मेरी परेशानियाँ मेरे सब साथियों की परेशानियों से भिन्न थीं. आधुनिक और स्वतंत्र विचार रखनेवाले माता पिता मिलने का यही झंझट था. किशोरावस्था में सब साथियों के झगड़े होते अपने घरों में, बालों की लम्बाई पर, बैलबोटोम पैंट की चौड़ाई पर, रात को कितनी देर तक बाहर रह सकते हैं, जैसी बातों पर. हम थे कि तरसते ही रह जाते कि हमें कोई रोके या टोके, पूछे कि हमने ऐसा क्यों पहना है या वैसा क्यों किया है ?
उस जमाने में कान, नाक, माथे, होंठ आदि पर पिन घुसवाने या बालों को रंग बिरंगा बनवाने के फैशन नहीं आये थे, पर अगर आये होते तो हमने अवश्य उन्हें अपनाया होता और पक्का विश्वास है कि कोई हमसे नहीं पूछता कि हमने ऐसी बेहूदा हरकत क्यों की थी. हमारे साथी अपने माता पिता से प्रतिदिन लड़ते झगड़ते, और हम थे कि कोई हमें लड़ने का मौका ही नहीं देता था. क्या मालूम इससे हमारे व्यक्तित्व पर क्या गलत असर पड़ा हो ?
मेरा ख्याल है कि किशोरावस्था में हर बच्चे को माता पिता से लड़ने का अधिकार है, उसे अधिकार है कि उसके विचार माता पिता से न मिलें, और वह अपने विचारों के लिए लड़ कर अपना स्वतंत्र व्यक्तित्व बनाये. अगर ऐसा न हो तो बच्चों के मन में लड़ाई करने की आकांक्षा दबी रह जाती है.
माता पिता को कभी कभी बच्चे का व्यक्तित्व ठीक बनाने के लिए कभी कभी तानाशाह बन कर कहना चाहिये, "नहीं, तुम यह नहीं कर सकते. क्यों का क्या मतलब है ? बस मैंने कह दिया, इसीलिए नहीं कर सकते. अब मैं इसके बारे में कोई बहस नहीं करना चाहता!"
आप सोच सकते हैं कि कितना कष्ट पहुँचता है बच्चों को जब उत्तर मिलता है, "बेटा, तुम अपने आप सोच कर निर्णय लो. तुम बड़े हो गये हो, अपने सभी निर्णयों की जिम्मेदारी भी तुम्हारी ही है." ऐसा उत्तर मिलने के बाद बेचारे बच्चों को गलती करने का मौका तक नहीं मिलता, जो कि हर बच्चे का जन्मसिद्ध अधिकार होना चाहिये.
खुशकिस्मती से मेरी पत्नी ऐसे परिवार से नहीं है. मैं तो आदत के मारे और अपने बचपन के अनुभव के मारे, समझदार और स्वतंत्र विचारों वाला पिता हूँ, पर मेरी पत्नी साधारण माँ है जिसे इन नये विचारों में खास दिलचस्पी नहीं है. जब माँ बेटे में लड़ाई होती है तो मुझे बहुत खुशी होती है कि मेरे बेटे को कम से कम माँ से लड़ने का मौका तो मिला!
*****
आज दो तस्वीरें दिल्ली की सड़कों सेः
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
इस वर्ष के लोकप्रिय आलेख
-
हिन्दू जगत के देवी देवता दुनिया की हर बात की खबर रखते हैं, दुनिया में कुछ भी ऐसा नहीं जो उनकी दृष्टि से छुप सके। मुझे तलाश है उस देवी या द...
-
अगर लोकगीतों की बात करें तो अक्सर लोग सोचते हैं कि हम मनोरंजन तथा संस्कृति की बात कर रहे हैं। लेकिन भारतीय समाज में लोकगीतों का ऐतिहासिक दृष...
-
अँग्रेज़ी की पत्रिका आऊटलुक में बँगलादेशी मूल की लेखिका सुश्री तस्लीमा नसरीन का नया लेख निकला है जिसमें तस्लीमा कुरान में दिये गये स्त्री के...
-
पिछले तीन-चार सौ वर्षों को " लिखाई की दुनिया " कहा जा सकता है, क्योंकि इस समय में मानव इतिहास में पहली बार लिखने-पढ़ने की क्षमता ...
-
पत्नी कल कुछ दिनों के लिए बेटे के पास गई थी और मैं घर पर अकेला था, तभी इस लघु-कथा का प्लॉट दिमाग में आया। ***** सुबह नींद खुली तो बाहर अभी ...
-
सुबह साइकल पर जा रहा था. कुछ देर पहले ही बारिश रुकी थी. आसपास के पत्ते, घास सबकी धुली हुई हरयाली अधिक हरी लग रही थी. अचानक मन में गाना आया &...
-
हमारे घर में एक छोटा सा बाग है, मैं उसे रुमाली बाग कहता हूँ, क्योंकि वो छोटे से रुमाल जैसा है। उसमें एक झूला है, बाहर की सड़क की ओर पीठ किये,...
-
हमारे एक पड़ोसी का परिवार बहुत अनोखा है. यह परिवार है माउरा और उसके पति अंतोनियो का. माउरा के दो बच्चे हैं, जूलिया उसके पहले पति के साथ हुई ...
-
२५ मार्च १९७५ को भी होली का दिन था। उस दिन सुबह पापा (ओमप्रकाश दीपक) को ढाका जाना था, लेकिन रात में उन्हें हार्ट अटैक हुआ था। उन दिनों वह एं...
-
प्रोफेसर अलेसाँद्रा कोनसोलारो उत्तरी इटली में तोरीनो (Turin) शहर में विश्वविद्यालय स्तर पर हिन्दी की प्रोफेसर हैं. उन्होंने बात उठायी मेरे...
सुनील जी, आप सचमुच वह कह देते हैं, हम "जो न कह सके"। धन्यवाद एक और अनछुए विषय, और रग, पर उंगली रखने के लिए। मेरा भी कुछ ऐसा ही अनुभव है - बच्चों को कुछ न कहने से उन में हम कुछ वैचारिक स्वतन्त्रता भी पैदा करते हैं, और उन की नज़रों में अच्छे भी बने रहते हैं, पर कम से कम एक पेरेंट का कड़ा और अनुशासनप्रिय होना भी बहुत ज़रूरी है। मेरे परिवार में भी वह कमी मेरी पत्नी ही पूरा करती है।
जवाब देंहटाएं