सोमवार, अगस्त 15, 2005

पहेलीः लोक कथा और सामाजिक सच्चाईयां

अगर आप समाज की किसी बात से सहमत नहीं हैं तो आप बात लोक कथाओं या लोक गीतों से कह सकते हैं. ऐसा ही कुछ अभिप्राय था मानुषी की संपादक मधु किश्वर का जिन्होंने अपने एक लेख में, गाँव की औरतों का अपने जीवन की विषमताओं का वर्णन और विरोध रामायण से जुड़े गीतों के माध्यम से करने, के बारे में लिखा था. अमोल पालेकर की निर्देशित "पहेली" देखी तो यही बात याद आ गयी.

क्योंकि "पहेली" भूत की बात करती है, एक लोक कथा के माध्यम से, इसलिए शायद अपने समाज के बारें कड़वे सच भी आसानी से कह जाती है और संस्कृति के तथाकथित रक्षकों को पत्थर या तलवारें उठा कर खड़े होने का मौका नहीं मिलता. फिल्म की नायिका, पति के जाने के बाद स्वेच्छा से परपुरुष को स्वीकार करती है और जब पति वापस आता है तो वह उसे कहती है कि वह परपुरुष को ही चाहती है. फिल्म की कहानी ऐसे बनी है कि पिता का आज्ञाकारी पुत्र ही खलनायक सा दिखायी देता है. यही कमाल है इस फिल्म का कि लोगों की सुहानभूती विवाहित नायिका और उसके प्रेमी की साथ बनती है, पति के साथ नहीं. सुंदर रंगों और मोहक संगीत से फिल्म देखने में बहुत अच्छी लगती है.

इस कहानी में अगर भूत की जगह हाड़ माँस का आदमी होता तो कहानी कुछ और ही हो जाती.

कल शाम को दुबाई से प्रसारित हम रेडियो सुनने लगा तो नुसरत फतह अली खान का गाया गीत "पाकिस्तान पाकिस्तान" सुन कर अच्छा नहीं लगा. कल उनका स्वतंत्रता दिवस था. ऐसा क्यों होता है कि जब रहमान जी "माँ तुझे सलाम" गायें तो अच्छा लगे और दूसरे "पाकिस्तान पाकिस्तान" गायें तो बुरा लगे ?

आज १५ अगस्त के अवसर पर, दो तस्वीरें फ़ूलों कीः


2 टिप्‍पणियां:

  1. सुनिल जी , इसी भावना का नाम राष्ट्र-प्रेम है ।

    आप द्वारा प्रेषित अन्य छवियों की तरह ये फूल भी अत्यन्त मोहक हैं ।

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  2. सुनील भाई, "हम एफ" के तो हम भी दिवाने है"
    एक और रेडियो है सनराइज रेडियो यूके का, वो भी काफी अच्छा होता है"
    http://www.sunriseradio.com/

    इसमे रवि शर्मा का प्रोग्राम जरूर सुनना, बड़ी मजेदार बातें करता है, जब मै लन्दन मे था, तो रोजाना सुना करता था.

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"जो न कह सके" पर आने के लिए एवं आप की टिप्पणी के लिए धन्यवाद.

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