कल जितेंद्र जी का लम्बा चिट्ठा, उनकी पुरानी रेडियो और टीवी से जुड़ी यादों के बारे में पढ़ा तो तुरंत उत्साह से टिप्पड़ीं लिखी. टिप्पड़ीं भेजने का बटन दबाया तो एक अजीब सा लम्बा संदेश आया, जिसका सार में अर्थ था कि हमारी कूड़े जैसी टिप्पड़ीं को वो कूड़ेदान में डाल रहे थे. तो पहले तो कुछ परेशानी हुई, क्योंकि बहुत समझदारी की बातें न भी हों, पर ऐसी तो कोई बात नहीं थी कि उसे नाराज हो कर इस तरह ठुकरा दिया जाये. फिर सोचा कि इस विषय पर अपना भी एक चिट्ठा बन सकता है.
जितेंद्र जी ने लिखा तो खूब, बस उनकी एक बात पसंद नहीं आयी जो उन्होंने शास्त्रीय संगीत और कर्नाटक संगीत सभा के चाहने वालों के बारे में लिखी है. क्यों भाई, आप भारत के पारमपरिक संगीत के बारे में ऐसा क्यों सोचते हैं कि उसे सच्चे मन से चाहने वाले नहीं हो सकते ? खैर, शास्त्रीय संगीत के बारे में अपने प्रेम और अन्य धारणाओं के बारे में फिर कभी, इस बार बात रेडियो और टीवी से जुड़ी यादों की है.
हमारे घर में तब बिजली नहीं थी. लैम्प की रोशनी से ही सब काम होते थे. शाम को ६ बजे के आसपास लैम्प जलाया जाता और ८ बजे तक सब बच्चे सोने के लिए तैयार हो जाते. तारों के नीचे, छत पर दरियां बिछतीं, अँधेरे में कहानियाँ और किस्से सुनते सुनते नींद आ जाती. रेडियो एक मौसी के यहाँ देखा था और शादियों में गाने लायक कुछ गाने भी आते थे. राजकपूर की फिल्म "छलिया" आयी थी, उसमें गाना था "तुम जो हमारे मीत न होते .." जो मुझे बहुत भाता था और जरा सा मौका मिलते ही मैं शुरु हो जाता. बिजली की रोशनी और रेडियो पहले हमारे नीचे वाले घर में आये. छत पर लेटे लेटे हम लोग जलन से नीचे देख रहे थे, आँगन में जली बत्ती और रेडियो पर आता "हवा महल". उन दिनों "बहुत रात हो गयी" का मतलब था कि हवा महल का समय हो गया. तब से रात को जल्दी सोने और सुबह जल्दी उठने की जो आदत पड़ी वो अभी तक नहीं गयी. सुबह सुबह चार बजे उठ कर दूध के डीपो के बाहर लाईन जो लगानी होती थी. क्या धक्का मुक्की होती दूध लेने के लिए जो शीशे की बोतलों में आता था.
फिर अपना भी ट्रांजिस्टर आया. कमरे में बीचों बीच उसे प्रतिष्ठत मेहमान की जगह मिली. रोज़ रेडियो सीलोन का स्टेशन ढ़ूंढ़ने की झंझट. शोर्ट वेव के २५ नम्बर के पास, सूई को धीरे धीरे घुमा कर रेडियो सीलोन ढ़ूढ़ते क्योंकि तब आल इंडिया रेडियो फिल्मी संगीत में विश्वास नहीं करता था. नयी फिल्मों के गाने, विषेशकर अमीन सयानी का बिनाका गीतमाला, हमारे मन पसंद प्रोग्राम थे. जब तक आल इंडिया रेडियो ने विविध भारती नहीं शुरु किया, तब तक यही सिलसिला चला.
१९६५ में जब पहली बार अपने स्कूल के मित्र के घर टीवी देखा. कई वर्षों तक यूं ही मित्रों पड़ोसियों के घर टीवी देखने जाते रहे. एक बार चित्राहार देखने और रविवार को हिंदी फिल्म देखने. सलमा सुलतान, प्रतिमा पुरी के दिन थे वे. मेरे पिता पत्रकार थे और कई बार दूरदर्शन पर साक्षात्कार के प्रोग्राम करने के बुलाये जाते. पर घर में टीवी नहीं था इसलिए कभी उनका प्रोग्राम नहीं देखा. एक बार अजमल खान रोड पर एक दुकान में लगे टीवी पर देखा, पापा किसी विदेशी युवती जो भरतनाट्यम की नर्तकी थीं, का साक्षात्कार ले रहे थे. साथ में चार साल की छोटी बहन थी, रोने लग गयी कि पापा उस डब्बे से बाहरे कैसे आयेंगे.
