अनुनाद जी ने लिखा है, "क्या इसका कोई आंकडा है कि समान भार लादे हुए दोपहिया रिक्शा और तीनपहिया रिक्शा में किसको चलाने मे अधिक बल/शक्ति/उर्जा की आवश्यकता होती है".
सच कहूँ तो लिखते समय आंकड़ों के बारे में नहीं सोचा था पर शायद अनुनाद जी ठीक कहते हैं, केवल भावनात्मक वेग में समाज नहीं बदला जा सकता. मुझे बैल जैसे हल में जुते, नंगे पाँव भागते, रिक्शा खींचते उन इंसानों का सोच कर तर्क नहीं याद रहा. पर नंगे पांव भागने से साईकल चलाना अधिक आसान होता है यही सोच कर दो पहियों को तीन पहिये वाले रिक्शों में बदलने की सलाह दे रहा था.
सब मानव भावनाओं को तर्क पर ठीक से तोलना कठिन होता है. इसका पाठ मुझे पढ़ाया था मोरिशियस की एक विकलांग युवती ने. भारतीय मूल की थी वह और भोजपुरी बोलती थी. बचपन से बीमारी ने उसके हाथ पाँव के जोड़ों को जकड़ लिया था, सीधा नहीं खड़ा हो पाती थी, हाथों और घुटनों पर चलती थी. उसके पिता और ग्राम के स्वास्थ्य सेवक ने मिल कर उसके लिए लकड़ी का एक स्टूल सा बनाया था, जिसको उन्होंने मुझे बड़े गर्व से दिखाया. मेरे सामने, उस युवती ने बड़ी कठिनाई से उस स्टूल को पकड़ कर पहले खड़े हो कर दिखाया, फिर झटके दे दे कर, उसी के सहारे से थोड़ा चल कर दिखाया.
मुझे लगता था कि मुझे सब कुछ मालूम है, सब जानता हूँ मैं. मैंने अपना निर्णय सुनाया कि उस स्टूल से उन्होंने उस युवती का जीवन और भी कठिन बना दिया था. बिना स्टूल के वह सब काम अधिक आसानी से कर सकती थी, जबकि गाँव की उबड़ खाबड़ जमीन पर उस स्टूल से गिर कर उसकी हड्डी टूट सकती थी. अंततः मेरी राय थी कि उस स्टूल का कोई फायदा नहीं था, हानि ही थी.
मेरी बात को सुन कर वह बोली, "जब से चलने लगी हूँ, समझने लगी हूँ, लगता है कि मैं कुत्ता हूँ, जब किसी से बात करती हूँ तो उसके मुख की तरफ नहीं देख सकती. यह स्टूल जितना भी कठिन हो, मुझे इंसान महसूस होने देता है. मैं लोगों की आँखों में देख कर उनसे बात कर सकती हूँ."
***
एक ईमेल आया है, जिसने मुझे चकित भी किया और प्रसन्न भी. किसी ने मेरे अंतर्जाल पृष्ठ पर लगे कला नमूनों को खरीदने के लिए पूछा है. कहतीं हैं कि वह इन चित्रों को अपने नये घर में लगाना चाहती हैं. क्मप्यूटर पर बनाये चित्रों को कैसे बेचते हैं यह तो मुझे नहीं मालूम, और कोई उन्हें खरीदना चाह सकता है, यह भी नहीं सोचा था. शायद यह कोई नया स्पेम या उल्लू बना कर पैसे ऐठँने का तरीका है? जो भी हो, पढ़ कर अच्छा तो लगा!
आज की तस्वीरें उन्हीं चित्रों की हैं.
सोमवार, नवंबर 07, 2005
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