.
संग्रहालय में घूमते हुए लगा कि शायद यूरोप में कपड़ा बुनने वालों को नीचा नहीं समझा जाता था बल्कि उनको कलाकार का मान दिया जाता था. तभी उनके बनाये कढ़ाई के काम को, डिज़ाईन के काम को इतने मान के साथ सहेज कर रखा गया है. उनमें से कुछ लोगों के नाम तक लिखे हुए हैं. सोचा कि अपने भारत में हाथ से काम करने वाले को हीन माना जाता है, उनकी कला को कौन इतना मान देता है कि उनके नाम याद रखे जायें या उनके डिज़ाईनों को संभाल कर रखा जाये? पहले ज़माने की बात तो छोड़ भी दें, आज तक पाराम्परिक जुलाहे जो चंदेरी या चिकन का काम करते हैं, क्या उनमें से किसी को कलाकार माना जाता है? धीरे धीरे सब काम औद्योगिक स्तर पर मिलें और मशीने करने लगी हैं, जबकि हाथ से काम करने वाले कारीगर गरीबी और अपमान से तंग कर यह काम अपने बच्चों को नहीं सिखाना चाहते. कहते थे कि ढ़ाका की इतनी महीन मलमल होती थी कि अँगूठी से निकल जाये, पर क्या किसी मलमल बनाने बनाने का नाम हमारे इतिहास ने याद रखा?
संग्रहालय में रखे कपड़ों, करघों के अतिरिक्त घर की दीवारों तथा छत पर बनी कलाकृतियाँ भी बहुत सुन्दर हैं.
संग्रहालय देख कर बाहर निकला तो भवन के प्रसिद्ध इतालवी बाग को देखने गया. इतालवी बाग बनाने की विषेश पद्धति हुआ करती थी जिसमें पेड़ पौधों को अपने प्राकृतिक रूप में नहीं बल्कि "मानव की इच्छा शक्ति के सामने सारी प्रकृति बदल सकती है" के सिद्धांत को दिखाने के लिए लगाया जाता था. इन इतालवी बागों में केवल वही पेड़ पौधे लगाये जाते थे जो हमेशा हरे रहें ताकि मौसम बदलने पर भी बाग अपना रूप न बदले. इन पौधों को इस तरह लगाया जाता था जिससे भिन्न भिन्न आकृतियाँ बन जायें, जो प्रकृति की नहीं बल्कि मानव इच्छा की सुन्दरता को दिखाये. इस तरह के बाग बनाने की शैली फ़िर इटली से फ्राँस पहुँची जहाँ इसे और भी विकसित किया गया.
विल्ला स्पादा के इतालवी बाग में पौधों की आकृतियों को ठीक से देखने के लिए एक "मन्दिर" बनाया गया था जिसकी छत पर खड़े हो कर पौधों को ऊपर से देख सकते हैं. बाग के बीचों बीच ग्रीस मिथकों पर आधारित कहानी से हरक्यूलिस की विशाल मूर्ति बनी है. पर बाग की सबसे सुन्दर चीज़ है मिट्टी की बनी नारी मूर्तियाँ.
एक कतार में खड़ीं इन मूर्तियों में हर नारी के भाव, वस्त्र, मुद्रा भिन्न है, कोई मचलती इठलाती नवयुवती है तो कोई काम में व्यस्त प्रौढ़ा, कोई धीर गम्भीर वृद्धा. मुझे यह मूर्तियाँ बहुत सुन्दर लगी. बहुत देर तक उन्हें एक एक करके निहारता रहा. लगा कि मानो उन मूर्तियों में मुझ पर जादू कर दिया हो. दो सदियों से अधिक समय से खुले बाग में धूप, बर्फ़, बारिश ने हर मूर्ति पर अपने निशान छोड़े हैं, कुछ पर छोटे छोटे पौधे उग आये हैं. इन निशानों की वजह से वे और भी जीवंत हो गयी हैं. उनके वस्त्र इस तरह बने हैं मानो सचमुच के हों.
इस दिन को इन मूर्तियों की वजह से कभी भुला नहीं पाऊँगा, और दोबारा उन्हें देखने अवश्य जाऊँगा. प्रस्तुत हैं विल्ला स्पादा के संग्रहालय तथा बाग की कुछ तस्वीरें.
पहली तस्वीरें हैं संग्रहालय की.
इन तस्वीरों में है इतालवी बाग और हरक्यूलिस की मूर्ती.
और अंत में यह नारी मूर्तियाँ जो मुझे बहुत अच्छी लगीं.
हैं न सुन्दर यह नारी मूर्तियाँ?
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