कुछ वर्ष पहले तक हम लोग बोलोनिया से करीब ४० किलोमीटर दूर, इमोला शहर में रहते थे जो अपने ग्रांड प्री फोरमूला १ की कार रेस के लिए प्रसिद्ध है. तभी, कई बार देर रात को इमोला से बोलोनिया जाने वाली रेलगाड़ी में अनौखे यात्रियों को देखने का मौका मिलता था. वे अनौखे यात्री थे वेश्याएँ, औरतें भी और पुरुष भी.
अधिकतर वेश्याएँ अफ्रीका और पूर्वी यूरोप से आयीं जवान लड़कियाँ होती हैं. उनमें से कुछ तो बहुत कम उम्र की लगती हैं, बालिग नहीं लगती. जब रेल पर चढ़तीं तो आम लड़कियों की तरह ही लगतीं, आपस में हँसी मज़ाक से बातें करती हुईं. फ़िर रेल पर चढ़ते ही सभी काम के लिए तैयार होने लग जाती थीं. डिब्बे के बाथरुम की ओर भागतीं. कुछ तो वहीं डिब्बे में ही कपड़े बदलने लगतीं. साधारण रोजमर्रा के कपड़े उतार, छोटी चमकीली पौशाकें, जिनको पहनने से उनके वक्ष और जांघों के बारे में किसी कल्पना की आवश्यकता न रहे. फिर मेकअप की बारी आती. छोटे छोटे शीशों में झांक कर भड़कीली लिपस्टिक और आँखों के ऊपर लगाने के लिए नीले और लाल रंग. २० मिनट में जब रेल बोलोनिया पहुँचती, वे सभी तैयार हो चुकी होतीं थीं. लगता उनका सारा व्यक्त्तिव ही बदल गया हो. हँसी मजाक के बदले में उनके चेहरे पर गम्भीरता आ जाती.
पुरुष वैश्याओं में अगर पुरुष बन कर काम करने वाले युवक होते थे, तो मुझे मालूम नहीं क्योंकि शायद उन्हें इस तरह तैयार नहीं होना पड़ता. पर स्त्रिरुप धारण करने वाले पुरुष उन लड़कियों से किसी बात में कम नहीं थे. वह रेल में पहले से ही तैयार हो कर आते. शायद उन्हें घर से निकलते समय, अड़ोसी पड़ोसियों के कहने सुनने का कुछ भय नहीं होता ? उनके कपड़े और भी भड़लीले, मेकअप और भी चमकीला और रंगबिरंगा होता. आपस में इतनी जोर जोर से बातें करते और हँसते. देख कर लगता मानों शीशे के बने हों, जोर से कोई चोट लगे तो टूट कर बिखर जायेंगे. लगता वह शोर उनकी अपनी उदासी छुपाने का तरीका था. ऐसा बच्चा बन कर, पुरुष शरीर में स्त्री मन वाला बच्चा बन कर, बड़े होना कितना कठिन होता होगा, लोगों के खासकर अपने साथियों के मज़ाक और व्यंग के बीच, अपने घर वालों की शर्म और ग्लानी के बीच.
अपने आस पास के वातावरण से भिन्न होना कभी आसान नहीं होता. अगर कोई अंत में उनकी तरह इतना भिन्न हो जाता है कि लोग उसे समाज के हाशिये पर जगह देते हैं तो शायद उसके पास भिन्न होने के सिवा कोई अन्य चारा नहीं होता ? भारत में हिजँड़ों का भी तो यही हाल होता है.
यह सब बातें मैं मन में ही सोचता. कभी किसी अनौखे यात्री से कुछ बात करने का साहस ही नहीं जुटा पाया.
आज कि तस्वीरें जितेंद्र के भारत यात्रा ब्लोग से प्रेरित हैं, मसूरी की १९८७ में की एक यात्रा से.
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अच्छा लिखा है।
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