शनिवार, दिसंबर 17, 2005

इज्जत के लिए

हमारी संस्कृति में "इज्जत" का स्थान सर्वप्रथम है, कुछ भी हो जाये, इज्जत को बचा रखना चाहिये. इस इज्जत के बहुत से पक्ष हो सकते हैं, जिनमें से स्त्री के शरीर से जुड़े परिवार की इज्जत के प्रश्न सबसे प्रमुख हैं. बचपन में सुनी रानी पद्मनी की कहानी यही सिखाती है कि स्त्री की इज्जत उसके पति, उसके परिवार में है और बाहर का पुरुष उसके शरीर को छू ले तो उसकी इज्जत चली जायेगी. पराये मर्द के हाथ पड़ने से अच्छा है कि वह मर जाये. इसलिए जौहर या सती उसे पूजनीय बनाते हैं.

मानव के लिए जीवन का महत्व सबसे अधिक है, पैसे, इज्जत, खेल तमाशा, सबसे अधिक. पर यह नियम केवल पुरुष पर लागू होता है, क्योंकि इज्जत उसके शरीर में नहीं रहती. उसके शरीर को कोई भी देख ले, वह कितनी औरतों के साथ सहवास करे, उससे इसकी इज्जत बढ़ती है. उसकी पत्नी मरे तो और वह सती होने के सोचे, उसे सब पागल कहेंगे.

औरत और मर्द शरीरों के लिए इस तरह भिन्न सामाजिक नियम बना कर, हर समाज और तबका, अपनी इज्जत के मापदंड तैयार करता है. मुस्लिम समाज में इसका अर्थ बुरका बन जाता है, पाकिस्तान की उत्तर पश्चिमी प्रदेश में बेटियों और बहनों को "इज्जत बचाने" के लिए मारना, खून का जुर्म नहीं माना जाता. यानि परिवार की मर्जी के विरुद्ध किसी अन्य युवक से प्यार करने वाली लड़की को जान से मारना जुर्म नहीं है. भारत में बहुत से हिंदू परिवारों में इसका अर्थ है, लम्बा घूँघट रखो, सिर ढ़को, शरीर को ठीक से ढ़को, वगैरा. डिग्री का फर्क है, पर भीतर बात एक ही है.

कल पाकिस्तानी फिल्म निर्देशिका सबीहा सुमर की फिल्म "खामोश पानी" देखी तो यही सोच रहा था. फिल्म को देख कर विभिन्न बातें मन में आ रही थीं और बहुत सी बातों के बारे में मेरे अपने विचार कुछ स्पष्ट नहीं हैं. जैसे यह औरत शरीर की इज्जत की बात. आज तर्क के बूते पर सोच कर सोचता हूँ कि शरीर की इज्जत, जीवन के मूल्य से बड़ी नहीं हो सकती पर बचपन से सीखे सांस्कृतिक विचार इतनी आसानी से नहीं दबते या बदलते. बहुत बार पढ़ा था कि भारत विभाजन के समय बहुत से हिंदू और सिख परिवारों ने "इज्जत बचाने" के लिए बेटियों, बहनों, पत्नियों को कूँए में जान देना या जहर खा कर मरना बेहतर समझा, तो कभी यह गलत नहीं लगा, कभी यह नहीं सोचा, औरत की ही इज्जत क्यों खतरे में होती है और कौन निर्धारित करता है कि उसका मर जाना ही बेहतर है ?

"खामोश पानी" यही सवाल पूछती है. उसकी नायिका आयेशा सिख लड़की थी, जो कूँए में नहीं कूदी, जो पाकिस्तान मैं ही रह गयी और मुसलमान परिवार में मुसलमान बन कर जियी. सालों बाद जब उसका भारत में रहने वाला भाई उससे मिलने की कोशिश करता है और उसे पिता के बीमार होने की बात कहता है, वह यही पूछती है, इज्जत के नाम पर घर की सभी औरतों को कूँए में मरवा देने के बाद, क्यों उसे अपने ऐसे पिता या भाई की परवाह हो ?

3 टिप्‍पणियां:

  1. सही कह रहे हो सुनील भाई, हमारे दोहरे मापदन्ड है, पुरुषों के लिये अलग और स्त्रियों के लिये अलग।यदि कोई स्त्री इसमे बराबरी करने की कोशिश करती है तो हमारा समाज उसके चरित्रहीन करार देता है, यदि स्त्री चरित्रहीन करार दी जा सकती है तो पुरुष क्यों नही। लेकिन नही...वो तो उसकी मर्दानगी का प्रतीक है,वो तो चाहे जितनी स्त्रियों के साथ सहवास कर सकता है।समाज का ऐसा दोहरापन, ऊपर से तुर्रा ये कि हम तो स्त्रियों को बराबरी का दर्जा देते है, सम्मान देते है। स्थितियां नही बदली,जब तक विचार नही बदलेंगे, हम नही बदलेंगे,समाज नही बदलेगा।

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  2. सुनील जी आपने न केवल सही बात कही है, बल्कि बहुत सही ढ़ंग से कही है। इसे मैं अगली वर्ड फ़ाईल में लगाने वाला हूं।

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  3. खामोश पानी के विषय में सुना है लेकिन देखने का अवसर नहीं मिला। उद्वेलित करने वाली फिल्‍म प्रतीत होती है।

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