मंगलवार, जुलाई 25, 2006

जिया लागे न

हर साल की तरह गर्मियाँ फ़िर आ गयीं. कुछ दिन तो परिवार के साथ छुट्टियाँ बिताने का मौका मिला पर फ़िर काम पर वापस आना पड़ा जबकि बाकी का सारा परिवार अभी भी छुट्टियाँ मना रहा है. पँद्रह दिनों से घर पर अकेला हूँ.

सुबह उठते ही सोचना पड़ता है, "आज खाने में क्या ले जाये? सलाद, टमाटर और पनीर या खीरा, टमाटर और पनीर?" कुछ ऐसा होना चाहिये जिसे बनाना न पड़े और बर्तन न गन्दे हो तो अच्छा है. सलाद, टमाटर, खीरे और पनीर देख कर ही भूख कम हो जाती है, पर क्या किया जाये? आज फ़िर वही खाना, यह शिकायत किससे कहें?

शाम को घर वापस आओ तो फ़िर एक बार वही दुविधा, क्या बनाया जाये? सुपरमार्किट में जाओ तो मेरे जैसे गम्भीर चेहरों वाले पुरुष दिखते हैं जो अँडे, डिब्बे में बंद खाने, गर्म करने वाले पिज्जे, ले कर घूम रहे होते हैं. शाम को उनके भी घरों में यही दुविधा उठती होगी! आधी दुकाने तो छुट्टियों के लिए बंद हैं. समाचारों में कह रहे थे कि शहर के 60 फीसदी लोग छुट्टियों में शहर से बाहर गये हैं. कार पार्क करने के लिए जगह नहीं खोजनी पड़ती, सड़कों पर यातायात बहुत कम है.

रात को पत्नी से टेलीफ़ोन से बात होती है. आज दिन में क्या किया? जैसे प्रश्न का उत्तर क्या दूँ समझ नहीं आता. आसपास घर गन्दा सा लगता है, रोज़ होने वाली सफाई, सप्ताह में एक दो बार हो जाये तो बहुत है. उठो नाश्ता बनाओ, पौधों को पानी दो, साथ ले जाने के लिए खाना तैयार करो, काम पर जाओ, घर वापस आ कर, फ़िर खाना बनाओ, बर्तन धोओ और रात हो जाती है. मेरे बिना घर में कैसा लगता है, पत्नी पूछती है, जाने अकेले क्या गुलछर्रे उड़ा रहे होगे?

हाँ, गुलछर्रे ही उड़ रहे हैं, पर उनसे मन नहीं भरता. अकेले लोग सारा जीवन कैसे रहते हैं, कुछ कुछ समझ में आता है और थोड़ा सा डर लगता है. अगर घर से अलग लम्बे समय के लिए रहना पड़े तो कैसे होगा? नहीं, कुछ और दिनों की तो बात है, मन को समझाता हूँ.

आज कुछ तस्वीरें में है अकेली शामें.






3 टिप्‍पणियां:

  1. कम से कम तन्हाई कि फोटो सुन्दर हैं

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  2. तो आजकल आप फोर्स्ड बैचलर लाइफ गुजार रहे है। यहाँ भी इन दिनो यही माहौल है, बस फर्क इतना होता है जिसकी बीबी छुट्टियों मे बाहर जाती है वो अपना बोरिया बिस्तर लेकर दूसरे बैचलर के घर डेरा जमा लेता है, एक से भले दो।कोई खाना बनाने मे उस्ताद होता है तो कोई साफ सफाई मे, ऐसे ही छुट्टियों का यह समय निकल जाता है। वीकेन्ड के दिन किसी परिवार वाले के यहाँ डिनर का इन्वीटेशन होता ही है। पर हाय रे, इस बार लाख कोशिशें करने के बाद भी हम बैचलर लाइफ का लुत्फ़ ना उठा सके, क्योंकि श्रीमती जी ने कुवैत आने का प्लान प्रीपोन कर दिया था।अब क्या करते है? करें क्या? बस वीकेन्ड पर बैचलरों के डिनर आर्गेनाइज करते रहते है।

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  3. Sunil Ji,
    Your blog is very innocent and sweet. You have kept that aspect in your personality looks like.

    Priti.

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"जो न कह सके" के आलेख पढ़ने एवं टिप्पणी के लिए डॉ. सुनील दीपक की ओर से आप का हार्दिक धन्यवाद.

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