दूरदर्शन के सबसे बढ़िया दिन मेरे विचार में तब आये जब "हम लोग" और "बुनीयाद" जैसे सीरयल आये. एक ही चैनल थी और सारा हिंदी बोलने समझने वाला भारत सिर्फ वही देखता था, और सभी साथ ही वाह वाह कहते थे. आज की डीवीडी पर सोफे पर बोरियत से पसर के देखी हुई फिल्मों से वे दिन, पड़ोसियों के यहाँ सामने दरी पर बैठ कर देखी फिल्मों के दिन, ज्यादा अच्छे लगते थे. ये अच्छाई उन दिनों की फिल्मों या सीरयल में अच्छाई की वजह से नहीं थी, हमारी नादान और अनुभवहीन कल्पना में थी. इसी लिए जब कोई कहता है कि "कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन", हम वह नहीं कहते. वो बीते हुए दिन, यादों में ही अच्छे लगते हैं.
आज फिर दो तस्वीरें पुरानी चीन यात्रा से.
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
इस वर्ष के लोकप्रिय आलेख
-
हिन्दू जगत के देवी देवता दुनिया की हर बात की खबर रखते हैं, दुनिया में कुछ भी ऐसा नहीं जो उनकी दृष्टि से छुप सके। मुझे तलाश है उस देवी या द...
-
अगर लोकगीतों की बात करें तो अक्सर लोग सोचते हैं कि हम मनोरंजन तथा संस्कृति की बात कर रहे हैं। लेकिन भारतीय समाज में लोकगीतों का ऐतिहासिक दृष...
-
अँग्रेज़ी की पत्रिका आऊटलुक में बँगलादेशी मूल की लेखिका सुश्री तस्लीमा नसरीन का नया लेख निकला है जिसमें तस्लीमा कुरान में दिये गये स्त्री के...
-
पिछले तीन-चार सौ वर्षों को " लिखाई की दुनिया " कहा जा सकता है, क्योंकि इस समय में मानव इतिहास में पहली बार लिखने-पढ़ने की क्षमता ...
-
पत्नी कल कुछ दिनों के लिए बेटे के पास गई थी और मैं घर पर अकेला था, तभी इस लघु-कथा का प्लॉट दिमाग में आया। ***** सुबह नींद खुली तो बाहर अभी ...
-
सुबह साइकल पर जा रहा था. कुछ देर पहले ही बारिश रुकी थी. आसपास के पत्ते, घास सबकी धुली हुई हरयाली अधिक हरी लग रही थी. अचानक मन में गाना आया ...
-
हमारे घर में एक छोटा सा बाग है, मैं उसे रुमाली बाग कहता हूँ, क्योंकि वो छोटे से रुमाल जैसा है। उसमें एक झूला है, बाहर की सड़क की ओर पीठ किये,...
-
हमारे एक पड़ोसी का परिवार बहुत अनोखा है. यह परिवार है माउरा और उसके पति अंतोनियो का. माउरा के दो बच्चे हैं, जूलिया उसके पहले पति के साथ हुई ...
-
२५ मार्च १९७५ को भी होली का दिन था। उस दिन सुबह पापा (ओमप्रकाश दीपक) को ढाका जाना था, लेकिन रात में उन्हें हार्ट अटैक हुआ था। उन दिनों वह एं...
-
गृत्समद आश्रम के प्रमुख ऋषि विद्यार्थियों को पढ़ा रहे थे, जब उन्हें समाचार मिला कि उनसे मिलने उनके बचपन के मित्र विश्वामित्र आश्रम के ऋषि ग...
एक बार हमारे घर पर भी एक पड़ोसन आँटी अपने भाई का लखनऊ दूरदर्शन पर प्रसारित किया जा रहा कोई क्विज शो देखने अपने दो बच्चों के साथ आ गयी। कार्यक्रम खत्म होने पर बच्चे फैल गये कि मामा को टीवी से निकाल कर घर साथ लेकर चलो।
जवाब देंहटाएंसुनील जी,
जवाब देंहटाएंसबसे पहले तो मै माफी चाहूँगा कि आपकी टिप्पणी हमारे ब्लाग पर चिपक ना सकी...दरअसल मैने स्पैमकर्मा लगा रखा है, जो कभी कभी उल्टा सीधा बिहेवियर करता था, स्पैमकर्मा लगाने की वजहे भी कई थी, हर तरह के लोग आ आकर, कैसिनो वगैरहा का विज्ञापन लगा रहे थे. यदि आगे से आपकी कमेन्ट वहाँ एक्सेप्ट ना हो तो आम मुझे इमेल भी कर सकते है jitu9968 at gmail dot com पर
शास्त्रीय संगीत या कर्नाटक संगीत लिखने का मकसद किसी की भावनाओं को ठेस पहुँचाना नही था, जाने अनजाने यदि यह भूल हो गयी हो तो उसके लिये भी क्षमाप्रार्थी हूँ.